कोरोनावायरस वाली महामारी यूरोपीय संघ के देशों की स्वास्थ्य प्रणालियों के लिए अब भी चुनौती बनी हुई है। उससे निपटने की लड़ाई शुरू से ही राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और स्थानीय स्तर पर ही नहीं, अखिल संघीय स्तर पर भी चल रही है।
इस लड़ाई में हथियार बन रहे टीकों, दवाओं और उपचार-विधियों संबंधी कई महत्वपूर्ण निर्णय यूरोपीय संघ के स्तर पर लिए जाते हैं। किसी संघीय सरकार के समान उसका कार्यकारी आयोग, सदस्य देशों की सरकारों के लिए व्यावहारिक दिशा-निर्देश जारी करने के साथ-साथ जरूरत पड़ने पर रोगियों को राष्ट्रीय सीमाओं के आर-पार किसी दूसरे देश के अस्पताल में भेजने में भी सहायक बनता है। 2 वर्षों के अनुभव के बाद भी यूरोपीय संघ के सभी 27 देशों में कोरोना का न तो अंत दिखाई पड़ रहा है और न स्थिति एक जैसी है।
उदाहरण के लिए 1 अप्रैल के दिन देश की प्रति 1 लाख जनसंख्या पर ऑस्ट्रिया में 2094, जर्मनी में 1531, फ्रांस में 1459, ग्रीस में 10458, नीदरलैंड्स में 1502, इटली में 811, बेल्जियम में 686 और स्पेन में केवल 217 लोग संक्रमित थे। 1 ही दिन मे स्पेन में कोरोना-पीड़ित 323, जर्मनी में 292, इटली में 154, फ्रांस में 134, बेल्जियम में 79 और ग्रीस में 61 लोगों की मृत्यु हो गई। 2020 में कोरोना का प्रकोप शुरू होने के बाद से अब तक नीदरलैंड्स की 46.4 प्रतिशत, ऑस्ट्रिया की 42.6 प्रतिशत, फ्रांस की 38.3 प्रतिशत, बेल्जियम की 33.1 प्रतिशत और जर्मनी की 25.9 प्रतिशत जनता उसका संक्रमण झेल चुकी है। ये सभी देश भारत की अपेक्षा कहीं अधिक उन्नत, समृद्ध और अच्छे जीवनस्तर वाले देश हैं, पर इनके आंकड़े भारत से बेहतर नहीं कहे जा सकते।
यूरोप में प्रचलित उपचार: चिकित्सा विज्ञान की वर्तमान स्थिति के अनुसार कोरोनावायरस (SARS-CoV-2) के संक्रमण से पीड़ित व्यक्ति के उपचार की यूरोपीय रणनीति इस पर निर्भर करती है कि उसकी बीमारी गंभीर नहीं है, गंभीर है या प्राणघातक हो गई है। बीमारी गंभीर नहीं होने पर प्राय: अस्पताल में भर्ती करने के बदले बीमार को घर पर एकांतवास में रहने की सलाह दी जाती है।
लगभग 80 प्रतिशत मामलों में ऐसा ही होता है। उपचार ऐसी लक्षण-आधारित दवाओं से किया जाता है जिनसे उदाहरण के लिए बुखार उतरने लगे और सांस लेने में कठिनाई यदि दूर नहीं तो कम हो जाए। घर पर रहने, आराम करने, संतुलित भोजन लेने और खूब पानी या स्वास्थ्यवर्द्धक पेय पीने से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। 5 से 7 दिन बाद भी यदि लक्षण दूर नहीं होते या स्थिति बिगड़ गई लगती है तो आगे के उपचार के लिए अस्पताल की शरण लेना जरूरी हो जाता है।
देखा गया है कि करीब 10 प्रतिशत मामलों में बीमारी इतना गंभीर रूप धारण कर लेती है कि बीमार को अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है। SARS-CoV-2 वर्ग के कोरोनावायरस मुख्यत: श्वास नली और फेफड़ों की न्यूमोनिया जैसी बीमारी पैदा करने वाले वायरस हैं। उनके कारण फेफड़ों में पानी-जैसा तरल पदार्थ जमा होने लगता है। फेफड़ों की महीन रक्तवाही केशिकाएं क्षतिग्रस्त होने लगती हैं। तब हमारे फेफड़े सांस द्वारा ली गई हवा से ऑक्सीजन को भलीभांति सोख नहीं पाते। रक्त में ऑक्सीजन की कमी होने लगती है।
इस स्थिति में बीमार की प्राणरक्षा के लिए उसे अलग से ऑक्सीजन दी जाती है। यह भी हो सकता है कि वायरस शरीर की रक्त-संचरण क्रिया के सहारे गुर्दों (किडनी) और तंत्रिका तंत्र (नर्वस सिस्टम) तक पहुंच जाए और उन्हें भी क्षतिग्रस्त करने लगे। ऐसा होने पर रोगी को ऑक्सीजन देने के अलावा ऐसी दवाएं भी दी जाती हैं, जो रक्त संचार को बनाए रखें। अस्पतालों में सारी साफ-सफाई के बावजूद कुछ न कुछ बैक्टीरिया भी होते हैं। उनसे बचाव के लिए एंटीबायोटिक दवाएं देना भी जरूरी हो सकता है।
वेक्लरी' (Veklury): ऐसे मरीजों को, जो 12 साल से अधिक के थे, कोविड-19 के कारण न्यूमोनिया से पीड़ित थे जिन्हें अलग से ऑक्सीजन की जरूरत थी, लेकिन आक्रामक (इनवैजिव) श्वसन क्रिया की जरूरत नहीं थी। यूरोपीय संघ ने जुलाई 2020 में 'वेक्लरी' नाम की दवा देने के लिए कहा। यह दवा 'रेम्डेसिविर' (Remdesivir) कहलाने वाले अपने मूल औषधीय तत्व के नाम से कहीं अधिक प्रसिद्ध है। बनी थी वास्तव में अफ्रीका के कुछ देशों में बार-बार फैलने वाली महाघातक 'इबोला' नाम की बीमारी के इलाज के लिए। इस बीच पाया गया है कि कोविड-19 के मामलों में उसका उपयोग बहुत भरोसेमंद नहीं है, इसलिए अब उसके उपयोग का सुझाव नहीं दिया जाता।
सबसे बड़ी समस्या यह थी कि 'रेम्डेसिविर' को (घर पर नहीं, केवल अस्पताल में) कम से कम 5 और अधिकतम 10 दिनों तक हर दिन सुई द्वारा शरीर में चढ़ाना (इन्फ्यूज) पड़ता है: पहले दिन एक बार में 200 मिलीग्राम और दूसरे दिन से हर दिन एक बार 100 मिलीग्राम। बीमार की आयु कम से कम 12 साल और वजन कम से कम 40 किलो होना चाहिए। जिन बीमारों के फेफड़ों को अधिक मात्रा में ऑक्सीजन की जरूरत होती है, उनके मामले में इस दवा से कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं होता। अत: नवंबर 2020 में विश्व स्वास्थ्य संगठन WHO ने कहा कि 'रेम्डेसिविर' का उपयोग बंद कर दिया जाना चाहिए।
डेक्सामेथासॉन (Dexamethason): यह सस्ती व सर्वसुलभ दवा एक कॉर्टिजोन है जिसका 1960 वाले दशक से ही दमा और गठिया रोग के इलाज में उपयोग होता रहा है। किसी ने नहीं सोचा था कि एक इतनी पुरानी और सुपरिचित दवा कोविड-19 नाम की आधुनिक और अबूझ बीमारी के उपचार में भी किसी काम आ सकती है। कोविड-19 का कोई टीका बनने से पहले उससे पीड़ितों को राहत देने के उद्देश्य से इस एस्टेरॉइड की उपयोगिता ब्रिटेन के ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने 2020 में सिद्ध की थी।
उन्होंने पाया कि गंभीर बीमारों को वेंटिलेटर पर रखने के साथ-साथ डेक्सामेथासॉन देने पर उनकी मृत्यु का अनुपात एक-तिहाई तक घटाया जा सकता है। दूसरी ओर जिन्हें वेंटिलेटर पर तो रखा गया, पर यह दवा नहीं दी गई, उनकी मृत्यु दर 41 प्रतिशत रही। जिन्हें वेंटिलेटर के बदले केवल ऑक्सीजन की जरूरत थी, उनकी मृत्यु की आशंका डेक्सामेथासॉन देने पर 20 से 25 प्रतिशत तक कम हो गई पाई गई। कहा गया कि यह दवा कोविड-19 के हर 8 मरणासन्न रोगियों में से कम से कम 1 की जान बचा सकती है। इस दवा का लाभ तभी है, जब कोई व्यक्ति गंभीर रूप से बीमार हो। उसकी जीवनरक्षा के लिए ऑक्सीजन या फिर वेंटिलेटर की भी जरूरत पड़ रही हो।
मोनोक्लोनल एन्टीबॉडी: मोनोक्लोनल एंटीबॉडी (एमएबी) सीधे वायरस को अपना निशाना बनाते हैं। जैव-तकनीक (बायो-इंजीनियरिंग) से बने ये एंटीबॉडी शरीर में पहुंचे वायरस को शरीर की कोशिकाओं के साथ चिपकने और उन में घुसने से रोकते हैं। इससे शरीर में संक्रमणकारी वायरसों की संख्या घटाई जा सकती है। इनका उपयोग कोरोना वायरस से संक्रमित ऐसे लोगों की प्रारंभिक चिकित्सा में किया जाता है जिनके मामले में बीमारी के गंभीर बन जाने का खतरा हो, जैसे हृदयरोग की बीमारियों वाले लोग। 'एमएबी' के साथ समस्या यह है कि वायरस से लड़ने में जीत से पहले ही वे यदि चूक गए या मर गए तो कोई प्रतिरक्षण नहीं बन पाएगा। इसलिए इनका उपयोग बीमारी के गंभीर लक्षणों से पहले होना चाहिए।
'एमएबी' के भी कई प्रकार हैं। उदाहरण के लिए जर्मनी में कैसिविरिमैब/ इमदेविमैब (Casivirimab/Imdevimab) नाम के मोनोक्लोनल एंटीबॉडी-युग्म के उपयोग की अनुमति है। यह दवा नवंबर 2021 से यूरोपीय संघ द्वारा अनुमोदित रोनाप्रेव (Ronapreve) की समवर्ती है। यूरोपीय आयोग ने दिसंबर, 2021 से बीमारी के गंभीर किस्म वाले वयस्कों के उपचार के लिए मोनोक्लोनल एंटीबॉडी रोएक्टेम्रा (टोसिलिजुमैब/RoActemra® (tocilizumab) के उपयोग का दायरा बढ़ा दिया है। 'एमएबी' दवाएं एकबारगी इन्जेक्शन के रूप में दी जाती हैं। इंजेक्शन देने पर रोगी का शरीर किसी एलर्जी जैसी तीव्र प्रतिक्रिया कर सकता है। इसलिए डॉक्टर को पहले ही सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि वह भी उसी तेजी से स्थिति को संभाल सकता है या नहीं?
शोध और विकास: संक्रामक बीमारियों पर नजर रखने वाले जर्मनी के रोबर्ट कोख इन्स्टीट्यूट (RKI) के अनुसार 400 औषधीय गुणों वाले पदार्थों को लेकर इस समय 4,500 शोध कार्य चल रहे हैं। शोध का ऐसा ही एक विषय है, ऐसे लोगों के रक्त-प्लाज्मा (सीरम) का उपयोग जिनके शरीर का रोग प्रतिरक्षण तंत्र, पर्याप्त एंटीबॉडी बनाकर कोरोनावायरस के संक्रमण से उन्हें छुटकारा दिलाने में सफल रहा है। इसे 'रिकॉनवैलेसेन्ट प्लाज्मा थेरैपी' कहा जा रहा है।
कोरोना को हरा चुके ऐसे व्यक्तियों के एंटीबॉडी वाले प्लाज्मा को रक्ताधान की तरह किसी दूसरे संक्रमित व्यक्ति के शरीर में चढ़ाकर उसे ठीक कर सकना इन अध्ययनों का लक्ष्य है। इसके क्लिनिकल टेस्ट अभी पूरे नहीं हो पाए हैं। फिलहाल यही देखा जा सका है कि ऐसे प्लाज्मा या सीरम की एक बड़ी मात्रा बहुत जल्द ही दुर्बल स्वास्थ्य वाले लोगों को देने पर उनकी बीमारी को बहुत गंभीर रूप लेने से रोका जा सकता है। लेकिन केवल इतनी-सी उपयोगिता को पर्याप्त नहीं माना जा सकता।
बहुमुखी स्टेम सेल: भ्रूणावस्था वाले मानवीय ऊतकों (टिश्यू) की कोशिकाएं, मां के गर्भ में भ्रूण के क्रमिक विकास के साथ विभिन्न अंगों का रूप लेने के सक्षम होती हैं। इसी से प्रेरित होकर अमेरिका में एक ऐसा प्रयोग हुआ है जिसमें नवजात बच्चे के गर्भनाल से लिए गए ऊतकों की कोशिकाओं को कोविड-19 के कुछ चुने हुए गंभीर रूप से बीमार लोगों के शरीर में ग्लूकोज या रक्ताधान की तरह चढ़ाया गया।
एक महीने बाद स्टेम सेल पाने वाले 91 प्रतिशत गंभीर बीमार जीवित रहे जबकि जिन लोगों को स्टेम सेल नहीं मिले थे, उनमें से केवल 42 प्रतिशत ही जीवित बचे थे। स्टेम सेल पाने वालों में जिनकी आयु 85 साल से कम थी, वे सब के सब जीवित रहे। जो लोग जीवित रहे, वे 1 ही महीने में पूरी तरह स्वस्थ भी हो गए थे। इस अध्ययन के निदेशक मायमी विश्वविद्यालय के कामिलो रिकोर्दी का कहना है: 'स्टेमसेल कोविड-19 का सबसे कारगर इलाज लगते हैं। इसके लिए रक्ताधान की तरह नस में केवल एक ही बार स्टेम सेल चढ़ाने पड़ते हैं। फेफड़े के लिए यही सबसे फिट तकनीक है।
गर्भनाल वाली इस स्टेम सेल तकनीक से मधुमेह (डायबिटीज) का भी सफल उपचार किया जा सकता है। जिसे मधुमेह हो, वह कोरोनावायरस का भी आसानी से शिकार बन सकता है। किंतु केवल एक ही प्रयोग या अध्ययन से किसी उपचार विधि के सारे पक्ष नहीं जाने जा सकते। इसलिए इस सबसे नई तकनीक के सभी लाभ-हानि जानने के लिए हमें प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। प्रकृति और मनुष्य के बीच यह 'तू डाल-डाल, तो मैं पात-पात' वाली एक ऐसी लड़ाई है जिसमें प्रकृति आसानी से अपनी हार नहीं मानेगी। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और एक दशक तक डॉयचे वेले की हिन्दी सेवा के प्रमुख रह चुके हैं)