Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia
Advertiesment

रफी : वो जब याद आए, बहुत याद आए

हमें फॉलो करें रफी : वो जब याद आए, बहुत याद आए

शराफत खान

हिन्दी फिल्म संगीत में मोहम्मद रफी का योगदान और महत्व बताने की आवश्यकता नहीं है। संगीत जगत में रफी का नाम बड़े अदब से लिया जाता है। बेशक आज रफी हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी अमर आवाज हमें उनकी मौजूदगी का हमेशा अहसास कराती है। रफी की आवाज महज आवाज ही नहीं बल्कि एक जादू था, जो आज तक संगीत प्रेमियों के दिलो-दिमाग में रचा-बसा है। कई गायक उनकी नकल करके सफल हुए हैं और आज भी कई युवा गायक रफी की तरह गाने की कोशिश करते हैं।
 

कहने की जरूरत नहीं कि रफी ने हर मूड के गाने बखूबी गाए और उनके हर गीत का अपना एक अलग महत्व है। वे अपने हर गाने के लिए जी-तोड़ मेहनत करते थे। रफी जब भी कोई गीत गाते तो वे उस चरित्र में अपने आप को ढाल लेते थे, जिस चरित्र पर वह गीत फिल्माया जाना होता था। चाहे वह 'देखी जमाने की यारी, बिछड़े सभी बारी-बारी...' (कागज के फूल) हो या फिर जॉनी वाकर जैसे कॉमेडियन के लिए 'तेल मालिश...' (प्यासा) और 'ये है बॉम्बे मेरी जान...' (सीआईडी) हो, रफी ने हर गीत के साथ पूरा न्याय किया।


एक तरफ रफी शम्मी कपूर के लिए जोशीले अंदाज में 'याऽऽऽहू...' गाते हैं, वहीं दूसरी ओर इसी फिल्म (जंगली) में अपने चिरपरिचित सॉफ्ट अन्दाज में 'एहसान तेरा होगा मुझ पर...' भी गाते हैं, सचमुच ये उत्कृष्ट प्रतिभा का ही उदाहारण है।

रफी ने शम्मी कपूर, दिलीप कुमार, राजेन्द्र कुमार, देवानंद, धर्मेन्द्र, शशि कपूर सहित कई बड़े सितारों को पर्दे पर अपनी आवाज दी। रफी कोई भी गीत गाने से पहले यह जरूर जान लेते थे कि वे किस अभिनेता के लिए गा रहे हैं और यही कारण था कि वे अपने हर गीत पर एक अमिट छाप छोड़ते थे।

चारों तरफ चकाचौंध होने के बावाजूद रफी अपने निजी जीवन में काफी शांत और अंतर्मुखी थे। यह वास्तव में रफी की प्रतिभा का ही कमाल है कि मामूली पारिवारिक पृष्ठभूमि होने के बावजूद उन्होंने संगीत के क्षेत्र में बुलंदियों को छुआ। रफी के व्यक्तित्व के बारे में उनके पुत्र शाहिद कहते हैं 'वे बहुत शांत एवं धीर-गम्भीर प्रवृत्ति के इनसान थे। जब कभी हम उनसे पूछते कि क्या आपने सचमुच 'याऽऽऽहू...' जैसा जोशीला गीत गाया है तो वे सिर्फ मुस्करा देते थे।'

रफी की विनम्रता जगजाहिर थी। वे अपने हर संगीतकार को बराबर सम्मान देते थे। उनका कहना था कि आप लोग मेरे उस्ताद हैं और उस्ताद की इज्जत करना मेरा फर्ज है। काम के प्रति उनकी लगन और समर्पण देखते ही बनता था।

रफी का जन्म 24 दिसंबर 1924 को अमृतसर के निकट कोटला सुल्तानसिंह नामक गाँव में हुआ था। जब रफी महज 2 वर्ष के थे तभी उनका परिवार लाहौर आकर रहने लगा। लाहौर में जहाँ उनका परिवार रहता था, उस मोहल्ले में एक फकीर प्रतिदिन आकर गाना गाता था और रफी उस फकीर का गाना बड़े ध्यान से सुनते थे। वास्तव में यहीं से रफी को गाने का शौक लगा।

रफी की इस गायन प्रतिभा को सबसे पहले उनके बड़े भाई मोहम्मद हमीद ने पहचाना और उन्हें न सिर्फ प्रोत्साहित किया, बल्कि उनकी इस प्रतिभा को निखारने की कोशिश में भी लगे रहे।

मशहूर संगीतकार नौशाद रफी की कामयाबी का बहुत कुछ श्रेय मोहम्मद हमीद की कोशिशों को देते हैं। हमीद ने अपने छोटे भाई को फिल्मों में काम दिलाने के लिए लगभग हर संगीतकार का दरवाजा खटखटाया।

एक बार हमीद अपने छोटे भाई को लेकर महान गायक केएल सहगल को सुनने उनके प्रोग्राम में गए, लेकिन बिजली गुल हो जाने के कारण सहगल अपनी प्रस्तुति नहीं दे पाए, तब हमीद ने आयोजकों से आग्रह किया कि उनका छोटा भाई अपनी आवाज से ही इतनी भीड़ को नियंत्रित कर सकता है। इस प्रकार पहली बार रफी ने जनता के सामने अपनी दिलकश आवाज का जादू बिखेरा और श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। उस रात जिन लोगों ने रफी की आवाज सुनी उनमें संगीतकार श्यामसुन्दर भी शामिल थे, जो रफी की आवाज से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने रफी को मुंबई आने का न्योता दिया। इस तरह पहली बार हमीद के साथ-साथ रफी को भी लगने लगा कि वे फिल्मों में गा सकते हैं।

यही सपना सँजोकर हमीद अपने छोटे भाई को लेकर पहली बार मुंबई आए। लेकिन रफी का शुरुआती दौर काफी संघर्षपूर्ण था। बहुत कम रुपए लेकर हमीद और रफी मुंबई आए थे और जल्दी ही रुपए खत्म भी हो गए। उन दिनों ये दोनों भाई भिंडी बाजार में रहा करते थे और पैसे के अभाव में प्रतिदिन भिंडी बाजार से दादर तक पैदल आया-जाया करते थे। इस तरह कई दिन गुजर गए पर रफी की मुलाकात संगीतकार श्यामसुंदर से नहीं हो पाई।

आखिरकार वह दिन भी आया जब रफी श्यामसुंदर से मिले। इस तरह रफी को पंजाबी फिल्म 'गुलबलोच' में गीत गाने का मौका मिला। रफी ने अपना पहला हिन्दी गीत फिल्म 'गाँव की गौरी' के लिए गाया, जिसके संगीतकार नौशाद अली थे। इस प्रकार रफी का फिल्मी सफर शुरू हुआ।

रफी की दिली ख्वाहिश थी कि वे महान गायक केएल सहगल के साथ कोई गीत गाएँ और यह तमन्ना जल्दी ही पूरी भी हो गई, जब नौशाद साहब ने उन्हें 'रुही-रुही मेरे सपनों की रानी...' गीत केएल सहगल के साथ गाने को कहा। फिल्म 'अनमोल घड़ी' में एक बार फिर नौशाद के निर्देशन में रफी ने 'तेरा खिलौना टूटा...' गीत गाया। फिर कुछ समय बाद फिल्म 'दिल्लगी' प्रदर्शित हुई जिसमें रफी ने दो गीत गाए जो सुपर हिट हुए। गाने के बोल थे 'इस दुनिया में ऐ दिलवालों दिल का लगाना ठीक नहीं...' और 'तेरे कूचे में अरमानों की दुनिया ले के आया हूँ...।'

अब तक रफी काफी चर्चित गायक हो चुके थे और दिन-ब-दिन उनके चाहने वालों की संख्या बढ़ती जा रही थी। यहाँ से रफी ने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

रफी को याद करते हुए शम्मी कपूर कहते हैं 'मेरी सफलता में रफी साहब के गीतों का बहुत बड़ा योगदान रहा। उन्होंने कई बार अपने आप को फिल्म में मेरे किरदार के अनुरूप ढाला है।' शम्मी कपूर एक घटना का जिक्र करते हुए कहते हैं 'उस वक्त हम फिल्म 'कश्मीर की कली' के एक गीत, जिसके बोल 'तारीफ करूँ क्या उसकी जिसने तुम्हें बनाया...' पर काम कर रहे थे। इस गाने में ये बोल कई बार दोहराना था, जिस पर संगीतकार ओपी नैयर को एतराज था। उनका कहना था कि इस तरह गाना बोर करेगा। मेरी इच्छा थी कि गाने में ये शब्द दोहराए जाने चाहिए, लेकिन मैं नैयर साहब के सामने चुप ही रहा।

अचानक रफी साहब ने नैयर साहब से कहा कि जो ये लड़का चाहता है, वह मैं करूँगा, क्योंकि मैं समझता हूँ कि यह क्या चाहता है। जब फिल्म रिलीज हुई तो इस गाने ने धूम मचा दी और ये गाना रफी साहब की विशेष शैली के कारण फिल्मी संगीत में मील का पत्थर साबित हुआ।' शम्मी कपूर आगे बताते हैं- 'जब ये गाना हिट हुआ तो नैयर साहब ने मुझे गले लगाकर मेरी दूरदर्शिता की सराहना की।'

स्वर सम्राज्ञी लता मंगेशकर रफी को याद करते हुए कहती हैं- 'वे बहुत समर्पण भाव से अपना काम करते थे, उनके साथ मैंने कई गीत गाए हैं, जो आज भी लोग गुनगुनाते हैं।' रफी के साथ गाए गीतों में लताजी के पसंदीदा गीत हैं-

'जीवन में पिया तेरा साथ रहे...' (गूँज उठी शहनाई )
'तुम तो प्यार हो सजना...' (सेहरा)
'तस्वीर तेरी दिल में...' (माया)
'धीरे-धीरे चल चाँद गगन में...' (लव स्टोरी)
'तुझे जीवन की डोर से....' (असली-नकली)
'चलो दिलदार चलो..' ( पाक़ीज़ा)
'तेरे हुस्न की क्या तारीफ करूँ...' (लीडर)


रफी जैसे कलाकार बनते नहीं, पैदा होते हैं। उन्होंने हिन्दी फिल्म संगीत में गायन के नए आयाम स्थापित किए हैं। अपनी अमर आवाज से भारतीय फिल्म संगीत को नई ऊँचाई देने वाले इस महान कलाकार ने 31 जुलाई सन 1980 को इस दुनिया को अलविदा कहा।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

दिव्यांका-विवेक के हनीमून से खफा हैं ये दो लोग