SIRF EK BANDAA KAAFI HAI review: सिर्फ एक बंदा काफी है ज़ी 5 पर रिलीज हुई है। सत्य घटनाओं से प्रेरित होकर इसकी कहानी लिखी गई है। यह एक ऐसे इंसान की कहानी है जो संत के भेष में शैतान है। जिसने एक नाबालिग लड़की नू का यौन शोषण किया है और मामला अदालत तक पहुंच गया है। इस तथाकथित संत के लुक और घटनाओं से साफ इशारा मिल जाता है कि यह फिल्म किसकी कहानी से प्रेरित होकर बनाई गई है।
सिर्फ एक बंदा काफी है एक कोर्ट रूम ड्रामा है। बाबा को पकड़ लिया गया है। वह जमानत पर बाहर आने के लिए पैसा और पॉवर का इस्तेमाल करता है, लेकिन उसकी राह में एक बेहद मामूली वकील पीसी सोलंकी (मनोज बाजपेई) आ खड़ा होता है। अपने तेज दिमाग से वह बाबा के नामी वकीलों को अदालत में निरुत्तर कर देता है और मामला 5 साल तक अदालत में चलता है।
दीपक कंगरानी द्वारा लिखी गई कहानी आसाराम बापू केस से प्रेरित है। मनोज बाजपेई के किरदार को उन्होंने दिलचस्प बना कर दर्शकों को फिल्म से जोड़ने में कामयाबी हासिल की है। यह एक अंडरडॉग की कहानी बन जाती है जिससे दर्शकों की पूरी सहानुभूति मनोज बाजपेई के किरदार से हो जाती है।
वह ईमानदार है, मध्यमवर्गीय है, उसको लालच दिया जाता है, डराया-धमकाया जाता है, लेकिन वह इस केस को जीतने के लिए सब कुछ दांव पर लगा देता है। उसे उस लड़की के चेहरे पर मुस्कान देखना है जिसके साथ बाबा ने गलत काम किया है।
फिल्म का 90 प्रतिशत हिस्सा अदालत में फिल्माया गया है। ये बात सही है कि दर्शक बोर नहीं होते, लेकिन जिस आसानी से पीसी सोलंकी अपने विरोधियों को पराजित करता है उससे फिल्म की विश्वसनीयता कम हो जाती है।
पीसी सोलंकी के सामने कभी बड़ी चुनौती नजर नहीं आती या मुश्किलें पैदा नहीं होतीं। उसके सामने दिग्गज वकील आसानी से हथियार डाल देते हैं।
जिस नाबालिग लड़की पर अत्याचार हुआ है उस पर कम फोकस किया गया है। उसे फिल्म में ज्यादा फुटेज मिलने थे ताकि उसकी मनोस्थिति भी दर्शकों को पता चलती।
लेखक और निर्देशक की इस बात के लिए तारीफ की जा सकती है कि कोर्टरूम ड्रामा होने के बावजूद उन्होंने फिल्म को बोरियत से दूर रखा, उल्टा दर्शकों को होने वाली सुनवाई में मजा आने लगता है कि अब क्या होगा।
साथ ही लेखक और निर्देशक ने बेहद होशियारी से मनोज बाजपेई का किरदार गढ़ा है जिससे दर्शक उसमें ही खो जाते हैं और फिल्म के कमजोर पहलुओं पर ध्यान नहीं देते। जैसे 5 साल बीत जाते हैं लेकिन मनोज बाजपेई के बेटे की उम्र ही नहीं बढ़ती।
कोर्टरूम ड्रामा रियल है और नाटकीयता तथा लटकों-झटकों से दूर है। दर्शक महसूस करते हैं मानो वे खुद अदालत में मौजूद हों।
फिल्म दो संदेश मजबूती के साथ देती है। नू के किरदार से झलक मिलती है कि आप कितने भी साधनहीन हो, अन्याय का विरोध किया ही जाना चाहिए। पीसी सोलंकी के किरदार से संदेश मिलता है कि यदि आप सच्चाई के साथ खड़े हों तो वक्त जरूर लगता है, लेकिन न्याय जरूर मिलता है।
अदालत में जब फैसला सुनाया जाता है तो वो सीन बेहद शानदार बना है और मनोज बाजपेई का क्लोजि़ंग बेहद सशक्त तरीके से लिखा गया है। शिव और रावण की कहानी को इसमें जोड़ना ड्रामे को मजबूती प्रदान करता है।
निर्देशक अपूर्व सिंह कर्की ने ड्रामे को वास्तविकता के नजदीक रखते हुए एंटरटेनिंग और इमोशनल बनाया है। साथ ही कलाकारों से बेहतरीन अभिनय कराया है।
मनोज बाजपेई ने एक खास मैनेरिज्म के साथ अपने किरदार को निभाया है। यह किरदार दिखने में सीधा या डरपोक लगता है, लेकिन उसका दिमाग बेहद शॉर्प है। अदरिजा सिन्हा, विपिन कुमार शर्मा सहित सारे कलाकारों की एक्टिंग नेचरल है। फिल्म का संगीत औसत है। सिनेमाटोग्राफी भी बहुत ऊंचे दर्जे की नहीं है।
कई बार एक कलाकार एक एवरेज फिल्म को अपने परफॉर्मेंस से देखने लायक बना देता है और यही काम मनोज बाजपेई ने 'सिर्फ एक बंदा काफी है' के लिए किया है।