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आनंद (1971) : राजेश खन्ना की यह फिल्म मरने के पहले एक बार जरूर देखनी चाहिए

हमें फॉलो करें आनंद (1971) : राजेश खन्ना की यह फिल्म मरने के पहले एक बार जरूर देखनी चाहिए

समय ताम्रकर

, बुधवार, 28 दिसंबर 2022 (19:08 IST)
हर कलाकार चाहता है कि उसके जीवन में एक फिल्म ऐसी हो जो कालजयी हो। उस फिल्म का नाम वह गर्व से ले सके। उस फिल्म के लिए उसे बरसों याद किया जाए। सुपरस्टार राजेश खन्ना को अपने करियर के शुरुआती दौर में ही एक ऐसी फिल्म करने का मौका मिल गया था यूं तो राजेश खन्ना ने कई यादगार फिल्मों में काम किया है, लेकिन 'आनंद' ऐसी फिल्म है जो 50 साल होने के बाद भी ताजगी से भरी लगती है, जीवन को पहचानने और जीने का हुनर सिखाती है और 100 साल बाद भी इसकी यह ताजगी कायम रहेगी। 12 मार्च 2021 को फिल्म को रिलीज हुए 50 साल हो गए।  
 
आनंद को हृषिकेश मुकर्जी ने निर्देशित किया था। हृषिदा को मध्यममार्गी सिनेमा का श्रेष्ठ फिल्ममेकर माना गया है। वे कला और कमर्शियल मापदंडों के बीच रह कर अपना काम करते थे जिससे उनका काम ज्यादा लोगों तक पहुंचता था। उनकी फिल्मों में गाने और रोमांस तो रहते ही थे, लेकिन साथ में वे अपना 'स्ट्रांग मैसेज' देने में भी कामयाब रहते थे। 
 
आनंद में उन्होंने जीवन के मर्म को बेहद सूक्ष्मता के साथ पेश किया। कई लोगों का जीवन बहुत लंबा रहता है, लेकिन वे खुल के चंद मिनट भी नहीं जी पाते। वहीं कई लोग छोटे-से जीवन में कई रंग जी लेते हैं। बात छोटी-सी है और सभी को पता है, लेकिन इसके आधार पर ऋषि दा ने बेहद खूबसूरत 'आनंद' बनाई। आनंद कहता है- बाबू मोशाय, जिंदगी बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं। 
 
कहानी आनंद नामक युवा की है जिसकी जिंदगी में तब भूचाल आ जाता है जब उसे पता चलता है कि उसे कैंसर है और उसके पास कुछ महीने ही शेष हैं। आनंद इस बात से जल्दी उबर जाता है और फैसला लेता है कि जो भी समय उसके पास है वो उसका पूरा आनंद लेगा। वह लोगों की मदद करता है। जहां जाता है खुशियां बिखेरता है। जिंदादिली से ठहाके लगता है। उदास चेहरों पर मुस्कान लाता है। 
 
आनंद का यह रंग देख उसका इलाज कर रहा डॉक्टर भास्कर दंग रह जाता है। उसे यकीन नहीं होता कि लिम्फोसरकोमा से पीड़ित व्यक्ति ऐसी जिंदगी जी सकता है। वह आनंद को समझाता है कि उसे अस्पताल में भर्ती होकर इलाज करना चाहिए, लेकिन आनंद अस्पताल में भर्ती नहीं होता। वह तो जिससे मिलता है उसे दोस्त बनाकर आगे बढ़ता रहता है। भास्कर को आनंद कहता है कि उसे लोग जिंदादिल इंसान के रूप में याद करें ना कि कैंसर के मरीज के रूप में। 
 
आनंद फिल्म देखते समय आपके चेहरे पर मुस्कान और आंखों में आंसू रहते हैं। एक कैंसर मरीज के दर्द पर आप रोते हैं, उसकी जिंदादिली पर ठहाके लगाते हैं और जीवन के प्रति उसकी सोच पर कायल होते हैं। ये सारे इमोशन्स फिल्म देखते समय एक-साथ चलते हैं और दर्शक ऐसी फिलिंग्स से गुजरता है जिसे शब्दों में वर्णन करना कठिन हो जाता है। 
 
आनंद के किरदार को आप पहली बार देखते ही पसंद करने लगते हैं। उसके साथ जुड़ जाते हैं। उसके दु:ख-दर्द आपको अपने लगते हैं। भास्कर की चिंता भी आपको सही लगती है। फिल्म देखते समय लगता है कि कोई चमत्कार हो जाए, आनंद बच जाए, लेकिन फिल्म के लेखक और निर्देशक इस पर कोई समझौता नहीं करते। 
 
फिल्म में एक के बाद एक करके बेहतरीन सीन आते जाते हैं। कई सीन तो इतने लाजवाब हैं कि आप कितनी ही बार देखो, मन नहीं भरता। आनंद की मौत वाला सीन अद्‍भुत है। आनंद मर चुका है। डॉक्टर भास्कर उसके पास खड़ा है। अचानक आवाज आती है- बाबू मोशाय... जिंदगी और मौत ऊपर वाले के हाथ है जहापनाह, उसे ना तो आप बदल सकते हैं ना मैं, हम सब तो रंगमंच की कठपु‍तलियां हैं, जिनकी डोर ऊपर वाले की उंगलियों में बंधी है कब, कौन, कैसे उठेगा ये कोई नहीं बता सकता है। आनंद अपनी मौत से पहले आवाज रिकॉर्ड कर गया है और वो उसकी मौत के बाद सुनाई देती है। इसी तरह वह बहन को आशीर्वाद देते हुए कहता है- बहन तुझे मैं क्या दूं, यह भी नहीं कह सकता कि मेरी उम्र तुझे लग जाए। 
 
इस फिल्म में बॉलीवुड के दो सुपरस्टार्स ने साथ काम किया था- राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन। तब राजेश खन्ना अपने करियर के स्वर्णिम दौर से गुजर रहे थे। अमिताभ बच्चन अपनी जगह बनाने में लगे हुए थे। दोनों की केमिस्ट्री बेहतरीन थी। राजेश खन्ना का किरदार तो था ही अद्‍भुत, लेकिन अमिताभ बच्चन ने भी अपने किरदार में जान फूंक दी थी। 
 
राजेश खन्ना ने अपने किरदार को इस तरह जिया मानो उनका जन्म आनंद करने के लिए ही हुआ हो। उनकी एक्टिंग एकदम नेचुरल है। किसी भी शॉट में नहीं लगता कि वे एक्टिंग कर रहे हैं। ऐसा महसूस होता है कि हम राजेश खन्ना नहीं, बल्कि आनंद को देख रहे हैं। कहां हंसाना है, कहां रुलाना है, सब उन्हें मालूम था। फिल्म देखने के बाद आनंद का किरदार दर्शकों का पीछा नहीं छोड़ता। 
 
निर्देशक के रूप में हृषिकेश मुकर्जी की जितनी तारीफ की जाए वह कम है। फिल्म की हर चीज परफेक्ट लगती है। इमोशन की रोलर-कोस्टर राइड है यह मूवी। अभिनय, संपादन, संगीत, संवाद, सब पर ऋषिदा का नियंत्रण है। वे दर्शकों को भावनाओं के तूफान में बहा ले जाते हैं। 
 
सलिल चौधरी की धुनें आज भी यादगार है। कहीं दूर जब (मुकेश), मैंने तेरे लिए (मुकेश), जिंदगी कैसी है पहेली (मन्ना डे), ना जिया लागे ना (लता) एक से बढ़कर एक मोती की तरह हैं। इनमें से कुछ गाने योगेश और कुछ गुलजार ने लिखे हैं। गानें गहरे अर्थ लिए हुए हैं जिनमें गायकों और संगीतकार ने जान फूंक दी है। आज भी ये गीत सुने जाते हैं। 
 
उस समय तक राजेश खन्ना के लिए किशोर कुमार गाने गाते थे, लेकिन सलिल चौधरी ने राजेश के लिए मुकेश और मन्ना डे के स्वर लिए। उनका मानना था कि इससे आनंद के किरदार को गहराई मिलेगी और राजेश खन्ना इस बात को मान गए थे। राजेश खन्ना ने बताया था कि इस फिल्म के सभी गीत उन्हें पसंद है, लेकिन उनका पसंदीदा पूछा जाए तो 'कहीं दूर जब दिन ढल जाए' उन्हें विशेष रूप से पसंद है। 
 
यह फिल्म 12 मार्च 1971 को रिलीज हुई और हिट भी रही। 1971 के बॉक्स ऑफिस कलेक्शन की बात की जाए तो यह फिल्म तीसरे नंबर पर रही। अवॉर्ड्स भी खूब मिले। 1971 का हिंदी का बेस्ट फीचर फिल्म का अवॉर्ड आनंद को मिला। फिल्मफेअर अवॉड्र्स की बात की जाए तो सर्वश्रेष्ठ फिल्म, सर्वश्रेष्ठ अभिनेता (राजेश खन्ना), सर्वश्रेष्ठ सहकलाकार (अमिताभ बच्चन), सर्वश्रेष्ठ संवाद (गुलजार), सर्वश्रेष्ठ संपादन (हृषिकेश मुकर्जी) और सर्वश्रेष्ठ कहानी (हृषिकेश मुकर्जी) का पुरस्कार आनंद के लिए मिले। 
 
कई फिल्म पत्रकारों ने ऐसी फिल्मों की सूची बनाई है जो मरने के पहले देखी जानी चाहिए, जिसमें अधिकांश ने आनंद का नाम भी लिया है। निश्चित रूप से मरने के पहले आनंद जरूर देखी जानी चाहिए। 
 
आनंद के बारे में कुछ अलग से 
आनंद फिल्म को बनाने की योजना ऋषिकेश मुकर्जी के दिमाग में बरसों से थी। कहानी उनके अंदर धीरे-धीरे पक कर बेहतरीन बन चुकी थी। वे राज कपूर के साथ इस फिल्म को बनाना चाहते थे, लेकिन राज कपूर अपनी फिल्मों में इस कदर व्यस्त थे कि वे ऋषिदा को समय नहीं दे पा रहे थे। आखिर में जब राज कपूर तैयार हुए तो उन्हें महसूस हुआ कि हीरो बनने की उनकी उम्र निकल चुकी है इसलिए ऋषिदा को उन्होंने किसी अन्य हीरो के साथ फिल्म बनाने के लिए कहा। 
 
ऋषि दा ने तब आनंद के रोल के लिए किशोर कुमार और भास्कर के रोल के लिए महमूद को लेने का फैसला किया। वे किशोर कुमार के बंगले पर कहानी सुनाने के लिए पहुंचे तो वहां के गार्ड ने ऋषिदा का अपमान कर गेट से ही लौटा दिया। इस घटना से ऋषिदा आहत हुए और किशोर कुमार को लेने का इरादा त्याग दिया। महमूद की भी छुट्टी हो गई। 
 
धर्मेन्द्र से ऋषिदा ने बात की, लेकिन न जाने क्यूं धर्मेन्द्र की बजाय राजेश खन्ना को चुन लिया। इस बात से धर्मेन्द्र बेहद नाराज हुए और ऋषिदा को उन्होंने फोन कर खूब तंग भी किया। कहते हैं कि ऋषिदा ने इस फिल्म को मात्र 28 दिनों में शूट कर लिया था। 
 
अमिताभ बच्चन ने ट्विटर पर एक बार इस फिल्म को लेकर मजेदार घटना बताई थी। उनके मुताबिक आनंद के रिलीज होने के पहले तक लोग उन्हें पहचानते नहीं थे। वे आनंद के रिलीज वाले दिन सुबह कार में पेट्रोल डलवाने पेट्रोल पंप पहुंचे, लेकिन किसी ने नहीं पहचाना। फिल्म रिलीज हुई तो शाम तक उनके भी चर्चे होने लगे। वे शाम को उसी पेट्रोल पंप पर पहुंचे तो लोग पहचानने लगे। 

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