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रेप का कोई न्याय नहीं हो सकता : राकेश ओमप्रकाश मेहरा

हमें फॉलो करें रेप का कोई न्याय नहीं हो सकता : राकेश ओमप्रकाश मेहरा

रूना आशीष

'मुझे नहीं लगता कि मैं कोई निराशाभरी बात कर रहा हूं लेकिन सच ये है कि अब हमारी पीढ़ी का तो कुछ नहीं हो सकता है। हम कितना ही टीवी चैनल पर बहस कर लें या चिल्लाकर कह दें कि रेप गलत बात है। इसका कुछ नहीं हो सकता। जब तक हम हमारे घर की लड़कियों को कहेंगे कि रात को 8 बजे तक लौट आना और बेटे को कहेंगे कि सुबह 4 बजे तक आ जाना तब तक हम लोगों का कुछ नहीं होगा। तो फिर किसे बोलें जिसकी वजह से शायद कोई तब्दीली आए तो मुझे लगा कि वो बच्चे ही होंगे, क्योंकि जो आज 10 साल के हैं, वो 10 साल बाद 20 और 15 साल वाला बच्चा 25 साल का हो जाएगा। तो क्यों न फिल्म मैं इन बच्चों के लिए बना दूं ताकि आगे चलकर उन्हें ये मालूम हो कि रेप गलत ही बात है। और अगर लड़का देर रात पार्टी जा सकता है तो लड़की भी जा सकती है। अगर लड़की घर बैठी है तो लड़का भी घर बैठे।'

'रंग दे बसंती' और 'भाग मिल्खा भाग' जैसी फिल्में बनाने वाले राकेश ओमप्रकाश मेहरा अब 'मेरे प्यारे प्राइम मिनिस्टर' के साथ लोगों के सामने आ रहे हैं। 'वेबदुनिया' संवाददाता रूना आशीष से बात करते समय मेहरा का कहना था कि बात तो अमीरी-गरीबी के अंतर की भी है। जब मैं इस फिल्म का क्लाईमैक्स लिख रहा था तो झुग्गी (जिसे हमने फिल्म में गांधी नगर दिखाया है) से अपनी फिल्म के दोनों बच्चों को बैठाकर बात की। वहीं से हीरानंदानी (मुंबई का पवई इलाका, जो पॉश कहलाता है) की इमारतें दिखाईं और पूछा कि एक बिल्डिंग 50 माले की मान लो तो एक माले पर कितने घर होंगे?

हिसाब-किताब लगाया और बोली कम से कम 10 खोलियां होंगी। मैंने कहा कि हर खोली के लिए या एक 2 बीएचके (बेडरूम-हॉल-किचन) के लिए 2 बाथरूम यानी एक माले पर कम से कम 20 बाथरूम और ऐसे 50 माले तो सोचो कितने बाथरूम?

अब पीछे मुड़कर हमारे गांधीनगर को देखो, जहां लाखों लोग हैं लेकिन एक ढंग का बाथरूम नहीं है। इस पर दोनों बच्चे बोले और मुंबई में ऐसे 50 माले की लाखों बिल्डिंगें हैं। जब दोनों को अमीरी-गरीबी और झुग्गी-बिल्डिंग का अंतर समझ में आया तो दोनों हंस दिए और ये ही मेरा क्लाईमैक्स बन गया।
 
ये तो रेप जैसे जघन्य अपराध पर बनी फिल्म है, जो न्याय की बात करती है?
मैं अपनी फिल्म को उस रास्ते पर नहीं लेकर जा रहा हूं। मैं बात ही नहीं करना चाहता कि फिल्म में रेप का कोई जस्टिस हो या कोई न्याय हो। एक बच्चा है, जो प्रधानमंत्री और कई सारे लोगों से सवाल कर रहा है कि मेरी मां होली के दिन बाहर गईं, जैसे सब महिलाएं जाती हैं लेकिन उसके साथ बहुत 'गंदी बात' हुई। ये बात अगर आपकी मां के साथ हो तो आपको कैसा लगेगा? रेप का कोई न्याय नहीं हो सकता।

जिसके साथ ये हुआ हो उसके अपराधी को सजा देने के साथ हम समझ लेते हैं कि चलो उस महिला को न्याय मिल गया। लेकिन ऐसा कोई न्याय नहीं है, जो उस महिला के दर्द को कम कर सके। अगर उसे न्याय देना है तो हमें रेप जैसी बात को ही खत्म करना होगा। जैसे हमने सती प्रथा या बाल विवाह या देवदासी प्रथा खत्म की, अब उसी तरह रेप को भी खत्म करना ही होगा।
 
फिर फिल्म रेप पर आधारित है या शौचालय पर?
दोनों आपस में जुड़ी बातें हैं। मैं एक बार ऐसे ही रिसर्च कर रहा था। तब गूगल पर मुझे यूनिसेफ पर एक चौंकाने वाला आंकड़ा मिला। हमारे देश में जितने वाले भी रेप केस होते हैं, उनमें से 50% केस उन महिलाओं पर होते हैं, जो शौच के लिए खुले में बाहर जाती हैं। दु:ख की बात ये है कि हमारे देश में आज भी 300 मिलियन यानी 30 करोड़ महिलाएं अभी भी खुले में शौच के लिए जाती हैं यानी वे सुरक्षित नहीं है। सरकार को स्वास्थ्य और सुरक्षा की दृष्टि से बात बताने की कोशिश है।
 
आप मंडल कमीशन से भी जुड़े रहे हैं, थोड़ा उस बारे में बताएं?
साहिल का शे'र है-
बहुत दिनों से मशक़ला है सियासत का/
जब जवां हो बच्चे तो क़तल हो जाएं।
मंडल कमीशन जब शुरू हुआ था, तब मैं मुंबई में रहता था और मेरे एक दोस्त राजीव के छोटे भाई ने मुझे फोन करके दिल्ली बुलाया था। मैं ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस (एम्स) के हॉल में बैठा था। गाने भी गाए, विरोध भी किया और बाकी के लोगों के घर वालों की तरफ से रात को परांठे और खाना भी आने लगा और फिर 2-3 दिन बाद मैं वहां से मुंबई लौट गया। बाद में जब मैं फिर दिल्ली गया तो वहां न्यूज ट्रैक वीडियो मैगजीन के दृश्य देखे। यकीन मानिए ये सिर्फ आधे दृश्य थे, जो दिखाए जा सके। वर्ना मैं दिल्ली वाला हूं और कह सकता हूं कि दिल्ली पुलिस ने इससे कहीं ज्यादा किया था। पहली बार हमने दिल्ली पुलिस को लड़कियों को थप्पड़ मारते देखा था।

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