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प्रीतम-परेश में टिकाऊ की जंग

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रायपुर। खल्लारी विधानसभा क्षेत्र का विधायक कौन होगा- बिकाऊ या टिकाऊ? यह सवाल मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने अपनी आमसभा में उठाया था। चुनाव मैदान में यह नारे में तब्दील हो गया। चारों ओर इसकी गूँज सुनाई देती है। नारे ने कांग्रेस प्रत्याशी परेश बागबाहरा के लिए मुश्किलें खड़ी कर दी है। वहीं भाजपा प्रत्याशी और मौजूदा विधायक प्रीतम दीवान निष्क्रियता के आरोपों के बावजूद अपनी सादगी व सरलता से मतदाताओं को लुभाने में जुटे हुए हैं।

छत्तीसगढ़ के बीते विधानसभा चुनाव में भाजपा ने पहली बार अनारक्षित सीट खल्लारी से आदिवासी प्रीतम दीवान को टिकट दी थी। दीवान पार्टी की उम्मीदों पर खरे उतरे और मैदान मार लिया। सरल-सहज स्वभाव होने के कारण पाँच साल के कार्यकाल में दीवान के दामन पर आरोपों के दाग नहीं लगे। अलबत्ता, कुछ लोगों उन्हें निष्क्रिय करार देते हैं। क्षेत्र का अपेक्षित विकास नहीं हो पाने का दर्द भी लोगों के सीने में साफ नजर आता है। गाँवों में सिंचाई सुविधाओं का टोटा है। इसे लेकर किसानों में काफी असंतोष है।

यही कारण है कि महासमुंद जिले का यह क्षेत्र अक्सर अकाल की मार झेलता है। अब चुनाव के मौके पर किसान सवाल उठा रहे हैं कि पतोरा बाँध ऊँचा करने की सुध अब तक क्यों नहीं ली गई? लोवर जोंक परियोजना व जोंक नदी में डायवर्सन बनाने जैसे मुद्दे भी किसानों के बीच तेजी से उठ रहे हैं। इस साल इलाके में कम बारिश हुई है। लिहाजा, किसानों के सवाल और ज्यादा प्रासंगिक हो गए हैं।

तमाम सवालों और आरोपों के बावजूद भाजपा को उम्मीद है कि उसका आदिवासी कार्ड एकबार फिर चल जाएगा। दरअसल, एक लाख 65 हजार से ज्यादा मतदाताओं वाली इस सीट में आदिवासी मतदाताओं की संख्या 35 फीसदी से ज्यादा है। परिसीमन में बसना क्षेत्र के 40 आदिवासी बहुल गाँव भी इस सीट से जुड़ गए हैं। इस कारण भाजपा आदिवासियों को दीवान के पक्ष में लामबंद करने में जुटी है। आमतौर पर इन गाँवों को कांग्रेसी रूझान वाला माना जाता है। बसना में कांग्रेस की जीत इन्हीं गाँवों के भरोसे होते रही है। पार्टी ने 35 फीसदी पिछड़े वर्ग को भी अपने पक्ष में करने में जुटी है।

खासकर साहू और कुर्मी समाज के प्रमुख लोग भाजपा के पक्ष में काम कर रहे हैं। टिकट की दौड़ में शामिल पिछड़े वर्ग के कुछ नेता नाराज हैं। इस कारण वे खल्लारी की बजाय पड़ोसी सीट महासमुंद पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं।

कांग्रेस प्रत्याशी परेश बागबाहरा दलबदल का दाग अब तक नहीं धो पाए हैं। चुनाव प्रचार के दौरान इसी चर्चा सुनाई देती है। उपर से क्षेत्र के लोग अपने पूर्व विधायक पर बाहरी होने का आरोप लगाने से नहीं चूक रहे हैं। टिकट हासिल करने से वंचित नेताओं के असहयोग से कांग्रेस भी जूझ रही है। बागबाहरा सांसद अजीत जोगी के करीबी हैं। इस कारण कोई भी असंतुष्ट नेता अब तक खुलकर उनके खिलाफ सामने नहीं आया है। वे अपने पुराने संबंधों, संपर्कों और विकास कार्यों का हवाला देते हुए वोट माँग रहे हैं।

नर्रा-खट्टी इलाके में उनका खासा असर माना जाता है। इस इलाके से उन्होंने 75 फीसदी वोट मिलने की उम्मीद लगा रखी है। नए आदिवासी इलाके जुड़ने को भी कांग्रेस अपने लाभ के रुप में आँक रही है। इसके बावजूद पिछड़ों का ध्रुवीकरण रोकना पार्टी के लिए टेढ़ी खीर साबित हो रहा है। भाजपा की तुलना में कांग्रेस के पास संसधानों की कमी नहीं है। इस कारण प्रचार में कांग्रेस काफी आगे नजर आती है। (नईदुनिया)

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