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विश्व क्षय रोग दिवस: भारत के लिए 2025 तक टीबी मुक्त भारत का लक्ष्य चुनौती ही नहीं, प्रतिबद्धता भी है

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ब्रह्मानंद राजपूत

टीबी (क्षयरोग) एक घातक संक्रामक रोग है, जो कि माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्लोसिस जीवाणु की वजह से होती है। टीबी (क्षयरोग) आमतौर पर ज्यादातर फेफड़ों पर हमला करता है, लेकिन यह फेफड़ों के अलावा शरीर के अन्य भागों को भी प्रभावित कर सकता है। यह रोग हवा के माध्यम से फैलता है। जब क्षयरोग से ग्रसित व्यक्ति खांसता, छींकता या बोलता है तो उसके साथ संक्रामक ड्रॉपलेट न्यूक्लीआई उत्पन्न होता है, जो कि हवा के माध्यम से किसी अन्य व्यक्ति को संक्रमित कर सकता है। ये ड्रॉपलेट न्यूक्लीआई कई घंटों तक वातावरण में सक्रिय रहते हैं। जब एक स्वस्थ व्यक्ति हवा में घुले हुए इन माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्लोसिस ड्रॉपलेट न्यूक्लीआई के संपर्क में आता है तो वह इससे संक्रमित हो सकता है। क्षयरोग सुप्त और सक्रिय अवस्था में होता है। सुप्त अवस्था में संक्रमण तो होता है लेकिन टीबी का जीवाणु निष्क्रिय अवस्था में रहता है और कोई लक्षण दिखाई नहीं देते हैं। अगर सुप्त टीबी का मरीज अपना इलाज नहीं कराता है तो सुप्त टीबी सक्रिय टीबी में बदल सकती है। लेकिन सुप्त टीबी ज्यादा संक्रामक और घातक नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक अनुमान के अनुसार विश्व में 2 अरब से ज्यादा लोगों को लेटेंट (सुप्त) टीबी संक्रमण है। सक्रिय टीबी की बात की जाए तो इस अवस्था में टीबी का जीवाणु शरीर में सक्रिय अवस्था में रहता है तथा यह स्थिति व्यक्ति को बीमार बनाती है। सक्रिय टीबी का मरीज दूसरे स्वस्थ व्यक्तियों को भी संक्रमित कर सकता है इसलिए सक्रिय टीबी के मरीज को अपने मुंह पर मास्क या कपड़ा लगाकर बात करनी चाहिए और मुंह पर हाथ रखकर खांसना और छींकना चाहिए।
 
अगर टीबी का जीवाणु फेफड़ों को संक्रमित करता है तो वह पल्मोनरी टीबी (फुफ्फुसीय यक्ष्मा) कहलाता है। टीबी का बैक्टीरिया 90 प्रतिशत से ज्यादा मामलों में फेफड़ों को प्रभावित करता है। लक्षणों की बात की जाए तो आमतौर पर सीने में दर्द और लंबे समय तक खांसी व बलगम होना शामिल हो सकते हैं। कभी-कभी पल्मोनरी टीबी से संक्रमित लोगों की खांसी के साथ थोड़ी मात्रा में खून भी आ जाता है। लगभग 25 प्रतिशत ज्यादा मामलों में किसी भी तरह के लक्षण नहीं दिखाई देते हैं। बहुत कम मामलों में संक्रमण फुफ्फुसीय धमनी तक पहुंच सकता है जिसके कारण भारी रक्तस्राव हो सकता है। टीबी एक पुरानी बीमारी है और फेफड़ों के ऊपरी भागों में व्यापक घाव पैदा कर सकती है। फेफड़ों के ऊपरी में होने वाली टीबी को कैविटरी टीबी कहा जाता है। फेफड़ों के ऊपरी भागों में निचले भागों की अपेक्षा तपेदिक संक्रमण प्रभाव की आशंका अधिक होती है। इसके अलावा टीबी का जीवाणु कंठ नली को प्रभावित कर लेरिंक्स टीबी करता है। एक्स्ट्रा पल्मोनरी टीबी (इतर फुफ्फुसीय यक्ष्मा)- अगर टीबी का जीवाणु फेफड़ों की जगह शरीर के अन्य अंगों को प्रभावित करता है, तो इस प्रकार की टीबी एक्स्ट्रा पल्मोनरी टीबी (इतर फुफ्फुसीय यक्ष्मा) कहलाती है। एक्स्ट्रा पल्मोनरी टीबी पल्मोनरी टीबी के साथ भी हो सकती है। अधिकतर मामलों में संक्रमण फेफड़ों से बाहर भी फैल जाता है और शरीर के दूसरे अंगों को प्रभावित करता है जिसके कारण फेफड़ों के अलावा अन्य प्रकार के टीबी हो जाते हैं। फेफड़ों के अलावा दूसरे अंगों में होने वाली टीबी को सामूहिक रूप से एक्स्ट्रा पल्मोनरी टीबी (इतर फुफ्फुसीय यक्ष्मा) के रूप में चिह्नित किया जाता है। एक्स्ट्रा पल्मोनरी टीबी (इतर फुफ्फुसीय यक्ष्मा) अधिकतर कमजोर प्रतिरोधक क्षमता वाले लोगों और छोटे बच्चों में अधिक आम होता है। एचआईवी से पीड़ित लोगों में एक्स्ट्रा पल्मोनरी टीबी (इतर फुफ्फुसीय यक्ष्मा) 50 प्रतिशत से अधिक मामलों में पाया जाता है। एक्स्ट्रा पल्मोनरी टीबी (इतर फुफ्फुसीय यक्ष्मा) को अंगों के हिसाब से नाम दिया गया है। अगर टीबी का जीवाणु केंद्रीय तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करता है तो वह मैनिन्जाइटिस टीबी कहलाती है। लिम्फ नोड (लसिका प्रणाली, गर्दन की गंडमाला में) में होने वाली टीबी को लिम्फ नोड टीबी कहा जाता है। पेराकार्डिटिस तपेदिक में हृदय के आसपास की झिल्ली (पेरीकार्डियम) प्रभावित होती है। पेराकार्डिटिस तपेदिक में पेरीकार्डियम झिल्ली और हृदय के बीच की जगह में फ्लूइड (तरल पदार्थ) भर जाता है। हड्डियों व जोड़ों को प्रभावित करने वाली टीबी हड्डी व जोड़ों की टीबी कहलाती है। जननमूत्रीय प्रणाली को प्रभावित करने वाली टीबी जेनिटोयूरिनरी टीबी (मूत्र जननांगी तपेदिक) कहलाती है। इसके अलावा भी माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्लोसिस शरीर के कई अंगों को प्रभावित कर विभिन्न प्रकार की एक्स्ट्रा पल्मोनरी टीबी (इतर फुफ्फुसीय यक्ष्मा) करता है। 
 
इस प्रकार की ड्रग रेजिस्टेंस टीबी में फर्स्ट लाइन ड्रग्स का टीबी के जीवाणु (माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्लोसिस) पर कोई असर नहीं होता है। अगर टीबी का मरीज नियमित रूप से टीबी की दवाई नहीं लेता है या मरीज द्वारा जब गलत तरीके से टीबी की दवा ली जाती है या मरीज को गलत तरीके से दवा दी जाती है और या फिर टीबी का रोगी बीच में ही टीबी के कोर्स को छोड़ देता है (टीबी के मामले में अगर 1 दिन भी दवा खानी छूट जाती है तब भी खतरा होता है) तो रोगी को मल्टी ड्रग रेजिस्टेंस टीबी हो सकती है। इसलिए टीबी के रोगी को डॉक्टर के दिशा-निर्देश में नियमित टीबी की दवाओं का सेवन करना चाहिए। मल्टी ड्रग रेजिस्टेंस टीबी में फर्स्ट लाइन ड्रग्स आइसोनियाजिड और रिफाम्पिसिन जैसे दवाओं का मरीज पर कोई असर नहीं होता है, क्योंकि आइसोनियाजिड और रिफाम्पिसिन का टीबी का जीवाणु (माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्लोसिस) प्रतिरोध करता है। इस प्रकार की टीबी मल्टी ड्रग रेजिस्टेंस टीबी से ज्यादा घातक होती है। एक्सटेनसिवली ड्रग रेजीस्टेंट टीबी में मल्टी ड्रग रेजिस्टेंस टीबी के उपचार के लिए प्रयोग होने वाली सेकंड लाइन ड्रग्स का टीबी का जीवाणु प्रतिरोध करता है। एक्सटेनसिवली ड्रग रेजिस्टेंस टीबी में फर्स्ट लाइन ड्रग्स आइसोनियाजिड और रिफाम्पिसिन के साथ-साथ टीबी का जीवाणु सेकंड लाइन ड्रग्स में कोई फ्लोरोक्विनोलोन ड्रग (सीप्रोफ्लॉक्सासिन, लेवोफ्लॉक्सासिन और मोक्सीफ्लोक्सासिन) और कम से कम एक अन्य इंजेक्शन द्वारा दी जाने वाली ड्रग (अमिकासिन, कैनामायसिन और कैप्रीयोमायसिन) का प्रतिरोध करता है। मल्टी ड्रग रेजिस्टेंस टीबी का रोगी द्वारा अगर सेकंड लाइन ड्रग्स को भी ठीक तरह और समय से नहीं खाया या लिया जाता है तो एक्सटेनसिवली ड्रग रेजिस्टेंस टीबी की आशंका बढ़ जाती है। इस प्रकार की टीबी में एक्सटेंसिव थर्ड लाइन ड्रग्स द्वारा 2 वर्ष से अधिक तक उपचार किया जाता है। लेकिन एक्सटेनसिवली ड्रग रेजिस्टेंस टीबी का उपचार सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण है।
 
आज के समय पर ड्रग रेजिस्टेंट टीबी के उपचार के लिए शॉर्टर रेजिमेन (9-11 माह) का उपयोग किया जा रहा है। इसके अलावा नई टीबी ड्रग बेडाक्वीलाइन का उपयोग भी ड्रग रेजिस्टेंट टीबी (एमडीआर और एक्सडीआर) के उपचार में किया जा रहा है, लेकिन आज भी भारत के अंतिम दवा प्रतिरोधक टीबी (ड्रग रेजिस्टेंट) टीबी मरीज तक बेडाक्वीलाइन की पहुंच नहीं है। बेडाक्वीलाइन ड्रग की देश में कम उपलब्धता भी इसका प्रमुख कारण है इसके साथ ही बेडाक्वीलाइन दवा काफी महंगी है। बेडाक्वीलाइन दवा टीबी की अन्य दवाओं के साथ छः माह तक एक अतिरिक्त दवा के तौर पर दी जाती है। जिन भी मरीजों को देश में बेडाक्वीलाइन दवा दी जा रही है वह सरकार द्वारा मुफ्त में उपलब्ध कराई जा रही हैं। बेडाक्वीलाइन आज भी देश के हर जिले में लांच नहीं हो पाई है। शोध में पता चला है कि बेडाक्वीलाइन ड्रग रेसिस्टेंट टीबी की इलाज की दर को बढ़ा रही है। लेकिन बेडाक्वीलाइन ड्रग भी हर मरीज को नहीं दी जा सकती है इसके भी अपने दायरे हैं। डेलामानिड दवा भी दवा प्रतिरोधक टीबी के इलाज के लिए नई दवा है। हमारे भारत देश में पूरे विश्व की तुलना में सबसे ज्यादा टीबी मरीजों की संख्या है। भारत देश का लगभग 27 प्रतिशत टीबी बीमारी के मामले में पूरे विश्व में योगदान है। सबसे ज्यादा दवा प्रतिरोधक टीबी मरीज भी भारत देश में है। अगर टीबी मरीज को सही समय पर इलाज नहीं मिलता है तो एक सक्रिय टीबी मरीज साल में कम से कम 15 नए मरीज पैदा करता है। एमडीआर और एक्सडीआर टीबी मरीज से होने वाला संक्रमण भी एमडीआर और एक्सडीआर ही होता है जो कि एक चुनौतीपूर्ण स्थिति होती है। इसलिए जरूरी है कि खासकर एमडीआर और एक्सडीआर टीबी मरीजों कि विशेष निगरानी की जानी चाहिए जिससे कि एमडीआर और एक्सडीआर टीबी मरीज दूसरे एमडीआर और एक्सडीआर मरीज पैदा नहीं कर सकें।
 
आज सरकार द्वारा राष्ट्रीय क्षय रोग उन्मूलन कार्यक्रम (एनटीईपी) के तहत टीबी कि रोकथाम के लिए प्रयास तो किए जा रहे है लेकिन सरकार टीबी की रोकथाम में पूर्ण रूप से सफल नहीं हो पा रही है। आज जरूरत है कि जमीनी स्तर पर काम करने की जिससे कि सरकार के प्रयासों को सफलता में बदला जा सके। अगर उत्तर प्रदेश की बात की जाए तो उत्तर प्रदेश भारत देश में टीबी बीमारी के मामले में सबसे ज्यादा योगदान करता है। उत्तर प्रदेश में टीबी की रोकथाम के लिए आगरा में राज्य क्षय रोग प्रशिक्षण और प्रदर्शन केंद्र काम कर रहा है इसके साथ ही पूरे उत्तर प्रदेश में 75 जिला टीबी केंद्र हैं। 993 टीबी यूनिट्स हैं। 2020 डेसिग्नेटेड माइक्रोस्कोपी केंद्र हैं। इसके अलावा (नेशनल रेफरेन्सेस लेबोरेटरी) एनआरएल नेशनल जालमा इंस्टिट्यूट फॉर लेप्रोसी एंड अदर मायकोबैक्टीरियल डिसीसेस, आगरा भी टीबी उन्मूलन के लिए काम कर रहा है। इसके अलावा उत्तर प्रदेश में दो आईआरएल (इंटरमीडिएट रिफरेन्स लेबोरेटरी) आगरा और लखनऊ हैं। ये आईआरएल कल्चर डीएसटी लैब के साथ-साथ पूरे प्रदेश में निरीक्षण (सुपरविजन) का काम भी करती हैं। दोनों आगरा और लखनऊ आईआरएल के साथ-साथ 5 अन्य कल्चर डीएसटी लैब (एएमयू अलीगढ, बीएचयू बनारस, एसजीपीजीआई लखनऊ, डॉ. राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान लखनऊ, एसआरएमएस बरेली) भी काम कर रही हैं। इसके अलावा कई डीएसटी लैब्स विकासशील अवस्था में है। इसी प्रकार की व्यवस्था देश के हर राज्य में है। यह सब व्यवस्था देश को टीबी मुक्त बनाने में लगी हुई है। सरकार विभिन्न जगहों पर काफी पैसा खर्च करती है उसी प्रकार राष्ट्रीय क्षय रोग उन्मूलन कार्यक्रम (एनटीईपी) को सफल बनाने के लिए कर रही है, लेकिन आज भी सरकार निचले क्रम के आरएनटीसीपी प्रोग्राम, एनएचएम और आउटसोर्सिंग के अंतर्गत काम कर रहे कर्मचारियों को काफी कम वेतन देती है। अगर कल्चर डीएसटी लैब्स में काम करने वाले तकनीशियन की बात की जाए तो किसी को सरकार 12000 प्रति माह दे रही है, किसी को 14 हजार प्रतिमाह दे रही है, किसी को 16 हजार प्रतिमाह दिए जा रहे हैं। जो कि अपने आप में बहुत कम है।
 
राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत चल रहे राष्ट्रीय क्षय रोग उन्मूलन कार्यक्रम (एनटीईपी) में संपूर्ण देश में हजारों लैब टेक्नीशियन और अन्य कर्मचारी संविदात्मक सेवा के तहत काम कर रहे हैं। ये सभी लैब टेक्नीशियन नेशनल टीबी कंट्रोल प्रोग्राम के तहत चल रहीं नेशनल रेफरेन्स लेबोरेटरी, इंटरमीडिएट रेफरेन्स लेबोरेटरी, डिजाइनेटेड माइक्रोस्कोपी सेंटर्स, विभिन्न कल्चर एंड डीएसटी लैब्स और हजारों प्राथमिक और सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में काम कर रहे हैं। इन लैब्स में सभी लैब टेक्नीशियनों को मायकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्लोसिस के एक्सटेंसीवेली ड्रग रेजिस्टेंस स्ट्रेन को भी डील करना पड़ता है, जो कि अत्यंत खतरनाक है। संपूर्ण देश में हजारों लैब टेक्नीशियन अपनी जान का जोखिम उठाकर देश को 2025 तक टीबी मुक्त भारत करने कि दिशा में अपना अमूल्य योगदान दे रहे हैं। इस जोखिम भरे काम के बदले में संविदात्मक सेवा के तहत काम कर रहे लैब तकनीशियन को काफी कम मासिक वेतन मिलता है। जिससे उनके पारिवारिक खर्चे भी पूरे नहीं होते। साथ-साथ लैब टेक्नीशियन को लैब में काम करते समय और मरीज के संपर्क में आते समय टीबी से संक्रमण का खतरा रहता है। अगर कोई संविदात्मक लैब टेक्नीशियन या अन्य संविदा कर्मचारी काम करते समय टीबी से संक्रमित हो भी जाता है तो उसे अलग-थलग कर दिया जाता है और सरकार द्वारा कोई भी मदद मुहैया नहीं कराई जाती है। जिससे मजबूरन उसे जॉब छोड़ने को मजबूर होना पड़ता है। कई बार संविदात्मक लैब टेक्नीशियन और अन्य संविदा कर्मचारी की टीबी से आकस्मिक मृत्यु भी हो जाती है, तो भी सरकार द्वारा उस संविदात्मक लैब टेक्नीशियन के परिवार को कोई भी मदद मुहैया नहीं कराई जाती है। जो सिपाही (संविदात्मक लैब टेक्नीशियन या अन्य संविदा कर्मचारी) देश को टीबी मुक्त बनाने में खुद टीबी की चपेट में आकर अपने प्राणों की आहुति दे देता है, उसी के परिवार को दर-दर पर ठोकर खाने को मजबूर होना पड़ता है और हर जगह पर उस परिवार को निराशा ही हाथ लगती है। इससे परिवार का भविष्य अंधकारमय हो जाता है।
 
राष्ट्रीय क्षय रोग उन्मूलन कार्यक्रम (एनटीईपी) के तहत काम कर रहे संविदात्मक लैब टेक्नीशियन या अन्य संविदा कर्मचारियों के लिए सरकार को एक ऐसी नीति बनानी चाहिए जिससे कि उन्हें भी नियमित कर्मचारियों की भांति टीबी की चपेट में आने पर या मृत्यु हो जाने पर पीड़ित परिवार को आर्थिक मदद मुहैया कराने और परिवार में से किसी एक परिजन को सरकारी नौकरी देने का प्रावधान हो। जिससे कि संविदात्मक लैब टेक्नीशियन और अन्य संविदा कर्मचारियों या उनके परिवार का भविष्य अंधकारमय न हो। अगर सरकार इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए संविदात्मक लैब टेक्नीशियन या अन्य संविदा कर्मचारियों के हित में एक ऐसी नीति बनाए जिससे राष्ट्रीय क्षय रोग उन्मूलन कार्यक्रम (एनटीईपी) के तहत काम कर रहे सभी संविदा कर्मचारियों के मानवाधिकारों की रक्षा हो।
 
आज कहा जाए तो सैंपल लोड के मुताबिक टीबी कल्चर डीएसटी लैब्स में जितने कर्मचारी होने चाहिए उससे आधी संख्या में कर्मचारी काम कर रहे हैं। इन कल्चर डीएसटी लैब्स में सैंपल लोड ज्यादा रहता है और कर्मचारिओं की संख्या कम है विशेषतः तकनीशियनों की संख्या कम है। अगर सैंपल लोड ज्यादा है और लैब में काम करने वाले तकनीशियन की कमी है, तो मरीजों को सही समय पर रिपोर्ट नहीं मिल पाती है। जिस मरीज को 3-5 दिन के अंदर रिपोर्ट मिलनी चाहिए उस मरीज को 15-20 दिन में रिपोर्ट लैब द्वारा मिल पाती है। यह सिर्फ और सिर्फ तकनीशियनों की संख्या में कमी के कारण होता है। इस दिशा में भी सरकार को गौर करना चाहिए और सैंपल लोड के अनुसार तकनीशियनों की भर्ती करनी चाहिए। इसके साथ ही सरकार को एक ऐसा प्रावधान भी करना चाहिए कि जो कर्मचारी कल्चर डीएसटी लैब में ओवरटाइम करना चाहे तो उसके लिए ओवरटाइम का भुगतान किया जाए।
 
आज एक तरफ हम 2025 में टीबी मुक्त भारत ही बात कर रहे हैं, दूसरी तरफ टीबी प्रोग्राम की कल्चर और डीएसटी लेबोरेटरी में काम करने वाले सैंकड़ों कर्मचारियों (जो कि फाइंड इंडिया एनजीओ के अंतर्गत कार्य कर रहे हैं) उनकी सेवाएं 31 मार्च 2020 को समाप्त की जा रही हैं। जो फाइंड इंडिया का स्टाफ जिसमें (माइक्रोबायोलॉजिस्ट, टेक्निकल ऑफीसर, लैब तकनीशियन, डाटा एंट्री ऑपरेटर और लैब अटेंडेंट) पिछले कई सालों से टीबी कल्चर और डीएसटी लेबोरेटरी में काम कर रहे हैं और सरकार इन कर्मचारिओं को प्रशिक्षित करने पर लाखों रुपए खर्च कर चुकी है को देश के अधिकतर राज्यों में 31 मार्च 2020 को राष्ट्रीय क्षय रोग उन्मूलन कार्यक्रम (एनटीईपी) से निकाला जा रहा है। यह फैंसला राष्ट्रीय क्षय रोग उन्मूलन कार्यक्रम के लिए बहुत बड़ी क्षति है। जिसका आने वाले समय में राष्ट्रीय क्षय रोग उन्मूलन कार्यक्रम (एनटीईपी) पर बहुत बडा असर पड़ने वाला है। आज जरूरत है कि सरकार को फाइंड इंडिया एनजीओ के तहत देश की विभिन्न टीबी कल्चर और डीएसटी लेबोरेटरी में काम कर रहे कर्मचारियों को अपने अधीन समायोजित कर लेना चाहिए, जिससे कि राष्ट्रीय क्षय रोग उन्मूलन कार्यक्रम (एनटीईपी) सुचारु रूप से 2025 तक टीबी मुक्त भारत के सपने को साकार कर सके। हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने 2025 का टीबी मुक्त भारत का जो लक्ष्य रखा है उसे समय पर पूरा किया जा सके।
 
आज सरकार निक्षय पोर्टल के जरिए मरीजों की जांच और उनके इलाज से संबंधित मामलों की निगरानी करती है, लेकिन आज निक्षय पोर्टल के जरिए मरीजों की निगरानी तो हो रही है लेकिन बहुत देरी से। आज देखा जाता है कि कल्चर डीएसटी लैब्स बहुत सारे मरीजों को पॉजिटिव घोषित करती है, लेकिन निक्षय पोर्टल पर मरीजों की सही तरह से निगरानी न हो पाने कारण उन मरीजों का सही समय से इलाज ही शुरू नहीं हो पाता है, इसमें बहुत सारे एमडीआर और एक्सडीआर मरीज भी शामिल होते हैं। आज जरूरत है की सरकारी स्तर पर निक्षय पोर्टल के जरिए टीबी मरीजों के निगरानी तंत्र को मजबूत बनाया जाए जिससे कि मरीजों की सही समय पर सही जांच हो सके और अगर मरीज पॉजिटिव आता है तो तुरंत ही उसका इलाज शुरू हो सके। आज भी राष्ट्रीय क्षय रोग उन्मूलन कार्यक्रम (एनटीईपी) के अंतर्गत एक सबसे बड़ी समस्या यह है कि आज भी मरीजों को उनको सही समय पर उनकी स्वास्थ्य से जुडी हुई रिपोर्ट महीनों में पहुंच पाती है, इसके भी शासन स्तर पर विभिन्न तकनीकी कारण है। अगर मरीजों तक सही समय पर रिपोर्ट पहुंचानी है तो आज निक्षय पोर्टल का सरलीकरण करने की बहुत जरूरत है। इसके साथ ही जरूरत है कि सरकार को देश में टीबी कल्चर डीएसटी लैब्स की संख्या बढ़ानी होगी और टीबी कल्चर डीएसटी लैब्स में लैब तकनीशियनों के साथ अन्य जरूरी कर्मचारियों की संख्या बढ़ानी होगी।
 
अगर निक्षय पोर्टल का सरलीकरण किया जाए तो निश्चित रूप से मरीज तक रिपोर्ट को सही समय तक पहुंचाया जा सकता है। हर टीबी के मरीज के मोबाइल नंबर को निक्षय पोर्टल पर उसकी निक्षय आईडी से जोड़ा जाए। इसके साथ ही जैसे ही निक्षय पोर्टल पर मरीज की रिपोर्ट अपडेट हो तो वह रिपोर्ट मरीज के मोबाइल नंबर पर मैसेज के जरिए स्वतः ही पहुंच जाए। ऐसे प्रभावी तंत्र की आज बहुत जरूरत है। अगर निक्षय पोर्टल का ऐसा प्रभावी तंत्र बनाया जाता है तो मरीज को बार-बार डीएमसी और डीटीसी के चक्कर नहीं काटने पड़ेंगे, जिन मरीजों के पास मोबाइल नंबर नहीं है, उनको भी पोस्ट के जरिए रिपोर्ट पहुंचाने का प्रावधान कल्चर डीएसटी लैब स्तर पर होना चाहिए।
 
आज सरकार निक्षय पोषण योजना के जरिए टीबी के मरीजों को हर महीने 500 रुपए पोषण के लिए दे रही है, इसके साथ ही टीबी मरीजों को पहचान करने वालों को भी सरकार इनाम राशि दे रही है यह भी सरकार का टीबी मुक्त भारत कि दिशा में एक बहुत बड़ा कदम है। इसके साथ कि सरकार ने प्राइवेट डॉक्टर्स और मेडिकल स्टोर्स कि लिए टीबी मरीजों से संबधित जो दिशा निर्देश जारी किए है ये कदम भी राष्ट्रीय क्षय रोग उन्मूलन कार्यक्रम (एनटीईपी) को मजबूती प्रदान करते हैं इन दिशा निर्देशों के अंतर्गत हर प्राइवेट डॉक्टर्स को टीबी के मरीजों की जानकारी सरकार को देनी होगी। साथ ही साथ मेडिकल स्टोर वालों को टीबी मरीजों की दवाई से संबंधित लेखा-जोखा सरकार को देना होना। अगर इन दिशा निर्देशों का उल्लंघन होता है तो दोषियों पर जुर्माना और सजा की कार्यवाही हो सकती है। 
 
इसके साथ ही सरकार को विभिन्न टीमों के माध्यम से साल के 365 दिन सक्रिय क्षय रोग खोज अभियान चलाना चाहिए। इस सक्रिय क्षय रोग खोज अभियान में स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, विभिन्न एनजीओ और सामजिक संस्थाओं को शामिल किया जाना चाहिए। जिससे कि देश के कौने-कौने से टीबी के मरीजों का पता लगाया जा सके और उसे सही समय पर उपचार दिया जा सके। तभी देश 2025 तक टीबी मुक्त भारत के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। कहा जाए तो भारत देश के लिए 2025 तक टीबी मुक्त भारत का लक्ष्य एक बहुत बडी चुनौती है। लेकिन कहा जाता है कि सकारात्मकता और कड़ी मेहनत से हर लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। इसके साथ ही 2025 तक टीबी मुक्त भारत का लक्ष्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा तय किया गया लक्ष्य है। अगर देश का प्रधानमंत्री देश को 2025 तक टीबी मुक्त करने के लिए प्रतिबध्दता व्यक्त करता है तो निश्चित रूप से आने वाले सालों में सरकार टीबी मुक्त भारत बनाने कि दिशा में और कड़े कदम उठाएगी और ये कदम 2025 तक टीबी मुक्त भारत बनाने कि दिशा में मील का पत्थर साबित होंगे। इसके साथ ही राष्ट्रीय क्षय रोग उन्मूलन कार्यक्रम (एनटीईपी) की समय-समय पर समीक्षा की जानी चाहिए। सरकार को टीबी मुक्त भारत की दिशा में राष्ट्रीय क्षय रोग उन्मूलन कार्यक्रम की समय समय पर कमियों का विश्लेषण और मूल्यांकन करना चाहिए जिससे कि इन कमियों को मजबूती में बदला जा सके और भारत देश में टीबी के अंतिम मरीज तक पहुंचा जा सके और समय अनुसार 2025 तक टीबी मुक्त भारत के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके।  

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