इस आलेख में हम अपने पाठकों को अंतरराष्ट्रीय जगत में चल रहे एक आर्थिक युद्ध की विभीषिका से अवगत कराना चाहते हैं, जो कई अर्थों में सामरिक युद्ध से भी भयावह हो सकता है। वर्तमान में तेजी से बदलती विश्व की आर्थिक व्यवस्था से लगता है कि विश्व से सामरिक प्रभुत्व के दिन लद चुके हैं और महाशक्तियों के बीच आर्थिक प्रभुता स्थापित करने की जंग छिड़ चुकी है।
देशों के बीच आपसी व्यापार और जमा विदेशी मुद्रा भंडार अब राजनीतिक हथियार बन चुके हैं। इस युद्ध के केंद्र में चीन है, क्योंकि विश्व के आर्थिक संतुलन को खराब करने का सारा दोष उसके सिर पर है। पिछले 3 दशकों में चीन की आर्थिक तरक्की का मुख्य कारण यह है कि उसने अपने सस्ते चीनी कच्चे माल और सस्ते चीनी श्रमिकों का उपयोग कर दुनिया में अपने माल की आपूर्ति आक्रामक कीमतों में की।
चीन ने विश्व के बाजारों को सस्ते माल से इतना भर दिया कि दुनिया के विकसित देशों के कई उद्योग ठप हो गए। ऊपर से चीन की सरकार ने अपनी मुद्रा 'युआन' को डॉलर के विरुद्ध सस्ता बनाए रखा ताकि निर्यात में आसानी हो। चीन ने अपने देश में उत्पादन बढ़ाया, लागत कम की, रोजगार के अवसर बढ़ाए और इस तरह चीनी उद्योग विदेशी मुद्रा छापने की मशीन बन गए।
ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के पश्चात अमेरिका की नींद यकायक खुली और जाना कि किस तरह चीन ने डॉलर के बहाव का रुख अपने देश की ओर कर रखा है और अपने खजाने को डॉलरों से भर लिया है। अमेरिका ही नहीं, यूरोप और भारत के विरुद्ध भी चीन ने यही तरीका इस्तेमाल किया। अपने देश का खजाना भर जाने के बाद चीन ने दूसरा खेल खेला और वह गरीब देशों के लिए साहूकार बन गया।
पश्चिमी देश तो गरीब देशों की आर्थिक मदद सीधे दान या उपहार देकर किया करते हैं किंतु चीन एक साहूकार बन गया है, जो सहायता के नाम पर धन तो देता है किंतु उधार और वह भी अपनी शर्तों पर। पाकिस्तान इसका उदाहरण है, जहां चीन ने ग्वादर पोर्ट और चीन से लेकर इस पोर्ट तक एक आर्थिक गलियारे (पहुंच मार्ग) को विकसित तो किया किंतु उससे होने वाली आमदनी पर अपना अधिकार रखा हुआ है। इस तरह चीन, एशिया और अफ्रीका के गरीब देशों में ऋण का जाल बिछाकर उनका दोहन कर रहा है।
राष्ट्रपति ट्रंप ने चीन की इन चालों को समझकर चीन के साथ ट्रेड वॉर छेड़ दिया है जिसकी चपेट में दुनिया का हर देश आ गया है। अमेरिका ने चीन से आने वाले सामान पर आयात शुल्क चस्पा कर दिया है। चीन की वजह से भारत और कनाडा जैसे देश भी लपेट में आ गए जिनके उत्पादों पर भी अमेरिका ने आयात शुल्क लगाने की घोषणा कर दी है। चीन ने अमेरिका के इस कदम का प्रतिकार करते हुए अमेरिका से आने वाले सामान पर आयात शुल्क ठोक दिया किंतु ऐसा करने से उसकी फजीहत और बढ़ रही है।
उसी तर्ज पर भारत सहित अन्य देश भी अपनी अपनी स्थिति का आकलन कर रहे हैं। भारत को पहला धक्का तब लगा, जब अमेरिका ने भारत से आयातित होने वाले स्टील और एल्युमीनियम पर शुल्क ठोक दिया। भारत सरकार ने इसे हटवाने की बहुत कोशिश की किंतु सफलता नहीं मिली। अंतत: भारत ने भी प्रतिकार करते हुए अमेरिका के 29 उत्पादों जिसमें बादाम, चॉकलेट, चने आदि शामिल हैं, पर 4 अगस्त से आयात शुल्क लगाने की घोषणा कर दी है।
अमेरिका ने वर्तमान स्थिति पर भी नाखुशी जताते हुए कहा है कि चीन पहले तो अविकसित और गरीब देशों को उनकी क्षमता से अधिक कर्ज देता है फिर उगाही के लिए उन्हें परेशान करता है। हाल का उदाहरण पाकिस्तान का है, जो अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं को छोड़कर चीन के ऋण के जाल में गले तक उलझा हुआ है। चीन अपना ऋण वापस मांग रहा है किंतु खाली खजाने को लेकर बैठे पाकिस्तान के पास चुकाने के लिए धन कहां है?
उधर अमेरिका ने अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष को आगाह किया है कि पाकिस्तान को ऋण देते समय यह ध्यान रखा जाए कि वह नया ऋण, कहीं चीन के ऋण को उतारने के लिए तो नहीं ले रहा? इस प्रकार अमेरिका का इरादा चीन को चारों तरफ से घेरने का है। इन परिस्थितियों में यूरोपीय यूनियन और भारत का साथ भर भी यदि अमेरिका को मिल जाए तो चीन की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं और उसकी साहूकारी पर रोक लगाई जा सकेगी और तभी दुनिया में फिर से आर्थिक अनुशासन आ सकेगा।
हमारा आकलन यह है कि वर्तमान आर्थिक युद्ध यदि लंबा चला तो कई देशों की मुद्राएं ध्वस्त होंगी और कहीं ऐसा न हो कि सारे देश अमेरिका के विरुद्ध लामबंद हो जाएं। ऐसे में उसकी चाल उलटी पड़ने का खतरा है, क्योंकि चीन भी गठबंधन की नई संभावनाएं तलाश रहा है विशेषकर ब्रिक्स देशों के साथ। जिस तरह शीतयुद्ध के दौरान दुनिया 2 हिस्सों में बंट गई थी, उसी तरह अगले कुछ महीनों में हम देखेंगे कि इस आर्थिक युद्ध में दुनिया के कौन से देश किसके साथ लामबंद हो रहे हैं? एक तरफ अमेरिकी खेमा होगा और दूसरी तरफ चीनी!