आजादी के बाद हिन्दी सिनेमा का तेजी से विस्तार होते देख इस शानोशौकत और ग्लैमर-वर्ल्ड की ओर अनेक युवक-युवतियां आकर्षित हुए। कुछ कलाकारों ने अपनी पहली फिल्म में प्रतिभा का अनोखा परिचय दिया और वे तेजी से आगे बढ़ गए। कुछ कलाकार पहली फिल्म से फ्लॉप का ऐसा ठप्पा लगा बैठे कि उनकी हिम्मत आगे जाने की नहीं हुई। कुछ ने हिम्मत नहीं हारी और निराशा-हताशा के बावजूद आगे बढ़ते रहे और अपनी मंजिल हासिल कर चैन की सांस ली। कलकत्ता से बम्बई आई माला सिन्हा अपने मन में 'स्टार' बनने का सपना संजोकर इस मायानगरी में आई थी।
अपना चेहरा शीशे में देखो
माला सिन्हा जब सोलह साल की थीं, तब आकाशवाणी के कलकत्ता केन्द्र पर गाया करती थीं। एक परिचित ने उन्हें सलाह दी कि पार्श्वगायिका बनने के बजाय वे एक्टिंग पर जोर दे तो ज्यादा सफलता मिल सकती है। एक पत्र लेकर वह अपने पिता के साथ बम्बई के एक निर्माता से मिली। एक घंटे के इंतजार के बाद निर्माता ने देखते ही कहा कि पहले अपना चेहरे शीशे में देखो। इतनी भौंडी नाक लेकर हीरोइन बनने का सपना देख रही हो। इस शुरुआत के साथ कड़ुए घूंट को वह कभी नहीं भूल पाई हैं।
माला की आरंभिक फिल्में थीं फिल्मकार अमिय चक्रवर्ती की बादशाहत तथा फिल्म आचार्य किशोर साहू की हेमलेट। दोनों फिल्में असफल रही और माला के बारे में फिल्म इंडस्ट्री में तरह-तरह की बातें फैलने लगीं। मसलन- उनके उच्चारण में बंगला भाषा का टच है। चेहरे पर भाव प्रदर्शन करते समय वह गंभीर होने के बजाय 'लाउड' हो जाती हैं। गोल-मटोल चेहरे पर तीखे-नाकनक्श नहीं होने से दर्शक को हीरोइन की उपस्थिति की अपील महसूस नहीं होती।
'धूल' में खिला सफलता का फूल
बी.आर. बैनर तले यश चोपड़ा के निर्देशन में फिल्म आई 'धूल का फूल'। इस फिल्म में दर्शकों ने माला का अलग रूप देखा। यश चोपड़ा के ट्रीटमेंट से माला का किरदार ऐसा उभरा कि उन्हें चारों ओर से वाहवाही मिली। इसके बाद माला ने सभी बाधाएं पार कर ली और उन्होंने नरगिस, मीना कुमारी, गीता बाली, मधुबाला, वहीदा रहमान, नूतन और वैजयंतीमाला के बीच अपना अलग मुकाम भी बना लिया। माला ने ग्लैमर-गर्ल के साथ पारिवारिक गंभीर फिल्मों के बीच संतुलन कायम करते हुए अपना करियर जारी रखा। बीस साल के अभिनय करियर में उन्होंने अस्सी से ज्यादा फिल्मों में काम कर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। उन्होंने अपने उच्चारण ठीक किए। अभिनय के साथ संवाद अदायगी को ऐसा बनाया कि नई तारिकाएं माला को देख सीखने-संवरने लगी।
विविध रंगों वाले रोल
माला सिन्हा की विविध फिल्मों में उनके द्वारा निभाए गए किरदारों का विश्लेषण किया जाए, तो वह केलिडोस्पिक इमेजेस की तरह हर बार नए रूप-रंग एवं आकार में नजर आती हैं। बी.आर.चोपड़ा की फिल्म गुमराह में वह अशोक कुमार से शादी तो कर लेती हैं, मगर अपने पूर्व प्रेमी से मिलना जारी रखती है। जब पति द्वारा नसीहत दी जाती है, तो भारतीय नारी की तरह अपने आदर्शों की ओर लौटकर प्रेमी के लिए घर के दरवाजे हमेशा के लिए बंद कर देती है।
फिल्म बहूरानी में उन्हें ठीक इसके विपरीत भूमिका निभाई। इससे फिल्म समीक्षकों तथा दर्शकों को यह विश्वास हो गया कि एक भटकी हुई नारी और घर की दहलीज को अपनी लक्ष्मण-रेखा मानने वाली बहूरानी के रोल को माला एक साथ निभा सकती हैं। जब फिल्म जहांआरा का मुहरत हुआ, तो अनेक लोगों ने शंका जताई कि मुस्लिम कल्चर की इस फिल्म में यह क्रिश्चियन लड़की के किरदार के साथ न्याय कर पाएंगी या नहीं। जहांआरा में माला के अभिनय को सराहा गया।
फिल्म मेरे हुजूर में माला ने दो प्रेमियों के बीच उलझी नारी के द्वंद्व को इतने उम्दा तरीके से निभाया कि सामने राजकुमार जैसे अभिनेता के होने के बावजूद वे डटी रहीं। फिल्म बहू-बेटी में वह जवान विधवा बनी और समाज की बुरी निगाहों से अपने को बचाए रखा। बहारें फिर भी आएंगी में उन्होंने साबित किया कि डायरेक्टर भले ही कमजोर हो, वह अपने सशक्त अभिनय से फिल्म को यादगार बनाएंगी। रामानंद सागर की फिल्म आंखें भी माला की बेहतरीन फिल्मों में से एक है।
फिल्म मर्यादा, गीत और होली आई रे जैसी फिल्मों में माला को परम्परागत भूमिकाएं निभानी पड़ीं। इसलिए ये फिल्में माला के करियर को ऊंचाइयां तो नहीं दे पाईं, मगर माला से दर्शक निराश नहीं हुए।
तमाम नायकों की माला
माला को अपने समकालीन तमाम बड़े नायकों के साथ काम करने के अवसर मिले। देवआनंद के साथ कई फिल्में कर उन्होंने अपनी इमेज को रोमांटिक एवं सेक्स को धार दी। धर्मेन्द्र के साथ आंखें और मनोज कुमार के साथ हिमालय की गोद में वे छाई हुई थीं। राजेंद्र कुमार के साथ उन्होंने अनेक फिल्में करने के अवसर मिले। गीत उनके साथ आखिरी फिल्म थी। गुरुदत्त की फिल्म प्यासा में वे सहनायिका हैं, मगर छोटे रोल में भी उन्होंने दर्शकों की सहानुभूति बटोरी। राज कपूर के साथ परवरिश की। शम्मी कपूर के साथ उजाला में तो उन्होंने शम्मी स्टाइल में नाच-गाना गाया- या अल्ला या अल्ला दिल ले गई।
माला सिन्हा ने जीनत अमान और परवीन बाबी की यह कहकर आलोचना की थी कि ये अभिनेत्रियां कम और मॉडल ज्यादा हैं। मॉडल के पास सिर्फ दिखाने के लिए शरीर होता है। अपने इस कमेंट का शिकार माला भी कई फिल्मों में हुई हैं। उनके पास भरी-पूरी मांसल देह तो थीं मगर वहीदा रहमान या नूतन जैसी संवेदनाएं वह अभिनय के जरिये अभिव्यक्त नहीं कर पाईं।
पिता का खौफ
नेपाली फिल्म माइती घर की घोषणा हुई, तो माला उसकी नायिका थी। एक गीत की रिकॉर्डिंग के सिलसिले में चिदम्बर प्रसाद लोहानी बम्बई आए और आते ही माला के घर गए। माला के पिता अलबर्ट सिन्हा ने उनका स्वागत किया। साथ ही पहली नजर में उन्हें प्रसाद इतने पसंद आ गए कि भविष्य में उन्हें दामाद बनाने का इरादा कर लिया।
माइती घर की शूटिंग चलती रही। प्रसाद रियल एक्टिंग कर रहे थे क्योंकि वह भी माला को पत्नी के रूप में पाने के लिए अपने अंदर बैचेनी महसूस करने लगे थे। बाद में पिता के कहने पर माला और प्रसाद ने शादी कर ली। फिल्मों में अभिनय जारी रखने की शर्त पर शादी तीन रीति-रिवाजों के जरिये पूरी हुई। लीगल सिविल मैरिज, क्रिश्चियन पद्धति से चर्च में शादी और नेपाली तौर-तरीकों से क्योंकि माला की मां नेपाली थीं। माला की बिटिया प्रतिभा सिन्हा है, जिसने कुछ फिल्मों में काम किया और बाद में गुमनामी के अंधेरों में खो गई।
माला कितनी ही बड़ी अभिनेत्री क्यों न बन गई थीं, मगर अपने पिता से हमेशा डरती थीं। घर आते ही सादगी से रहती थीं। उनकी मां उन्हें घरेलू लड़की ही मानती थीं, जो स्टार-स्टेटस घर के बाहर छोड़ आती थी। रसोईघर में जाकर खाना बनाना और फिर प्रेम से मेहमानों को खिलाना माला के शौक रहे हैं। माला सिन्हा इन दिनों मुम्बई में ही रहती हैं। अपनी बेटी की फिल्मों में असफलता ने उन्हें निराश कर दिया है। इसलिए किसी सभा-समारोह में नहीं आती-जातीं। ग्लैमर की रोशनी में नहाने के बाद गुमनामी में जीना बेहद तकलीफदायी होता है, लेकिन आप बंद गली के आखिरी मकान में रहते हैं, चाहते हुए भी कुछ नहीं कर सकते।