कांतारा फिल्म समीक्षा: इतिहास, मिथक और लोक कथा के रंग में डूबी Kantara

समय ताम्रकर
Kantara Review in Hindi कांतारा एक कन्नड़ फिल्म है जिसे हिंदी में डब कर इसी नाम से रिलीज किया गया है। दक्षिण भारत की बड़े बजट की फिल्में अपने ट्रीटमेंट के कारण एक आम कहानी के बावजूद देखने लायक बन जाती है और कांतारा भी इसी श्रेणी की फिल्म है। 
 
कांतारा का हीरो शिवा (रिषभ शेट्टी) देख आपको पुष्पा की याद आएगी। शिवा भी पुष्पा की तरह बस्तियों में रहता है। अपनी मौज में मस्त, किसी की परवाह नहीं। बढ़ी दाढ़ी और अजीब से कपड़े। ऐसा लगता है कि पुष्पा को लेकर कांतारा बनाई गई है। हालांकि शिवा में पुष्पा जितना एटीट्यूड और आक्रामकता नहीं है।  


 
जहां तक कहानी का सवाल है तो यह जमीन के विवाद पर आधारित है जिसके तार 1847 से जुड़े हैं। 1847 में एक राजा के पास सब कुछ था, लेकिन मन की शांति नहीं थी। एक दिन जंगल में उसे पत्थर की मूर्ति दिखाई देती है जिसे स्थानीय लोग पूजते हैं। इसे देख राजा को मन की शांति महसूस होती है। वह मूर्ति ले जाता है और स्थानीय लोगों को खूब सारी जमीन दे जाता है। 
 
कहानी अब 1990 में आती है। राजा के खानदान वाले वे जमीन वापस लेना चाहते हैं, जिसका स्थानीय लोग विरोध करते हैं। इस कशमकश को फिल्म में दिखाया गया है।
 
कहानी को दिलचस्प बनाने के लिए इसमें लोकल फ्लेवर डाला गया है। लोक नृत्य, लोक संगीत, लोक कथा, मिथक, इतिहास और स्थानीय लोगों के त्योहारों के जरिये कहानी को संवार कर मनोरंजक बनाया गया है। 
 
फिल्म शुरुआत से ही दर्शकों पर पकड़ बनाती है। कंबाला भैंस की दौड़ टोन सेट कर देती है और शिवा का किरदार सीधे दर्शकों को पसंद आ जाता है। फिल्म के लेखकों ने शिवा और उसके दोस्तों के किरदारों को बढ़िया लिखा है, जिसके कारण शुरुआती घंटा मनोरंजक है।  
 
स्क्रीनप्ले इस तरह से लिखा गया है कि फिल्म में विलेन कौन है, इसका अनुमान शुरू में दर्शक नहीं लगा पाते, लेकिन जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, अच्छे लगने वाले किरदार बुरे और बुरे लगने वाले किरदार भले लगते हैं। ये टर्न्स और ट्विस्ट्स धीरे-धीरे आते हैं। 
 
फिल्म मध्य में थोड़ी भटक जाती है, लेकिन क्लाइमैक्स में फिर सही ट्रैक पर लौट आती है। फिल्म का क्लाइमैक्स बहुत ही उम्दा तरीके से फिल्माया गया है।
 
रिषभ शेट्टी ने लेखन, अभिनय और निर्देशन की कई जिम्मेदारियां निभाई है और हर रोल में उन्होंने अपना काम अच्छे से किया है। 

 
एक लेखक के रूप में उन्होंने बताया है कि जमीन के मामले में हमेशा गरीब को ही दबाया जाता है। सरकार और अमीर जमीन हथियाने के लिए तमाम हथकंडे अपनाते हैं। 
 
एक अभिनेता के रूप में उन्होंने शिवा के किरदार में उत्साह, उमंग, ऊर्जा को दर्शाया है जो फिल्म में मनोरंजन का स्तर ऊंचा उठाता है। क्लाइमैक्स में उनका अभिनय देखने लायक है। एक निर्देशक के रूप में ड्रामे को दिचलस्प तरीके से पेश किया। 
 
शिवा की लव स्टोरी वाला पार्ट ही फिल्म का कमजोर हिस्सा है और यहां पर भी पुष्पा वाला प्रभाव नजर आता है। 
 
फिल्म के अन्य कलाकारों का काम भी बेहतरीन है। फोरेस्ट ऑफिसर के किरदार में किशोर कुमार जी, देवेन्द्र के किरदार में अच्युत कुमार, शिवा की मां के किरदार में मानसी सुधीर की एक्टिंग उम्दा है। 
 
डबिंग अच्छी की गई है और संवाद औसत से बेहतर हैं। अरविंद एस कश्यप की सिनेमाटोग्राफी लाजवाब है और उन्होंने रात तथा जंगल के सीन बढ़िया शूट किए हैं। 
 
कांतारा में कई रंग हैं और इसे देखा जा सकता है। 

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