Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia
Advertiesment

कबीर सिंह: फिल्म समीक्षा

हमें फॉलो करें कबीर सिंह: फिल्म समीक्षा

समय ताम्रकर

देवदास को जब इश्क में नाकाम हुआ तो शराब में खुद को डूबोकर बरबादी की राह पर चल पड़ा था। कुछ ऐसा ही हाल 'कबीर सिंह' के लीड कैरेक्टर कबीर (शाहिद कपूर) का भी होता है। यूं तो कबीर इश्क में नाकाम होने से पहले ही सिगरेट और शराब का आदी था, लेकिन जब वह प्रीति (किआरा आडवाणी) से शादी करने में असफल रहता है तो दिन-रात शराब, ड्रग्स और सिगरेट के नशे में रहता है। यही नहीं, पेशे से सर्जन कबीर इस हालत में लोगों की सर्जरी भी करता है। 
 
'कबीर सिंह' दक्षिण भारतीय फिल्म 'अर्जुन रेड्डी' का हिंदी रिमेक है। यह एक सामान्य सी प्रेम-कहानी है, जिसमें कबीर का किरदार कहानी को अलग बनाता है। कबीर बेहद गुस्सैल है। चंद सेकंड्स में वह आपा खो देता है। कॉलेज में उसकी धाक है और सभी उससे डरते हैं। पढ़ाई में वह टॉपर हैं, लेकिन साथ में शराब और लड़कियां उसकी कमजोरी है। 
 
प्रीति जब कॉलेज में ए‍डमिशन लेती है तो कबीर उसको देखते ही दिल दे बैठता है। पूरे कॉलेज में अनाउंस कर देता है कि यह बंदी मेरी है, कोई उसे परेशान नहीं करेगा। 
 
प्रीति चुप रहने वाली लड़की है। कबीर उसे पढ़ाता है। घुमाता है। जब उसे चोट लग जाती है और बॉयज़ होस्टल में अपने रूम में ले जाता है। मास्टर्स डिग्री हासिल करने के लिए कबीर दूसरे शहर के कॉलेज में एडमिशन लेता है और प्रीति के बिना वह रह नहीं पाता। यही हाल प्रीति का होता है। दोनों शादी का फैसला लेते हैं, लेकिन यह आसान नहीं है।  
 
कहानी में कुछ बातें आपत्तिजनक हैं। कबीर लड़कियों को अपनी जागीर समझता है। प्रीति को देख वह कह देता है कि प्रीति उसकी है। बस, हो गया फैसला। प्रीति क्या चाहती है, यह कोई नहीं पूछता।
 
इस फिल्म में कबीर की सोच महिलाओं के प्रति अच्छी नहीं है। वह महिलाओं के बारे में एक ही तरह की सोच रखता है। वक्त आने पर वह लड़की के कपड़े चाकू की नोंक पर भी उतरवा लेता है। 
 
फिल्म देखते समय ज्यादातर लोगों को प्रीति बेहद मासूम नजर आएगी, लेकिन वो मासूमियत नहीं हीरोइन का दब्बूपन है। कबीर ने उसे देखते ही कहा कि यह मेरी है तो वह कोई विरोध नहीं करती। 
 
कबीर उसे क्लास से बाहर ले जाता है वह चुपचाप चली जाती है। कबीर उसे अपने रूम में ले जाकर सीमाएं पार कर जाता है तो भी वह कुछ नहीं बोलती। अब इसमें मासूमियत ढूंढना तो मूर्खतापूर्ण बात है।
 
कबीर और प्रीति की लव स्टोरी एक-तरफा लगती है। फिल्म देखते समय ऐसा लगता है कि कबीर का साथ प्रीति केवल इसलिए दे रही है क्योंकि वह उससे डरती है। 
 
वैसे भी कबीर और प्रीति की लवस्टोरी के बजाय निर्देशक और लेखक ने कबीर के आत्म विनाश (self destruction) को ज्यादा फुटेज दिया है। इस बहाने उन्हें कबीर की दिमागी हालत दिखाने का खूब मौका मिला है और कबीर की हरकतों से उन्होंने मनोरंजन पैदा करने की कोशिश की है। 
 
चलिए, यह मान लिया कि यह एक ऐसे किरदार की कहानी है जिसकी महिलाओं के प्रति सोच खराब है। वह बिगड़ैल है। लेकिन निर्देशक संदीप रेड्डी वांगा ने इसे ग्लोरीफाई करके दिखाया है। ऐसा लगता है कि कबीर ये सब हरकतें कर हीरोगिरी दिखा रहा है। बहुत बड़ा काम कर रहा है और यह बात फिल्म देखते समय अखरती है। 
 
कहीं न कहीं यह मैसेज जाता है कि किसी लड़की को पाना है तो आप उसके पीछे पड़ जाओ और वह मान ही जाएगी। यहां कबीर दादागिरी से प्रीति का दिल जीतने की कोशिश करता है।  
 
कबीर के बारे में दोस्त कहता है कि यदि वह रेलवे स्टेशन पर बिना कपड़ों के घूमे तो लड़कियों की लाइन लग जाएगी। फिल्म में एक नामी हीरोइन इलाज कराने कबीर के पास जाती है और वो भी चंद मुलाकातों में कबीर के साथ फिजिकल रिलेशनशिप के लिए राजी हो जाती है। आखिर कबीर में ऐसा है क्या जो लड़कियां उस पर मरने लगती हैं? यह बात समझ से परे है।   
 
शराब पीकर सर्जरी करने वाले सीन भी जंचते नहीं हैं। इन्हें यह कह कर जस्टिफाई करने की कोशिश की गई है कि नशे की हालत में भी कबीर ने किसी मरीज का नुकसान नहीं किया। 
 
फिल्म की लंबाई भी अखरने वाली है। लगभग तीन घंटे की फिल्म का आखिरी घंटा दोहराव का शिकार है। कबीर का लगातार शराब पीना और इसको लेकर कभी दोस्त तो कभी भाई का टोकना यही बार-बार चलता रहता है और फिल्म ठहर जाती है।
 
निर्देशक संदीप रेड्डी वांगा ने फिल्म को स्टाइलिश बनाया है और गति तेज रखी है ताकि स्क्रिप्ट की बुराइयां छिप जाए। उन्होंने अर्जुन रेड्डी का भी निर्देशन किया था और लगभग वैसी ही सीन दर सीन फिल्म मामूली बदलाव के साथ बनाई है। फिल्म का अंत कुछ अलग करने का साहस वे नहीं जुटा पाए। एक नकारात्मक किरदार यदि फिल्म के अंत में वह सब पा ले जो चाहता है तो यह बात ठीक नहीं कही जा सकती।  
 
फिल्म का संगीत उम्दा है और बैकग्राउंड में चलते गाने अच्छे लगते हैं। सिनेमाटोग्राफी शानदार है, लेकिन एडिटिंग टाइट नहीं है। 
 
शाहिद कपूर ने गुस्सैल और बिगड़ैल कबीर की भूमिका अच्छे से निभाई है, लेकिन कहीं-कहीं यह किरदार उनसे छूटता भी दिखता है। कई दृश्यों में उन्होंने भावनाओं को त्रीवता के साथ पेश किया है। किआरा आडवाणी कोई खास प्रभाव नहीं छोड़ पाई। उनके पास ज्यादा करने के लिए कुछ था भी नहीं। पूरी फिल्म का फोकस शाहिद पर रहा इसलिए अन्य कलाकारों को खास अवसर नहीं मिले। 
 
यह फिल्म केवल कबीर सिंह की सनक को ही हाईलाइट करती है।
 
बैनर : टी-सीरिज़, सिने 1 स्टूडियो
निर्माता : भूषण कुमार, मुराद खेतानी, कृष्ण कुमार, अश्विन वर्दे
निर्देशक : संदीप रेड्डी वांगा
संगीत : अमाल मलिक, विशाल मिश्रा, मिथुन, संचेत-परम्परा
कलाकार : शाहिद कपूर, किआरा आडवाणी, अर्जन बाजवा, सुरेश ओबेरॉय 
* केवल वयस्कों के लिए 
रेटिंग : 2/5

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

कंगना रनौट की फिल्म 'मेंटल है क्या' का बदलेगा टाइटल, यह हो सकता है नया नाम

कबीर सिंह को आप पांच में से कितने अंक देंगे?