'ऐसा लगता था कि सलाम नमस्ते अपने वक्त से आगे की फिल्म है।' अपनी कल्ट-क्लासिक की 15वीं सालगिरह पर फिल्म-मेकर सिद्धार्थ आनंद खुलासा कर रहे हैं कि उन्होंने इस अपरंपरागत रोमांस वाली फिल्म को डायरेक्ट करना क्यों चुना और बता रहे हैं वाईआरएफ के साथ अपने 19 वर्षीय सफर के बारे में...
सिद्धार्थ आनंद आज भारत के सबसे कामयाब युवा फिल्म-मेकरों में शामिल हैं। पिछले साल इस लेखक-निर्देशक ने भारत को साल की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म 'वार' दी थी। अपनी पहली फिल्म 'सलाम नमस्ते' की 15वीं सालगिरह के मौके पर सिद्धार्थ बता रहे हैं कि कैसे उनकी अपरंपरागत रोमांटिक कॉमेडी को अक्सर अपने वक्त से आगे की फिल्म करार दिया जाता है।
सिद्धार्थ का कहना है, मुझे लगता है कि 'सलाम नमस्ते' एक ऐसे मुद्दे को उठा रही थी जो टैबू समझा जाता था या फिर उसके बारे में ज्यादा बात ही नहीं की जाती थी। लेकिन यह भारत के अंदर या विदेशों में बसे भारतीय समाज में बेहद प्रचलित था। भले ही यह अपने वक्त से आगे की फिल्म जान पड़ती थी लेकिन बात यह है कि फिल्म के अंदर जानबूझ कर कोई लज्जाजनक या चौंका देने वाला काम नहीं किया गया और कुछ अजीब करने की कोशिश भी नहीं हुई थी।
जब फिल्म रिलीज हो रही थी और हमने इसमें दिखाए गए लिव-इन रिलेशनशिप को प्रचारित करना शुरू किया, तो मुझे उसी वक्त सचमुच ऐसा महसूस हुआ कि हम कुछ बिल्कुल नया करने जा रहे हैं। मैंने कुछ अलग या नया करने की एकदम कोई कोशिश नहीं की थी। ये बिल्कुल इस तरह से था कि ठीक है, वे भाड़ा शेयर कर रहे हैं और अब एक दूसरे से घुलने-मिलने लगे हैं, इसलिए दो कमरों से एक ही कमरे में रहने जा रहे हैं। यही लिविंग इन है। तो यह ऑर्गेनिक था। इसमें लज्जाजनक या चौंका देने वाली कोई बात ही नहीं थी।
उन्होंने कहा, मैं इसी तरह की कोई नई और बेपरवाह किस्म की चीज दिखाना चाहता था। यह बेहद ऑर्गेनिक था और मुझे लगता है कि इसी चीज ने हमें कामयाबी दी। हमने बहुत ज्यादा कोशिश नहीं की थी और इसे दर्शकों के मुंह में जबरन ठूंसा भी नहीं गया था। यही वजह है कि बिना शादी किए ही एक साथ रहने वाले भारतीयों को लेकर इस फिल्म ने हमारे समाज में एक बेहद अहम चर्चा छेड़ दी थी।
सलाम नमस्ते के सहारे सिद्धार्थ ने वाईआरएफ के साथ अपनी बेहद कामयाब रचनात्मक सहभागिता के 19 साल भी पूरे कर लिए हैं। वह कहते हैं, सलाम नमस्ते के साथ एक डायरेक्टर के रूप में मेरी यात्रा के 15 साल मुकम्मल हो गए। वाईआरएफ के साथ मेरा सफर इससे थोड़ा लंबा रहा है। मैंने वाईआरएफ के साथ 2001 में काम करना शुरू किया था। लोग कहते हैं कि यह एक फेमिली जैसा है, घर का बैनर है, हर किसी के मुंह से आप यही सुनेंगे, लेकिन इसमें पूरी सच्चाई भी है।
मेरा मानना है कि यह एकदम टॉप से उपजा है- यश जी और आदि और उदय से- वे आपको कैसा अहसास कराते हैं, वे आपको एक होने का अहसास कराते हैं। वे आपको बराबरी का अहसास दिलाते हैं। मैं जब 2001 में वहां दाखिल हुआ तो मैंने यही महसूस किया। दरअसल बतौर एक असिस्टेंट मुझसे जिस बराबरी का व्यवहार किया गया, उसे देख कर मैं हक्का-बक्का रह गया था।
मैं असिस्टेंट था और हमें कुछ इस तरह से बराबरी का दर्जा दिया जाता था कि शनिवार को आदि हमें अक्सर लंच पर ले जाया करते थे। मेरा मतलब है कि हम महज असिस्टेंट थे और आदि को इंडियन सिनेमा के गॉड की नजर से देखते थे, जिन्होंने सबसे बड़ी इंडियन ब्लॉकबस्टर फिल्में बनाई थीं और वे हमारे प्रेरणास्रोत थे!
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वह कहते हैं, उनके इस व्यवहार ने हमारे दिल में उनके लिए बेतहाशा सम्मान पैदा कर दिया। बड़ी अजीब बात है कि जब वे आपको बराबरी का अहसास कराते हैं, तो आपकी नजरों में उनकी उतनी ही ज्यादा इज्जत बढ़ती जाती है। दरअसल जब वह आपके साथ बराबरी का व्यवहार करने की कोशिश कर रहे होते हैं, तो आपके लिए और बड़ा प्रेरणास्रोत बन जाते हैं।
यह बड़े विचित्र किस्म का फिनॉमिना है और मुझे नहीं लगता कि उनके अलावा इंडस्ट्री में कोई दूसरा शख्स ऐसा करता होगा। इंडस्ट्री में असुरक्षा का भाव बहुत अधिक है और यहां गलाकाट स्पर्द्धा होती है। लेकिन जब आप वाईआरएफ में दाखिल होते हैं तो हर व्यक्ति बराबर होता है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप कौन सी तोप हैं, आप प्यून की भी इज्जत करना सीख जाते हैं और उन्हें उनके नाम से जानने लगते हैं। आप उनको उनके पहले नाम से बुलाते हैं और उनको अपने बराबर होने का अहसास कराते हैं।
यह सब यश जी, आदि और उदय के उस सम्मान की देन है, जो उन्होंने कंपनी के हर व्यक्ति को दिया है। आप घर में होने जैसा महसूस करते हैं क्योंकि जब आप अपने घर में होते हैं तो हर व्यक्ति बराबर होता है, और ठीक इसी भावना के साथ आप वाईआरएफ में रहते हैं।
‘हम तुम’ से लेकर ‘वार’ तक सिद्धार्थ की वाईआरएफ के साथ की गई फिल्में बेहद कामयाब रही हैं। वाईआरएफ के साथ बनाई गई उनकी ऊबर कूल और यूथफुल फिल्मों ने पॉप कल्चर को गढ़ा है। उन्होंने जिस भी जॉनर में हाथ आजमाया, उनकी फिल्मों ने मापदण्ड को ऊंचा ही उठाया है।
सिड का कहना है- पॉप कल्चर को शक्ल देने की कोशिश जानबूझ कर नहीं की गई थी। मुझे तो पता भी नहीं है कि मैंने कोई कोशिश की। मुझे लगता है कि मैंने काफी कम उम्र में फिल्में बनानी शुरू कर दी थीं, तो इस तथ्य की रोशनी में कहीं न कहीं उस एज ग्रुप में शामिल होने के नाते एक बिंदु पर आकर ऑडियंस को मेरी वो फिल्में समझ में आईं, जिन्हें मैं बना रहा था। तो अपने करियर में, जो अब 15 साल लंबा हो चुका है, मैंने 6 फिल्में बनाई हैं और मुझे लगता है कि हां, मैंने अपनी हर फिल्म के साथ कुछ अलग करने की कोशिश की है, लेकिन मैं फिर कहूंगा कि कुछ भी जानबूझ कर नहीं किया गया।
मैं बड़ी आसानी से बोर हो जाता हूं। मैं अपने आइडियाज से ही बड़ी आसानी से बोर हो उठता हूं। इसलिए हमेशा कोशिश रहती है कि कुछ अलग किया जाए और अपनी फिल्म के जरिए ऑडियंस को कोई न कोई नया अनुभव दिया जाए; चाहे वह कहानी के माध्यम से हो, लोकेशन हो या इसकी कास्टिंग या म्यूजिक के माध्यम से हो! इसके अलावा आपको दर्शकों का अलग-अलग ढंग से मनोरंजन करते रहना चाहिए ताकि वे आपकी फिल्म का उत्सुकता से इंतजार करें।
वह आगे बताते हैं, मुझे लगता है कि आखिरकार 'वार' फिल्म के सहारे मैं अपनी ऑडियंस के साथ कदर जुड़ चुका हूं, कि अब वे मुझसे कुछ ऐसी अपेक्षा रखते हैं जो सीमाओं को परे धकेल दे। वार के साथ हमने वाकई एक्शन फिल्म का एक ऐसा स्पेक्टेकल तैयार किया, जिसका वादा हमने इसके लॉन्च के वक्त किया था। यह एक बहुत बड़ा वादा था लेकिन ऑडियंस भी यह बात स्वीकार करेगी कि हमने वह वादा पूरा किया। इसके अलावा जिस तरीके से मैं अपनी रोमांटिक कॉमेडी शूट करता हूं।
किसी ने मुझसे कहा कि उनको एक्शन फिल्मों की तरह ही शूट किया गया है। उसने यह बात फिल्म के स्केल और विजुअल अपील के संदर्भ में फिल्म की गतिशीलता को लेकर कही थी और बताया था कि यह सब किसी एक्शन फिल्म की तरह दिखता है। तो रोमांटिक कॉमेडी से एक्शन फिल्म बनाने का ट्रांजीशन एक तरह से मेरे लिए बड़ा स्वाभाविक था। मैं जो विकल्प चुनता हूं, जिस तरह की फिल्में बनाना चाहता हूं, उसके लिए मुझे अपनी क्षमताओं से आगे बढ़ कर काम करना होगा।