भारत में प्राचीनकाल से ही टैक्स की व्यवस्था रही है और उस टैक्स को सैन्य क्षमता बढ़ाने और जनता के हित में खर्च करने का प्रावधान भी रहा है। फूटी कौड़ी से कौड़ी, कौड़ी से दमड़ी, दमड़ी से धेला, धेला से पाई, पाई से पैसा, पैसा से आना, आना से रुपया तो बाद में बना उससे पहले प्राचीन भारत में स्वर्ण, रजत, ताम्र और मिश्रित मुद्राएं प्रचलित थी जिसे 'पण' कहा जाता था। इन पणों को संभालने के लिए राजकोष होता था। राजकोष का एक प्राधना कोषाध्यक्ष होता था। आओ जानते हैं प्राचीन भारत का वित्त विभाग।
1.कुबेरे देवता देवताओं के कोषाध्यक्ष थे। सैन्य और राज्य खर्च वे ही संचालित करते थे। इसी तरह अनुसरों के कोषाध्यक्ष भी थे। वैदिक काल में सभा, समिति और प्रशासन व्यवस्था के ये तीन अंग थे। सभा अर्थात धर्मसंघ की धर्मसभा, शिक्षासंघ की विद्या सभा और राज्यों की राज्यसभा। समिति अर्थात जन साधरण जनों की संस्था है। प्रशासन अर्थात न्याय, सैन्य, वित्त आदि ये प्रशासनिक, पदाधिकारियों, के विभागों के काम। इसमें से प्रशान में एक व्यक्ति होता था जो टैक्स के एवज में मिली वस्तु या सिक्के का हिसाब किताब रखता था। इसमें प्रधान कोषाध्यक्ष के अधिन कई वित्त विभाग या खंजांची होते थे। यह व्यवस्था रामायण और महाभारत काल तक चली। उस काल में जो भी व्यक्ति इस व्यवस्था को देखता था उसे 'पणि' कहा जाता था।
सिंधु सभ्यता में मुद्राओं के पाए जाने से यह पता चलता है कि वहां पर वस्तु विनिमय के अलाव मुद्रा का लेन-देन भी था। उस काल में भी वित्ति विभाग होता था जो राज्य से टैक्स वसुरलता और बाहरी लोगों से भी चुंगी नाका वसुलता था। यह सारी मुद्राएं या वस्तुएं राजकीय खाजने में जमा होती थी। सिंधु घाटी का समाज मूलतः व्यापार आधारित समाज था और नदियों में नौकाओं तथा समुद्र में जहाजों के जरिये इनका व्यापार चलता था। इसलिए उस काल में मुद्रा का बहुत महत्व था। स्वर्ण, ताम्र, रजत और लौह मुद्राओं के अलावा कहते हैं कि कौड़ियों का भी प्रचलन था।
प्राचीन शास्त्र मनुस्मृति, शुक्रनीति, बृहस्पति संहिता और महाभारत में भी बजट का उल्लेख मिलता है। मनुस्मृति के अनुसार करों का संबंध प्रजा की आय और व्यय से होना चाहिए। इसमें ये भी कहा गया था कि राजा को हद से ज्यादा कर लगाने से बचना चाहिए। करों की वसूली की ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि प्रजा अदायगी करते समय मुश्किल महसूस न करें। महाभारत के शांतिपर्व के 58 और 59वें अध्याय में भी इस बारे में जानकारी दी गई है।
2.इसके बाद कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में बजट व्यवस्था का जिक्र किया है। इस अर्थशास्त्र में मौर्य वंश के वक्त की राजकीय व्यवस्था के बारे में जानाकारी मिलती है। उस काल में रखरखाव, आगामी तैयारी, हिसाब-किताब का लेखा-जोखा वर्तमान बजट की तरह पेश किया जाता था। उस वक्त जिन कार्यों पर काम चल रहा है उसे कर्णिय और जो काम हो चुके सिद्धम कहा जाता था।
3. हस्तीनापुर : हस्तिनापुर महाभारत काल के कौरवों की वैभवशाली राजधानी हुआ करती थी। वर्तमान में उत्तर प्रदेश के शहर मेरठ से 22 मील उत्तर-पूर्व में गंगा की प्राचीनधारा के किनारे प्राचीन हस्तिनापुर के अवशेष मिलते हैं। यहां आज भी भूमि में दफन है पांडवों का किला, महल, मंदिर और अन्य अवशेष।
पुरातत्वों के उत्खनन से ज्ञात होता है कि हस्तिनापुर की प्राचीन बस्ती लगभग 1000 ईसा पूर्व से पहले की थी और यह कई सदियों तक स्थित रही। दूसरी बस्ती लगभग 90 ईसा पूर्व में बसाई गई थी, जो 300 ईसा पूर्व तक रही। तीसरी बस्ती 200 ई.पू. से लगभग 200 ईस्वी तक विद्धमान थी और अंतिम बस्ती 11वीं से 14वीं शती तक विद्यमान रही। अब यहां कहीं कहीं बस्ती के अवशेष हैं और प्राचीन हस्तिनापुर के अवशेष भी बिखरे पड़े हैं। वहां भूमि में दफन पांडवों का विशालकाय एक किला भी है जो देखरेख के अभाव में नष्ट होता जा रहा है। इस किले के अंदर ही महल, मंदिर और अन्य इमारते हैं।
4. आदिचनाल्लूर : यह स्थल भारत के तमिलनाडु के थूथुकुडी जिले में स्थित है। यहां प्राचीन काल के कई पुरातात्विक अवशेष मिले हैं, जो कई महत्वपूर्ण पुरातात्विक खोजों का स्थल रहा है। प्रारंभिक पांडियन साम्राज्य की राजधानी कोरकाई, आदिचनल्लूर से लगभग 15 किमी दूर स्थित है। आदिचनल्लूर साइट से 2004 में खोदे गए नमूनों की कार्बन डेटिंग से पता चला है कि वे 905 ईसा पूर्व और 696 ईसा पूर्व के बीच के थे। 2005 में, मानव कंकालों वाले लगभग 169 मिट्टी के कलश का पता लगाया गया था, जो कि कम से कम 3,800 साल पहले के थे। 2018 में हुई शोध के अनुसार कंकाल के अवशेषों पर 2500 ईसा पूर्व से 2200 ईसा पूर्व के तक के हैं।
5. शिवसागर : यह स्थल असम में गुवाहाटी से लगभग 360 किलोमीटर उत्तर पूर्व में स्थित है। यह शहर देहिंग वर्षावन से घिरा हुआ है, जहां दीहिंग (ब्रह्मपुत्र) और लोहित नदियां मिलती हैं। शहर का नाम शहर के मध्य में स्थित बड़ी झील शिवसागर से मिलता है। झील अहोम राजा शिव सिंहा द्वारा बनाई गई थी। 13 वीं शताब्दी में युन्नान क्षेत्र से चीन के ताई बोलने वाले अहोम लोग इस इलाके में आए 18 वीं शताब्दी में शिवसागर अहोम साम्राज्य की राजधानी था। उस समय यह रंगपुर कहलाता था। उस काल के कई मंदिर मौजूद है। इस शहर को मंदिरों की नगरी भी कहा जाता है।