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डांवाडोल अमेरिका के कारण विश्व के शिखर नेतृत्व में शून्यता

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शरद सिंगी

राष्ट्रपति ट्रंप ने पेरिस पर्यावरण समझौते से अपने हाथ क्या खींचे ऐसा प्रतीत हुआ मानो उन्होंने अमेरिका के मस्तक पर लगे विश्व के शहंशाह के ताज का त्याग कर दिया हो याने विश्व का नेतृत्व करने से अपने हाथ खींच लिए हों। दुनिया नेतृत्वविहीन सी हो गई लगती है। ट्रंप के अभी तक के बयानों से यह तो स्पष्ट हो चुका है कि उनमें विश्व को नेतृत्व देने की न तो क्षमता है और न ही योग्यता और अब उनके इन अटपटे निर्णयों ने अमेरिका की प्रतिष्ठा को भी दांव पर लगा दिया है।
 
अमेरिका के  इस तरह ताज छोड़ने से हुए रिक्त स्थान को भरने के लिए सबसे पहले जहन में जो नाम आते हैं वे या तो रूस के या चीन के। अमेरिका जितनी जमीन छोड़ रहा है, रूस को उतना लाभ मिलता जा रहा है। यद्यपि रूस के राष्ट्रपति पुतिन को विश्व में अभी उतनी स्वीकार्यता और लोकप्रियता नहीं है। विशेषज्ञों की नज़रों में पुतिन अपने सहयोगी राष्ट्रों के बीच तो अपनी विश्वसनीयता  बढ़ाते  जा रहे हैं किन्तु यूरोप का विश्वास उनके साथ नहीं है। दूसरी ओर चीन अभी इस पद को लेने के लिए परिपक्व नहीं है क्योंकि इस पद के लिए जो  विश्वसनीयता, नेकनीयती और उत्तरदायित्व लेने की क्षमता चाहिए वह चीन अभी तक प्रदर्शित नहीं कर सका है।  
 
जहां तक भारत का प्रश्न है, विश्व का नेतृत्व उसके लिए अभी दूर की कौड़ी है। भारत को आर्थिक और सामरिक दृष्टि से बहुत मजबूत होना होगा ऐसे किसी भी पद की दावेदारी के लिए। मात्र नेकनीयती ही इस पद के लिए आवश्यक मापदंड नहीं है। इन परिस्थितियों में दो और विकल्प हैं। या तो यूरोप संयुक्त रूप से विश्व का नेतृत्व करे किन्तु यूरोप अभी स्वयं अपनी ही समस्याओं में उलझा हुआ है। अमेरिका के यों पेरिस समझौते से अलग हो जाने से और इंग्लैंड के ब्रेक्सिट निर्णय से यूरोपीय देशों के ऊपर से आर्थिक सुरक्षा का साया उठ चुका है। 
 
नाटो कमज़ोर हो चुका है। यूरोप के कुछ गरीब और अविकसित देश यूरोपीय संघ की कमजोर कड़ी हैं जो यूरोप पर बोझ बने हुए हैं। ऐसे में यूरोपीय संघ  स्वयं अपना बोझ उठा ले तब तो यूरोपीय नेतृत्व  विश्व के बारे में सोचेगा। यूरोप में क्षमता अवश्य हैं किन्तु अभी तक अमेरिका और इंग्लैंड की छाया में रहते हुए यूरोपीय देशों में कुछ ज्यादा ही आरामतलबी आ गई थी। 
 
अंतिम विकल्प के रूप में हमारे सामने जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल हैं जिन्होंने विश्व स्तर पर लौह महिला के रूप में अपनी साख अर्जित की है। उनके पास सामरिक और आर्थिक शक्ति  दोनों ही है।  यूरोपीय संघ को एक साथ रखने में उनकी महती भूमिका है।  फ्रांस में सामान विचारधारा वाले नए राष्ट्रपति के आने से उनकी स्थिति और मजबूत हुई है।   
 
अब  इस पृष्भूमि में यदि प्रधानमंत्री मोदीजी की हाल ही की चार देशों की विदेश यात्रा की विवेचना करें तो देखेंगे कि इस यात्रा के लिए इससे अच्छा समय नहीं हो सकता था। यात्रा में प्रथम पड़ाव जर्मनी ही था। ओबामा प्रशासन के समय भारत और अमेरिका के रिश्तों में  प्रगाढ़ता लाने की जो गति पकड़ी थी वह अब थोड़ी शिथिल होती दिख रही है क्योंकि ट्रंप प्रशासन एक तो अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में नौसिखिया साबित हो रहा है दूसरा उसे अपने घर की समस्याओं से निपटने की सम्पट नहीं पड़ रही है। उसकी कूटनीति  दिशाहीन सी दिख रही  है। ऐसे में हमारे प्रधानमंत्री का जर्मनी, फ्रांस, स्पेन और रूस का दौरा बहुत महत्वपूर्ण हो गया था। 
 
भारत को अमेरिका की अनुपस्थिति के दशा में अंतरराष्ट्रीय मंचों पर जर्मनी, फ्रांस एवं  रूस का साथ, समर्थन और सहयोग चाहिए। विगत कुछ वर्षों से भारत से अमेरिका की बढ़ती नज़दीकियां, पाकिस्तान को मौका दे रही थी रूस के साथ घनिष्ठता बढ़ाने का। रूस दशकों से भारत का भरोसेमंद मित्र है और उसकी कीमत पर ढुलमुल अमेरिका के साथ रिश्तों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। इसमें संदेह नहीं है कि  रूस, फ्रांस  और जर्मनी का साथ भारत के लिए आने वाले कुछ वर्षों के लिए अतिआवश्यक है जो प्रधानमंत्री की इस यात्रा की उपलब्धि है। हमारा विश्वास है कि इसके लाभ बहुत दूरगामी होंगे। हमारे मत से भारत की वर्तमान कूटनीतिक पहलें अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत के महत्व को रेखांकित कर रही हैं। 

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