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बाल दिवस : सही परवरिश और अच्छे संस्कार हो बच्चे की प्राथमिकता

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bal diwas
 
बच्चों में संस्कारों का विकास हमेशा अपने से बड़ों को देखकर ही होता है इसलिए अपने आचरण को सही रखना भी उतना ही जरूरी है जितना बच्चे पर ध्यान देना। कहते हैं न 'अगर ठीक से खाद डाली जाए, तो पौधा बहुत सुंदर होता है' और संस्कार उसी खाद का काम करते हैं। आपाधापी वाले समय में बाल दिवस हमें मौका देता है कि हम कुछ सोचें अपने बच्चों के बारे में, उनकी परवरिश के बारे में। 
 
अक्सर देखा गया है कि किसी बच्चे की खराब आदतों को देखकर लोग फब्तियां कसते हैं कि इस बच्चे को अच्छे संस्कार नहीं मिले। क्या संस्कारों को जबरन किसी बच्चे पर थोपा जा सकता है या कॉपी-पेन लेकर यह संस्कार उन्हें रटाए जा सकते हैं?
 
जब बच्चा चीजों को जानने और समझने लगता है तभी से उसमें आदतों को विकास शुरू हो जाता है। ऐसे में इस बात का ध्यान जरूर रखा जाए कि कहीं लाड़-प्यार में आप अपने बच्चों को संस्कारों से दूर तो नहीं कर रहे।
 
बच्चे की सही परवरिश हो इसके लिए कुछ बातों पर ध्यान देना जरूरी है-
 
- तकनीक में बचपन घुल रहा है। आज के बच्चे सारे काम अंगुलियों के इशारे पर करते हैं मसलन प्लेयर पर गाने सुनना, कम्प्यूटर पर गेम खेलना, टीवी देखना, फेसबुक चलाना, व्हाट्‍स ऐप और भी बहुत कुछ...। आजकल तो बच्चों का सारा समय इंटरनेट पर ही गुजरता है। वे नहीं समझते क्या गलत है और क्या सही। वे तो वही सीखते हैं जो उन्हें दिखाई देता है। इसलिए बच्चों के हाथ में तकनीकी खिलौना देने के साथ ही समझाइश भी बहुत जरूरी है।
 
- अपने बच्चों की गतिविधियों पर नजर रखें। आज के व्यस्त जीवन में जहां माता-पिता दोनों ही कामकाजी हैं, बच्चों की हर एक गतिविधि पर पूरा ध्यान दे पाना थोड़ा मु‍श्किल हो जाता है। चाहे आप काम के सिलसिले में बाहर रहें या घर पर, बच्चों को मनमानी करने से हमेशा रोकें या उनमें यह आदत डालें कि वे आपकी सहमति से ही कोई काम करें।
 
- सबसे महत्वपूर्ण है अपने बच्चे को समझना और उसके नजरिए से चीजों को देखना। अपने बच्चों से उनके काम, दोस्तों आदि के बारे में हमेशा बातें करते रहें। कम्युनिकेशन गेप सारी चीजें खराब कर सकता है। जब आप उनके नजरिए से चीजों को देखेंगे तभी उनकी भाषा में उन्हें समझा पाएंगे।
 
- लोग अपने बच्चों को हर चीज उपलब्ध करवाने की जिद में उनकी हर जायज व नाजायज मांग को पूरा कर देते हैं, जिससे उनमें हर कीमत पर कुछ भी पाने की प्रवृत्ति का विकास होता है। ऐसा करते समय माता-पिता यह नहीं सोचते कि वे अपने बच्चे को सिर्फ लेना सिखा रहे हैं, देना नहीं।


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