15 अगस्त 2025 को 'शोले' फिल्म की रिलीज को पूरे 50 साल हो जाएँगे, जो अपने आप में एक ऐतिहासिक उपलब्धि है। यह सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि भारतीय सिनेमा का एक ऐसा मील का पत्थर है जिसने न सिर्फ बॉक्स ऑफिस के सारे रिकॉर्ड तोड़े, बल्कि दर्शकों की पीढ़ियों के दिलों में एक खास जगह बना ली। 50 साल बाद भी इसके संवाद, किरदार और कहानी आज भी लोगों की ज़ुबान पर हैं। इस फिल्म ने यह साबित कर दिया कि एक शानदार कहानी और दमदार किरदारों के साथ बनी फिल्म समय की कसौटी पर खरी उतरती है और एक अमर कृति बन जाती है।
शोले पर हिंसा को महामंडित करने के आरोप भी लगे, लेकिन मनोरंजन की दृष्टि से देखा जाए तो यह शानदार फिल्म है। आज की एक्शन फिल्मों से तुलना करेंगे तो जय-वीरू बेहद मासूम लगेंगे।
हां यह बात जरूर है कि शोले के बाद हिंदी फिल्म वालों का झुकाव एक्शन की ओर हो गया और हजारों की संख्या में हिंसक कहानियों वाली फिल्में रिलीज हुईं और सिनेमा का परदा लाल हो गया। शोले ने मल्टीस्टारर फिल्म का ट्रेंड भी स्थापित किया। फिल्म प्रोड्यूसर में हिम्मत आई कि वे ज्यादा बजट की फिल्में भी बना सकते हैं।
कई बार चीजें इतनी परफेक्ट हो जाती हैं कि यकीन करना पड़ता है कि किसी अदृश्य शक्ति का साथ था। 1975 में रिलीज हुई शोले को बनाते समय किसी ने उम्मीद नहीं की थी कि वे सब इतिहास लिखने जा रहे हैं। एक ऐसी फिल्म बनाने जा रहे हैं जिसे क्लासिक माना जाएगा या मिलिनेयम की श्रेष्ठ फिल्म कहा जाएगा।
रिलीज के 50 वर्ष बाद भी यह फिल्म चर्चा में बनी हुई है। कई लोग इस बात की गिनती भूल चुके हैं कि उन्होंने कितनी बार इसे देखा है। कुछ ने अपने पिता और दादा से इस फिल्म के बारे में कहानी सुनी होगी। इस फिल्म के किरदारों, संवादों और कहानी ने भारतीय सिनेमा पर गहरा असर किया। भारत में व्यावसायिक सिनेमा को नए सिरे से परिभाषित किया।
शोले में मनोरंजन के वो सारे तत्व सही मात्रा में हैं जिनकी तलाश में एक आम आदमी मनोरंजन के लिए सिनेमाघर में जाता है। ऐसा लगता है कि इस फिल्म से जुड़े सारे लोगों ने अपना सर्वश्रेष्ठ इसी फिल्म को दिया तभी यह बॉलीवुड के इतिहास का मील का पत्थर बन गई है।
इस फिल्म में जितना लिखा जाए कम है। ढेर सारी खूबियां हैं। जय-वीरू की दोस्ती वाला ट्रेक ही ले लीजिए। धर्मेन्द्र और अमिताभ बच्चन की केमिस्ट्री गजब ढाती है। एक वाचाल है तो दूसरा अंतर्मुखी। एक अपने दिल की सारी बात बता देता है तो दूसरा अपने दोस्त से भी कुछ बातें छिपा जाता है। वो इसलिए छिपाता है कि उससे उसके दोस्त को कोई नुकसान न पहुंचे। सिक्के के जरिये फैसले लेने वाली बात के तो कई बेहतरीन प्रसंग हैं। अंत में जब वीरू को सिक्के की असलियत पता चलती है तो उसके साथ सारे दर्शक भी स्तब्ध रह जाते हैं क्योंकि जय ने इस सिक्के के जरिये अपनी जिंदगी दांव पर लगा दी।
एक एक्शन फिल्म की पथरीली जमीन पर रोमांस की कोपलें भी हैं। दिल को हथेली पर लिए घूमने वाले गबरू वीरू और बक-बक करने वाली बसंती के बीच कई बेहतरीन रोमांटिक सीन हैं। इन दोनों का रोमांस जहां लाउड है तो जय और राधा का रोमांस खामोशी ओढ़े हुए है और दर्शाता है कि प्रेम के लिए भाषा की जरूरत नहीं पड़ती है।
ठाकुर और गब्बर का रिवेंज ड्रामा सीधे दर्शकों पर असर करता है। गब्बर का आतंक पूरी फिल्म में नजर आता है और जब वह ठाकुर के परिवार के सदस्यों को मौत के घाट उतार देता है तो सिनेमाहॉल में बैठा दर्शक सिहर जाता है। ठाकुर के हाथ काट दिए जाते हैं तो वह जय और वीरू को अपने मजबूत हाथ बनाकर गब्बर से लड़ता है।
ऐसे तो पूरी फिल्म की एक-एक फ्रेम उल्लेखनीय है, लेकिन कई ऐसे दृश्य हैं जो रोमांचित करते हैं। फिल्म की शुरुआत में जय-वीरू-ठाकुर और डाकुओं के बीच ट्रेन पर फिल्माया गया सीक्वेंस भारत में फिल्माए बेहतरीन एक्शन सीक्वेंसेस में से एक है।
वीरू का रिश्ता लेकर जय का बसंती की मौसी के पास जाना, वीरू का शराब पीकर टंकी पर चढ़ जाना, बसंती का गब्बर के अड्डे पर नाचना, इमाम साहब के बेटे की हत्या कर उसका शव घोड़े के जरिये गांव भिजवाना, गब्बर का ठाकुर के हाथ काट देना, अंग्रेजों के जमाने वाले जेलर जैसे कई बेहतरीन दृश्यों से फिल्म लबालब है जिन्हें देख दर्शक हंसता है, रोता है, डरता है।
कहानी को परदे पर उतारना निर्देशक रमेश सिप्पी बेहतरीन तरीके से जानते हैं। बदले की तीखी कहानी को रोमांस-कॉमेडी की चाशनी में लपेट कर उन्होंने इस तरीके से पेश किया है कि दर्शक को हर स्वाद का मजा आता है। इतने सारे किरदारों और प्रसंगों को समेटना और उन्हें प्रभावी बनाना आसान काम नहीं था। पूरी फिल्म पर वे अपनी पकड़ कभी नहीं खोते। छोटे से छोटे कलाकार से उन्होंने श्रेष्ठ अभिनय कराया है।
शोले को बेहतरीन बनाने में सिनेमाटोग्राफर द्वारका दिवेचा का भी अहम योगदान है। अमिताभ बच्चन माउथ आर्गन बजा रहे हैं और जया रोशनी कम कर रही है। संध्या और रात्रि के मिलन का समय है। इस सीन को द्वारका ने कमाल का शूट किया है। संध्या और रात्रि के मिलन में प्रकाश तेजी से बदलता है और इस चंद सेकंड्स के दृश्य को फिल्माने में 20 दिन का वक्त लगा था। ऐसी मेहनत छोटे-छोटे सीन के लिए की गई है।
फिल्म के लेखक सलीम-जावेद ने कई फिल्मों और निजी जीवन से प्रेरणा लेकर किरदारों तथा प्रसंगों को गढ़ा। किरदार इतनी सूक्ष्मता के साथ लिखे गए कि सिनेमाहॉल से निकलने के बाद सभी याद रह जाते हैं। सांभा, कालिया, इमाम साहब, जेलर, सूरमा भोपाली, मौसी जैसे संक्षिप्त किरदार भी अपना असर छोड़ते हैं।
सलीम-जावेद के लिखे संवाद भी बेहतरीन किरदारों की सोच को बयां करते हैं। तेरा क्या होगा कालिया? बेहद सरल संवाद है, लेकिन ऐसी सिचुएशन बनाई गई, अमजद खान ने इस तरह संवाद बोला और रमेश सिप्पी ने इस तरह फिल्माया कि यह सामान्य-सा संवाद भी याद रहता है। तुम्हारा नाम क्या है बसंती जैसे संवाद देर तक गुदगुदाते रहते हैं।
खिलंदड़ और गबरू जवान की भूमिका धर्मेन्द्र पर खूब फबी है। उनकी वजह से फिल्म में एक सकारात्मक ऊर्जा बहती रहती है। उस समय वे हेमा मालिनी के दीवाने थे, इसलिए हेमा के साथ रोमांटिक सीन कुछ ज्यादा ही प्यार नजर आता है। एक्शन, कॉमेडी और इमोशन जैसे कई रंग धर्मेन्द्र के किरदार में हैं और उन्होंने बखूबी इन्हें जिया है।
अमिताभ बच्चन को कम संवाद मिले हैं, लेकिन चेहरे के भावों और आंखों के जरिये उन्होंने त्रीवता के साथ अपने किरदार को जिया है। कई दृश्यों में बिना कुछ कहे उन्होंने बहुत कुछ कहा है। एक्शन सीन में उनका गुस्सा देखते ही बनता है।
ठाकुर बलदेव सिंह की भूमिका को संजीव कुमार ने अपने अभिनय से अविस्मरणीय बनाया है। बदले की आग की तपिश उनके चेहरे से महसूस की जा सकती है।
अमजद खान ने गब्बर के रूप में दर्शकों को खूब डराया है। उनका किरदार ऐसा लिखा गया है कि अंदाजा लगाना आसान नहीं है कि यह कब क्या कर बैठे और अमजद ने चरित्र के अनुरूप अपने चेहरे के भावों को बदला है।
हेमा मालिनी, जया बच्चन, एके हंगल, असरानी, सचिन, जगदीप, लीला मिश्रा, विजू खोटे, मैक मोहन सहित सभी कलाकार अपने श्रेष्ठ फॉर्म में नजर आए हैं।
आरडी बर्मन ने फिल्म के मूड के अनुरूप संगीत रचा है और उनका बैकग्राउंड म्युजिक फिल्म को और प्रभावी बनाता है। बैकग्राउंड म्यूजिक कहीं भी सुनाई देता है तो रोंगटे खड़े कर देता है। सिग्नेचर ट्यून तो गजब है।
शोले दिमाग के बजाय दिल से देखी जाने वाली फिल्म है। शोले केवल एक फिल्म नहीं, बल्कि हिंदी सिनेमा का एक अमिट अध्याय है जिसने न सिर्फ मनोरंजन के नए मानदंड स्थापित किए, बल्कि पात्रों, संवादों और कहानियों के जरिए भारतीय फिल्मों की सोच को भी नई दिशा दी। 50 वर्षों बाद भी इसकी लोकप्रियता और चर्चा कम नहीं हुई है, जो इस फिल्म की कालजयी महत्ता को दर्शाता है।