हिट: द फर्स्ट केस फिल्म समीक्षा: हिट जैसी बात नहीं

समय ताम्रकर
शुक्रवार, 15 जुलाई 2022 (15:29 IST)
Hit The First Case Movie Review in Hindi क्राइम केस की गुत्थी को सुलझाने वाला सफर खूब देखा जाता है चाहे टीवी पर 'क्राइम पेट्रोल' हो या वेबसीरिज हो या फिल्म हो। सारा मामला कहानी पर टिका होता है। यदि बहुत ज्यादा दम नहीं हो तो 45 मिनट का टीवी शो बनाया जा सकता है, परत दर परत केस सामने आता हो तो आठ-दस घंटे की वेबसीरिज बनाई जाती हो। कहानी बहुत ज्यादा पॉवरफुल हो तो ढाई-तीन घंटे की मूवी बनाई जा सकती है।

 
'हिट: द फर्स्ट केस' में अपराधियों को खोजने के सफर को दर्शाया गया है, लेकिन यह सफर रोमांचक नहीं है। कहानी दम नहीं मार पाती और कसावट के मामले में स्क्रिप्ट भी साथ नहीं देती। सीट पर बैठाए रखने का रोमांच तो दूर की बात है, दर्शकों को लगता है कि बात को बहुत खींचा जा रहा है।
 
'हिट: द फर्स्ट केस' इसी नाम से बनी तेलुगु फिल्म का हिंदी रीमेक है। शैलेष कोलानु ने ही दोनों वर्जन निर्देशित किए हैं। फिल्म का हीरो विक्रम (राजकुमार राव) हिट (होमीसाइड इंटरवेंशन टीम) का ऑफिसर है, जो PTSD (Post Traumatic Stress Disorder) से जूझ रहा है। अपनी गर्लफ्रेंड नेहा (सान्या मल्होत्रा) से उसका झगड़ा हो जाता है तो वह तीन महीने की छुट्टी पर चला जाता है। 
 
दो महीने बाद उसे पता चलता है कि नेहा गायब है। वह फिर से काम संभाल लेता है, लेकिन उसे इस केस के बजाय प्रीति नामक लड़की के गायब होने जांच सौंपी जाती है। जांच करते-करते विक्रम इस नतीजे पर पहुंचता है कि नेहा और प्रीति, दोनों के गायब होने की लिंक आपस में जुड़ी हुई है। 
 
शक की सुई एक पुलिस वाले पर है जिसने प्रीति को आखिरी बार देखा था और उसे लिफ्ट देने की बात भी कही थी, प्रीति के बॉयफ्रेंड पर भी है, विक्रम खुद भी संदेह के घेरे में है। जैसे-जैसे वह केस को सुलझाने कि दिशा में आगे बढ़ता है वैसे-वैसे मामला और उलझता जाता है।
 
शैलेष कोलानु ने 'हिट: द फर्स्ट केस' को लिखा है। दर्शकों को चौंकाने के लिए स्क्रिप्ट में कुछ बातें जोड़ी गई हैं, जैसे विक्रम का PTSD (Post Traumatic Stress Disorder) से जूझना। 
 
इस पर ढेर सारे दृश्य रखे गए हैं जब विक्रम आग देख कर शून्य हो जाता है, लाश को देखने के पहले उसे बैचेनी महसूस होती है, रह-रह कर पुरानी बातें याद आती हैं, लेकिन ये सारे सीन कहानी को बहुत ज्यादा आगे नहीं ले जा पाते। 


 
फिल्म के शुरुआत में एक सीन दिखाया गया है कि एक लड़की को विक्रम के सामने बर्फ की पहाड़ियों में जिंदा जला दिया गया है। ये क्या घटना थी? किसने की? क्यों की? इन प्रश्नों के फिल्म में कहीं जवाब नहीं मिलते। 
 
माना जा सकता है कि इस तरह की घटनाओं से विक्रम के मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर हुआ, लेकिन लेखक को कहीं ना कहीं इन बातों का उल्लेख करना था या कहानी से जोड़ना था। 
 
फिल्म के अंत में जब राज पर से पर्दा हटता है, मुख्य अपराधी सामने आता है, तो दर्शकों को निराशा ही हाथ लगती है। क्लाइमैक्स ऐसा नहीं है जो संतुष्टि दे। जो अपराधी दिखाया गया है उसमें इतना दम ही नहीं है कि वो इतने कांड करे। 
 
तर्क के जरिये जस्टिफाई करने की कोशिश की गई है, लेकिन बात नहीं बनती। ऊपर से फिल्म की स्क्रिप्ट भी इतनी दिलचस्प नहीं है कि खामियों को मनोरंजन की आड़ में इग्नोर करते हुए अंत तक फिल्म देखते रहे। 
 
'हिट: द फर्स्ट केस' के निर्देशक शैलेष कोलानु का प्रस्तुतिकरण प्रभावित नहीं करता। कुछ दृश्यों में किरदार अजीब व्यवहार करते हैं, जैसे प्रीति के पिता का पुलिस थाने में बर्ताव। इस तरह के दृश्य फिल्म को कमजोर बनाते हैं। अभिनेताओं से उन्होंने अच्छा काम लिया है। 
 
राजकुमार राव उन अभिनेताओं में से हैं जो किरदार में अपना सर्वस्व झोंक देते हैं। मानसिक स्वास्थ्य की समस्या, गर्लफ्रेंड के गायब होने की परेशानी और ऑफिस में अपने साथी के बुरे बर्ताव से जूझते व्यक्ति के रूप में उनका अभिनय उल्लेखनीय है। 
 
सान्या मल्होत्रा को कम सीन मिले और फिल्म में बीच में उन्हें भूला ही दिया गया। मिलिंद गुनाजी और शिल्पा शुक्ला छोटे-छोटे किरदारों में असर छोड़ते हैं। सिनेमाटोग्राफी उम्दा है, लेकिन गाने साथ नहीं देते। 
 
फिल्म में अंत में दूसरे भाग का भी इशारा दिया गया है, लेकिन क्या यह हिंदी में बनेगा? फिल्म का बॉक्स ऑफिस पर यह आलम है कि पूरे सिनेमाघर में मैं एकमात्र दर्शक था। कुल मिलाकर 'हिट: द फर्स्ट केस' में 'हिट' जैसी बात नहीं है। 
 

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