'डार्लिंग्स' चुनने का सबसे बड़ा कारण यह था कि मुझे इसकी स्क्रिप्ट बहुत अच्छी लगी। यह इतनी ज्यादा मजेदार कैरेक्टर थी कि मैं अपने आप को रोक नहीं पाई। अमूमन होता यह है कि लोग मुझे देखते हैं और मैं जिस तरीके की किरदार निभाती आई हूं। उसे देखकर लोगों को लगता है कि मैं हमेशा संजीदा किस्म के रोल ही कर सकती हो और वैसे ही मुझे रोल दिए भी जाते हैं।
लोगों को तो यह भी लगता है कि मैं असल जिंदगी में भी उतनी ही संजीदा हूं। लेकिन शमशु का जो कैरेक्टर है ऐसा रोल मुझे आज तक किसी ने नहीं दिया। मैंने अपनी जिंदगी में कभी इस तरीके की महिला का किरदार निभाया ही नहीं। मुझे इतना अच्छा लगा। यह रोल की कितनी अतरंगी किस्म का है यह? और जब यह फिल्म मुझे ऑफर की गई, मैंने झट से हां बोल दिया। यह कहना है शेफाली शाह का जो फिल्म 'डार्लिंग्स' में आलिया भट्ट की मां के रूप में नजर आने वाली है। यह फिल्म नेटफ्लिक्स पर 5 अगस्त को रिलीज की जाने वाली है।
दिल्ली क्राइम की वर्तिका और डार्लिंग्स की शमसु दोनों मां हैं। दोनों में कितना अंतर पाती हैं।
मैं तो इन दोनों की तुलना भी नहीं कर सकती हूं बहुत अलग है। अगर दिल्ली क्राइम में वर्तिका की बात करें तो वह बहुत समझदार है और अपने बच्ची को प्यार करती है। वह बहुत सोच समझकर चलती है। क्या सही है क्या गलत है कैसे सही रास्ते पर चलते रहना है और साथ ही साथ वह पॉलिटिकली सही बातें करती है। जबकि शमसु का इन सब से कोई लेना देना नहीं है उसे जो उस समय के लिए सही लगता है, वह करते जाती है।
दोनों मां में समानता इतनी है कि यह दोनों अपने बच्चों को सुरक्षा देने के लिए या सुरक्षित रखने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। लेकिन यहां पर भी एक असमानता आ जाती है कि वर्तिका सही गलत का ध्यान रखते हुए उस लकीर पर चलते हुए अपने बच्चे को बचाएगी जबकि शमसु को किसी की इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उसे लग रहा है मेरा बच्चा असुरक्षित है तो उसको बचाने के लिए जिस जिस रास्ते से गुजर ना पड़े, जिस गली का सामना करना पड़े वह सामना करेगी और अपने बच्चे को बचाने पर तुल जाएगी। दोनों मां हैं लेकिन दोनों को जिंदगी का देखने का जो नजरिया है, वह अलग है और यही वजह है कि यह दो माय मां होते हुए भी अलग अलग नजर आने वाली हैं।
आपको लगता है इन दिनों में महिला केंद्रित फिल्में ज्यादा आती हैं।
लोगों का फिल्में बनाने का तरीका अलग हो गया है। एक समय हुआ करता था जब पुरुष प्रधान फिल्में बनती थी। सारा ध्यान पुरुषों पर केंद्रित हुआ करता था क्योंकि सोच भी वैसी थी। लेकिन अब धीरे-धीरे बहुत कुछ बदल रहा है। नई तरीके की फिल्म बन रही है और मुझे बहुत खुशी है कि इस तरह की फिल्में बन रही है। अब सोचिए ना शकुंतला देवी है या परिणीता है या फिर तुम्हारी सुलू है कितनी अच्छी फिल्में?
हां, मैं यह बात मैं अभी यहीं जरूर स्वीकार कर लेती हूं कि यह तीनों ही फिल्मों का जब मैं नाम लेती हूं तो आपके सामने बता रही हूं कि मैं विद्या बालन की कितनी बड़ी वाली फैन हूं, लेकिन फिर भी इन फिल्मों में देखिए महिलाओं के रूप को दिखाया गया है और कितने अच्छे से दिखाई गया है। एक समय वह भी था जब आर्ट फिल्म बनती थी या कमर्शियल फिल्में होती थी। जिसमें की हीरो हीरोइन नाच गाना सब कुछ हुआ करता था विलेन हुआ करता था।
आर्ट फिल्में होती थी जिसमें महिलाओं के बारे में बात की जाती थी या उन पर केंद्रित कहानियां होती थी, लेकिन इनमें महिलाओं की बहुत ज्यादा भागीदारी मुझे नजर नहीं आती थी। इस बात को लेकर खुश हूं कि नए तरीके से महिलाओं पर केंद्रित फिल्में अब आ रहे हैं और लोगों को पसंद आ रही हैं।
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए शेफाली ने एक नई बात को भी छेड़ा महिलाओं के सुंदर से रोल और सशक्त रोल सामने आने की एक बहुत बड़ी वजह ओटीटी भी रही है। मेरे लिए तो बहुत बड़ी बात है और ओटीटी ने मेरे पूरे जीवन को हिला डाला नए तरीके से सजा डाला है। मैं जिसने कि एक समय में अक्षय कुमार की उम्र से कई साल छोटी उम्र होने के बावजूद भी उसकी मां का रोल निभाया था। मैं अपनी जिंदगी में कभी नहीं सोच सकती थी कि अपने 40 के दशक में, मेन लीड निभा रही होंऊंगी। अब दिल्ली क्राइम की ही बात कर लीजिए। कितना अंतर आ गया है उस समय में।
यह महिलाओं वाली फिल्म की तब हुआ करती थी जब आप एक बहुत बड़ी हीरोइन हो, लेकिन मेरे जैसे शख्स के लिए मेन लीड में आना किसी सपने से कम है क्या?
दिल्ली क्राइम की की बात बताइए जब एमी अवॉर्ड मिला था तब कैसा महसूस कर रही थी। अरे मेरी तो पूरी रिएक्शन ही वायरल हो गई थी। जब अवॉर्ड फंक्शन चल रहा था तो मैं विपुल और मेरा बेटा मौर्य हम साथ में बैठे हुए थे। मेरा बड़ा बेटा शायद कहीं बाहर गया था और जैसे ही एमी इस वेब सीरीज के लिए घोषित किया गया मेरे पति और मेरा बच्चा मुझे गले लगाने के लिए पीछे मुड़े और मैं अपनी जगह पर थी ही नहीं क्योंकि मैं उछल रही थी। मैं इतनी इतनी इतनी चिल्लाई और इतनी पागल हो जैसे खुश हो रही थी जैसे सब कुछ भूल गई।
टेलीविजन की दुनिया में बनेगी अपनी बात और हसरते जैसे सीरियल भी आपने किए हैं जिसमें आप के रोल बहुत संजीदगी के साथ लिखे गए हैं। आजकल के सीरियल को देखकर आप क्या कहती हैं?
मैं आजकल के सीरियल देखना छोड़ चुकी हूं। बहुत समय हो गया। मैंने देखा नहीं चले, टेलिविजन में क्या चलता है। मुझे ऐसा लगता है कि मैं इस तरीके के सीरियल के लिए बनी ही नहीं हूं। जब हसरतें या बनेगी अपनी बात जैसे सीरियल बनते थे तो मुझे मालूम था कि शुरुआत क्या है, कहानी आगे कैसे बढ़ेगी और रोल का अंत कैसे होने वाला है या सीरियल का अंत कैसे होने वाला है? एक खाका तैयार हुआ करता था, लेकिन अब देखो तो कोई कुछ भी बन कर आ जाता है।
उन्होंने कहा, सीरियल शुरू तो हो जाता है फिर देखा जाता है कि अच्छा इस भाग में टीआरपी मिल रही है तो क्यों ना ऐसा किया जाए कि एक का जन्म करा दिया जाए या एक को मार डाला जाए सीरियल में। सुबह किस सीन से शुरू करने वाले हैं और रात तक वह कैसे खींचता चला जाएगा मालूम ही नहीं पड़ता। मुझे नहीं लगता कि मैं ऐसे रोल या सीरियल कभी करना भी चाहूंगी। मुझे शुरुआत मध्य और अंत अपने रोल का मालूम होना चाहिए। इसलिए मैंने आज कल की सीरियल देखना छोड़ ही दिया है और मैं कभी भी टेलीविजन के सीरियल की दुनिया में नहीं लौटने वाली हूं।