इस बात पर यकीन करना मुश्किल होगा कि परदे पर चुलबुली किरदार निभाने वाली श्रीदेवी निजी जीवन में अंतर्मुखी और चुपचाप बैठे रहने वाली लड़की थी। जैसे ही सेट पर लाइट्स ऑन की जाती, कैमरा रोल किया जाता और निर्देशक की 'एक्शन' आवाज गूंजती वैसे ही श्रीदेवी का रूप ही बदल जाता। कैमरे के सामने जाते ही वे शरारती हो जातीं। उनकी आंखें चमकने लगती थी। उनके शरीर का हर अंग रंग में आ जाता था। सेट पर एक करंट दौड़ने लगता था। बिजलियां कौंधने लगती थीं।
कैमरे के सामने वे सब कुछ भूल कर किरदार की आत्मा में प्रवेश कर जाती थीं। जैसे ही शॉट पूरा होता। डायरेक्टर कट बोलता। लाइट्स बंद कर दी जाती। वैसे ही श्रीदेवी भी एकदम निढाल होकर वापस अपनी कुर्सी पर बैठ जातीं और कुर्सी पर जिस शख्स को छोड़ कर आई थी उस शख्सियत को फिर ओढ़ लेती।
यह अनुभव उनके साथ काम करने वाले तमाम निर्देशकों, सह कलाकारों और तकनीशियनों को था। सेट पर वे किसी से भी बात नहीं करती थीं। कोई उनका दोस्त नहीं होता था सिवाय कैमरे के। वे कैमरे को प्रभावित करने के लिए ही यह सब करती थीं। कैमरा भी खूब दोस्ती निभाता था। उनके सौंदर्य की बारीक से बारीक बातों को पकड़ता था। लाइट्स श्रीदेवी पर पड़ कर और रोशन हो जाती थीं।
कैमरे और लाइट्स से दोस्ती होने का सबसे बड़ा कारण यह भी रहा कि श्रीदेवी ने बचपन से ही अभिनय करना शुरू कर दिया था। चार साल की उम्र में बच्चे स्कूल जाते हैं, लेकिन श्रीदेवी ने स्टूडियो में कदम रखा। बड़े-बड़े लोगों के बीच उन्हें कैमरा ही अपना दोस्त लगा जो हमेशा टिक-टिकी लगाए श्रीदेवी को देखता रहता था।
कैमरे और श्रीदेवी की यह दोस्ती सालों साल चलती रही। 54 साल श्रीदेवी की उम्र थी, जिसमें से वे 50 साल वे काम करती रही। कैमरे को छोड़ कर श्रीदेवी ने शायद ही किसी और के साथ इतना समय बिताया हो।
कैमरे और श्रीदेवी की इस दोस्ती का फायदा करोड़ों लोगों को मिला। निर्माता, स्टूडियो और सिनेमाघर मालिकों ने पैसा कमाया। निर्देशकों ने सफलताएं रचीं। करोड़ों लोगों को मनोरंजन हासिल हुआ। श्रीदेवी आम आदमी की हीरोइन थी। दिन भर जी-तोड़ परिश्रम करने वाला आदमी शाम को ऐसी फिल्म देखना चाहता है जिसमें एक दमदार हीरो हो जो विलेन को सबक सीखा सके। कुछ ऐसे लोकेशन हो जहां आम आदमी सिर्फ फिल्मों के जरिये ही जा पाता हो। एक ऐसी हीरोइन हो जो उस आम आदमी के सपने में आए। श्रीदेवी ऐसी ही हीरोइन थीं। फिल्म के पर्दे से उतर कर उन्होंने उस आदमी के सपनों को भी रोशन किया है।
श्रीदेवी की बड़ी-बड़ी आंखें बहुत कुछ बोलती थीं। फिल्म नगीना में श्रीदेवी की इन आंखों से लपटें निकलती हुई नजर आती थीं। सदमा में इन आंखों में मासूमियत नजर आती थीं। हिम्मतवाला में इन आंखों में घमंड दिखाई देता था। चालबाज में सीधापन और तर्रारपना दिखाई देता था। चांदनी में प्यार बरसता था। 'काटे नहीं कटते ये दिन रात' में आंखें मादक हो जाती थी। जब यह आंखें डबडबाती थी दर्शक भी रोने लगते थे। अपनी इन आंखों का अभिनय में भरपूर इस्तेमाल श्रीदेवी ने किया। ये आंखें बहुत कुछ बोल जाती थी। श्रीदेवी यह सब कैमरे के लिए करती थी और कैमरे के जरिये बात दर्शकों के दिल में उतर जाती थी।
बॉलीवुड में 'हीरो' का दबदबा है। पुरुष प्रधान इंडस्ट्री है, लेकिन इन सबके बीच श्रीदेवी भी 'सुपरस्टार' बनी। उनके नाम से भी फिल्म के टिकट बिकते थे। जब वे ऊंचाइयों पर थीं तो छोटे-मोटे रोल करना पसंद नहीं करती थी। अमिताभ बच्चन जैसे सुपरसितारे के साथ उन्होंने यह कह कर कुछ फिल्में ठुकरा दी थीं कि उनकी फिल्मों में हीरोइनों के लिए कुछ करने को नहीं होता। 'खुदा गवाह' तभी साइन की जब उन्हें लगा कि रोल दमदार है। छुईमुई सी नजर आने वाली श्रीदेवी का यह रूप तब सभी को चौंका गया था।
चार की उम्र से कैमरे से दोस्ताना का यह सफर 54 की उम्र तक चलता रहा। हाल ही में मॉम में नजर आई थी। कैमरा जो श्रीदेवी को हमेशा से खूबसूरत दिखाते आया था, नहीं चाहता था कि उम्र के पंजे के निशान वह देखे और उसके जरिये लोगों को दिखाए। शायद इसीलिए, अचानक, यह दोस्ती तोड़ दी गई ताकि श्रीदेवी लोगों की यादों में हमेशा खूबसूरत और जवां दिखे।