कहते हैं कि बरगद के पेड़ के नीचे पौधे पनप नहीं पाते, क्योंकि उन्हें जरूरी प्रकाश, हवा और फैलने के लिए जमीन नहीं मिल पाती। लेकिन इस बात को झुठलाती हैं गायिका आशा भोसले। लता मंगेशकर जैसी महान गायिका, जिनकी प्रशंसा के लिए शब्द भी कम पड़ जाते हैं, के साये से निकलकर आशा ने जिस तरह से अपनी पहचान बनाई है वो वास्तव में उन लोगों के लिए मिसाल है, जो अपनी कमतरी के लिए बरगद के पेड़ का बहाना बनाते हैं।
1943 से आशा ने अपना गायकी का सफर शुरू किया, जो अनवरत जारी है। इस सफर में उन्होंने करोड़ों लोगों पर अपना असर छोड़ा है। अपनी मधुर आवाज से उन्होंने टूटे दिलों पर मरहम लगाया है, रोते को हंसाया है, निराशा से घिरे को हिम्मत दी है, प्रेमियों को इजहार के लिए प्रेरित किया है, प्रेमियों ने मोहब्बत में डुबकी लगाई है, नाच न जानने वालों ने भी ठुमके लगाए हैं।
आशा ने हर तरह के इमोशन को अपनी आवाज दी है और अप्रत्यक्ष रूप से सभी को प्रभावित किया है। अपने लंबे सफर में उन्होंने यादगार गीतों की ऐसी झड़ी लगाई है कि जब चाहे आप इनमें भीग सकते हैं।
संघर्षपूर्ण बचपन
मास्टर दीनानाथ मंगेशकर का परिवार संगीत से ओत-प्रोत था। वे अभिनेता और शास्त्रीय गायक थे। इस परिवार में आशा ने 8 सितंबर 1933 को सांगली (महाराष्ट्र) में जन्म लिया। मंगेशकर परिवार पर तब दु:खों का पहाड़ टूट पड़ा, जब मास्टर दीनानाथ चल बसे। बच्चे छोटे थे। आशा की उम्र तब सिर्फ 9 बरस थी।
परिवार पुणे से कोल्हापुर होते हुए मुंबई आ गया। बड़ी बहन लता मंगेशकर ने अपने परिवार की खातिर कम उम्र में ही अभिनय और गायकी की शुरुआत कर दी। बड़ी बहन की मदद के लिए आशा भी आगे आ गईं। जितना मधुर ये गाना गाती हैं उतनी ही अंदर से ये मजबूत भी हैं। परिवार पर संकट देख ये घबराईं नहीं और संघर्ष की राह पर कम उम्र में कूद पड़ीं।
ईश्वर भी उनकी ही सहायता करता है, जो खुद अपनी सहायता करते हैं। आशा और लता को अवसर मिलने लगे। 10 वर्ष की उम्र में आशा ने मराठी फिल्म ‘माझा बाळ’ के लिए गाना गाया। दत्ता दावजेकर ने संगीत दिया था। आशा की गायकी से सभी प्रभावित हुए। 15 वर्ष की उम्र में आशा ने हिन्दी गाना गाया। फिल्म थी 'चुनरिया' (1948)। हंसराज बहल के संगीत निर्देशन में 'सावन आया' गीत उन्होंने गाया।
वैसे आशा का पहला सोलो गीत फिल्म 'रात की रानी' (1949) से है। इसी बीच आशा ने एक ऐसा निर्णय लिया जिससे मंगेशकर परिवार उनके खिलाफ हो गया। मात्र 16 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपने से उम्र में 15 वर्ष बड़े गणपत राव भोसले से विवाह कर लिया और आशा मंगेशकर से आशा भोसले बन गईं।
आसान नहीं था लता की परछाई से निकलना
शादी के बाद भी आशा ने गायकी जारी रखी। उन्हें काम तो मिलता रहा, लेकिन वो पहचान नहीं मिली जिसकी वे हकदार थीं। फिल्म संगीत के आकाश में गीता दत्त, शमशाद बेगम और आशा की बहन लता मंगेशकर की जगमगाहट थी। प्रकाश से भरपूर इन सितारों के बीच आशा एक छोटा टिमटिमाता सितारा थी जिसका प्रकाश छिप जाता था।
बड़े संगीतकार, बड़े बैनर सभी इन गायिकाओं से गाना गंवाते। व्यस्तता के कारण जो गाने ये प्रसिद्ध गायिका नहीं गा पाती थीं, वो गाने छिटककर आशा के पास आते। बी और सी ग्रेड की फिल्मों में आशा को गाना पड़ता था, लेकिन आशा को कोई खास शिकायत नहीं थी। वे अपने काम में मगन थीं।
अच्छी बात यह थी कि उस दौर में बी और सी ग्रेड फिल्मों में भी संगीत मधुर रहता था। इस श्रेणी की कई फिल्में तो महज गानों के कारण ही हिट हो जाती थीं। आशा तो चमकीला हीरा थीं। हीरा चाहे जूते पर लगा हो या मुकुट पर, वो तो हीरा ही रहता है। आशा नामक हीरे को जौहरी की तलाश थी। आशा को छुटपुट सफलताएं मिलती रहीं। दुर्भाग्य से उनके कुछ अच्छे गाने हिट नहीं हुए, लेकिन उन्होंने अपना संघर्ष जारी रखा। लता की परछाई से निकलना भी आसान बात नहीं थी। आखिरकार संघर्ष रंग लाया।
सीआईडी और नया दौर
1956 में रिलीज हुई 'सीआईडी' में आशा को बड़ा ब्रेक मिला जिसमें ओपी नैयर का संगीत था। इस फिल्म के लिए आशा ने मोहम्मद रफी और शमशाद बेगम के साथ 'लेके पहला-पहला प्यार' गीत गाया और बड़े संगीतकारों का ध्यान खींचा। बड़ी सफलता आशा को 1957 में रिलीज हुई 'नया दौर' से मिली।
इसके लिए आशा निर्देशक बीआर चोपड़ा को धन्यवाद देती हैं। इस फिल्म में रफी के साथ आशा ने 'मांग के साथ तुम्हारा', 'साथी हाथ बढ़ाना', 'उड़े जब-जब जुल्फें तेरी' तथा शमशाद बेगम के साथ 'रेशमी सलवार कुर्ता' गाया। सभी गाने सुपरहिट रहे और आज भी सुने जाते हैं। फिल्म भी हिट रही और आशा को वो पहचान मिली जिसकी उन्हें तलाश थी। इसमें संगीतकार ओपी नैयर का अहम हाथ था।
आशा और ओपी नैयर की जोड़ी बन गई और हिट गीतों का सिलसिला शुरू हो गया। सचिन देव बर्मन जैसे संगीतकार भी आशा से गंवाने लगे। आशा उन हीरोइनों को अपना स्वर देने लगीं जिनकी गिनती बॉलीवुड की टॉप हीरोइनों में होती थीं। कई हिट गीत उनके खाते में जमा हो गए। अचानक ओपी नैयर ने अपनी जोड़ी आशा से तोड़ ली। उनका कहना था कि वे एक ज्योतिष भी हैं और ये बात जानते थे कि आशा और उनका साथ टूट जाएगा।
ओपी के बाद आरडी
ओपी नैयर के अलावा जिस संगीतकार ने आशा भोसले के करियर को ऊंचाई दी, वो हैं सचिन देव बर्मन के बेटे राहुल देव बर्मन, जिन्हें 'आरडी बर्मन' के रूप में भी जाना जाता है। आरडी से बाद में आशा ने शादी भी की। आरडी बर्मन जब अपने पैर बॉलीवुड में जमाने में लगे हुए थे तब 'तीसरी मंजिल' नामक बड़ी फिल्म उनके हाथ लगी।
आरडी ने इस फिल्म में उस दौर में चल रहे संगीत से हटकर संगीत देने का फैसला किया। वे कई तरह के प्रयोग करने के मूड में थे और आशा की आवाज उन्हें पसंद आई। 'आजा-आजा' गीत उन्होंने आशा को ऑफर किया तो आशा ने इसे गाने से यह कहकर इंकार कर दिया कि वे ये गीत नहीं गा पाएंगी। बाद में उन्होंने इस चुनौती के रूप में लिया और फिर तो इतिहास बन गया।
इस गीत के अलावा ओ मेरे सोना रे, ओ हसीना जुल्फों वाली तथा देखिए साहिबां भी हिट हुए। इसके बाद राहुल देव बर्मन के संगीत में आशा ने कई यादगार गाने दिए। 'कैबरे सिंगर' की इमेज को भी तोड़ा। वैसे उनके गाए 'कैबरे सांग' बेहद हिट रहे और ज्यादातर हेलन पर फिल्माए गए। 70 और 80 के दशक में आशा का दबदबा रहा और कहने वाले कहते हैं कि यहां पर वे लता से भी आगे निकल गईं।
इन आंखों की मस्ती के
उमराव जान और इजाजत दो ऐसी फिल्में हैं जिनके बिना आशा के करियर की चर्चा अधूरी रह जाती है। खय्याम के संगीत निर्देशन में 'उमराव जान' के लिए आशा ने कमाल के गीत गाए। दिल चीज क्या है, इन आंखों की मस्ती, ये क्या जगह है दोस्तों और जुस्तजु जिसकी थी, फिल्म संगीत की अनमोल धरोहर हैं।
इसी तरह 1987 में रिलीज हुई 'इजाजत' फिल्म असफल रही, लेकिन संगीत सुपरहिट रहा। 'मेरा कुछ सामान', 'खाली हाथ शाम आई' और 'कतरा-कतरा मिलती है' में आशा की गायकी सुनने लायक है। इन गीतों के जरिए आशा ने बता दिया कि उन्हें अवसर मिले तो वे भी गायकी की उन ऊंचाइयों को छू लेती हैं, जहां पहुंचना हर किसी के बस की बात नहीं है। अपने लंबे करियर में कई वर्ष तक उन्हें दोयम दर्जे के गाने मिले।
किशोर कुमार का असर
किशोर कुमार को हरफनमौला गायक माना जाता है। वे प्रशिक्षण प्राप्त गायक नहीं थे लेकिन दिल से गाते थे। मौज-मस्ती उनकी गायकी में महसूस होती थी। कुछ इसी तरह की गायिका आशा भोसले को भी माना जा सकता है। ओपी नैयर के बाद आरडी का साथ मिला और आशा की गायकी और निखर गई।
भजन से लेकर कैबरे तक हर तरह के गीत उन्होंने गाए। किशोर की गायकी का प्रभाव आशा पर देखा जा सकता है। वे दिल खोलकर गाने लगीं। प्रयोग से कभी नहीं घबराईं। हर तरह के गाने उन्होंने गाए और आम लोगों की पसंद वे बनी रहीं। बॉलीवुड के तमाम नामी संगीतकारों और हीरोइनों के लिए उन्होंने गाया और सफर अभी भी जारी है।
आशा और लता
आशा और लता मंगेशकर भारत की दो महान गायिकाएं हैं। रिश्ते में बहन हैं। दोनों को लेकर कई किस्से प्रचलित हैं। उनकी तुलना होती है। उनकी प्रतिस्पर्धा को चटखारे लेकर सुनाया जाता है। जहां तक तुलना का सवाल है तो यह बात बेमानी है। गुलजार ने एक बार कहा था कि एक चांद है तो दूसरी सूरज। कैसे तुलना हो सकती है?
आशा के प्रशंसक लता से आशा को आगे बताते हैं। उनका कहना है कि जितनी वैरायटी आशा के गायन में हैं, वह लता के गायन में नहीं मिलती। आशा ने बहुत संघर्ष किया है। उन्हें वो अवसर नहीं मिले हैं, जो लता को मिले हैं। तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद आशा ने यह मंजिल हासिल की है। आशा ने जितने प्रयोग किए हैं, लता ने भी नहीं किए हैं। खैर, ये प्रशंसकों की अंधभक्ति हैं। संगीत प्रेमी तो दोनों बहनों के शुक्रगुजार हैं कि उन्होंने अपनी मधुर आवाज से मंत्र-मुग्ध किया है।
दोनों बहनों का स्वभाव एक-दूसरे के विपरीत हैं। लता अंतर्मुखी हैं। कम बातें करती हैं। अपने आपको उजागर नहीं करतीं जबकि आशा बहिर्मुखी हैं। 'लोग क्या कहेंगे' पर विचार नहीं करतीं। प्रयोग करने में नहीं हिचकिचातीं। आशा और लता के संबंध खट्टे-मीठे रहे हैं।
बचपन में लता ने बड़ी बहन का फर्ज अच्छे से निभाया। जब आशा ने 16 वर्ष की उम्र में शादी कर ली, तो लता नाराज हो गईं। दोनों के बीच लंबे समय तक अबोला रहा। शादी असफल रहीं तब जाकर लता पिघलीं। हालांकि दोनों के बीच हल्की-सी दरार आ गई।
लता इस बात से खुश हैं कि आशा ने उनकी छाया से निकलकर अपनी पहचान बनाई। दोनों को लेकर कई किस्से बनाए गए जिस पर ये दो महान गायिकाएं ठहाका लगाती हैं। 'साज' नामक फिल्म को दोनों बहनों के रिश्ते पर आधारित बताया गया था जिसे आशा ने 'बकवास' करार दिया था।
दोनों बहनों ने कई गीत साथ गाए। 1951 में रिलीज हुई 'दमन' में पहली बार उन्होंने साथ गाना गाया था। इसके अलावा मन भावन के घर आए (चोरी-चोरी- 1956), सखी री सुन बोले पपीहा उस पार (मिस मैरी- 1957), ओ चांद जहां वो जाए (शारदा- 1957), मेरे मेहबूब में क्या नहीं (मेरे मेहबूब- 1963), ए काश! किसी दीवाने को (आए दिन बहार के- 1966), जब से लागी तोसे नजरिया (शिकार- 1968), मैं हसीना नाजनीना कोई मुझसा नहीं (बाजी- 1968), मैं चली- मैं चली (पड़ोसन- 1968), मन क्यूं बहका (उत्सव, 1984) में दोनों ने साथ गाया।
आशा के दो विवाह
आशा भोसले ने दो विवाह रचाए। दुनियादारी की समझ 16 वर्ष की उम्र में आना मुश्किल है। इस उम्र में आशा ने 31 वर्षीय गणपतराव भोसले से परिवार के खिलाफ जाकर शादी कर ली। गृहस्थी का बोझ उठाना आशा के लिए मुश्किल हो गया। जब तक आशा कुछ समझ पाती तब तक 3 बच्चों की वे मां बन गईं। 1960 में आशा ने गणपतराव से अलग होने का निर्णय लिया तब गोद में उनके 2 बच्चे और तीसरा पेट में था।
गणपतराव से अलग होने के बाद भी आशा को अपने परिवार से समर्थन नहीं मिला। वे बेहद मुश्किल में आ गईं, लेकिन हिम्मत न हारते हुए उन्होंने संघर्ष जारी रखा। आशा का बड़ा बेटा हेमंत भोसले पायलट था। संगीतकार के रूप में भी हेमंत ने संक्षिप्त पारी खेली। बेटी वर्षा भोसले 'द संडे ऑर्ब्जवर' और 'रेडिफ' के लिए लिखती थीं। 8 अक्टूबर 2012 को वर्षा ने 56 वर्ष की उम्र में आत्महत्या कर ली। सबसे छोटे बेटे आनंद ने बिजनेस और फिल्म निर्देशन की पढ़ाई की है और आशा का करियर संभालता है। आशा के 5 ग्रैंडचिल्ड्रन हैं।
आशा ने दूसरी शादी संगीतकार राहुल देव बर्मन से की। वे बहुत अच्छे दोस्त थे और ज्यादा वक्त साथ बिताने के लिए उन्होंने विवाह रचा लिया। ये दो कलाकारों की शादी थी, जो आरडी की मृत्यु तक चली। उम्र के मामले में आशा से आरडी 6 वर्ष छोटे थे और तलाकशुदा भी। आरडी-आशा की जुगलबंदी ने कई बेहतरीन गीत श्रोताओं को दिए।
फिल्म संगीत के अलावा
फिल्मों के अलावा आशा ने प्राइवेट गाने भी गाए। गुलजार-आरडी-आशा का 1987 में रिलीज हुआ 'दिल पड़ोसी है' अद्भुत अलबम है। उस दौर में प्राइवेट अलबमों को इतना पसंद नहीं किया जाता था, लेकिन इस अलबम ने अच्छी सफलता हासिल की। 1997 में उन्होंने 'राहुल एंड आई' नामक एक अलबम निकाला, जो काफी चर्चित रहा। लेस्ले लेविस के साथ उन्होंने 'जानम समझा करो' नामक अलबम निकला।
इसी तरह आशा ने अपना संगीतबद्ध 'आप की आशा' नामक म्यूजिक और वीडियो अलबम भी निकाला जिसमें मजरुह सुल्तानपुरी के लिखे गीत थे। अदनान सामी के साथ उन्होंने 'कभी तो नजर मिलाओ' और 'बरसे बादल' नामक अलबम निकाले। गजल के भी कई अलबम आशा ने निकाले।
2006 में आशा का 'आशा एंड फ्रेंड्स' तथा 2014 में 'दिल लगाने को दिल जब' नामक एलबम भी रिलीज हुए। आशा के फैंस भारत के बाहर भी हैं। उनके लिए आशा ने समय-समय पर कांसर्ट किए। 2013 में रिलीज हुई 'माई' में आशा ने अभिनय भी किया। हिन्दी के अलावा उन्होंने कई भाषाओं में भी गीत गाए।
मान-सम्मान
आशा भोसले को कई मान-सम्मान हासिल हुए। यहां बात की जा रही है प्रमुख सम्मानों की-
राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार
* 1981 : दिल चीज क्या है (उमराव जान)
* 1986 : मेरा कुछ सामान (इजाजत)
फिल्मफेयर अवॉर्ड्स : सर्वश्रेष्ठ गायिका
* 1968 : गरीबों की सुनो (दस लाख)
* 1969 : परदे में रहने दो (शिकार)
* 1972 : पिया तू अब तो आजा (कारवां)
* 1973 : दम मारो दम (हरे रामा हरे कृष्णा)
* 1974 : होने लगी है रात (नैना)
* 1975 : चैन से हमको कभी (प्राण जाए पर वचन ना जाए)
* 1979 : ये मेरा दिल (डॉन)
स्पेशल अवॉर्ड : रंगीला (1996)
* 2001: फिल्मफेअर लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड
1979 के बाद आशा ने फिल्मफेयर वालों को कह दिया कि अब पुरस्कार के लिए उनके नाम पर विचार नहीं किया जाए और नई प्रतिभाओं को प्रोत्साहित किया जाए।