मन्ना दा : एक वैष्णवी वैरागी स्वर

सुशोभित सक्तावत
सन् 53 की भूली-बिसरी फिल्म "हमदर्द" में अनिल बिस्वास के संगीत से सजा एक दोगाना था : "पी बिना सूना री, पतझड़ जैसा जीवन मेरा", लता मंगेशकर और मन्ना डे ने इसे गाया था। गीत दो भागों में था। उदासी में डूबा गीत का पूर्वार्द्ध "राग जोगिया" में निबद्ध था, तो खुशियों से चहचहाता उत्तरार्द्ध "राग बसंत" में। जब लता विद्युल्लता की-सी त्वरा से राग बसंत वाला टुकड़ा गाती हैं, तो लगता है अनवरत मधुऋतु है और दुनिया फूलों के गलीचे पर बहार की तरह करवट बदल रही है, लेकिन जब मन्‍ना डे कांसे के खिंचे तारों की-सी कसावट के साथ राग जोगिया वाला टुकड़ा गाते हैं तो सहसा लगने लगता है, नहीं, सब तरफ विषाद ही विषाद पसरा है, पूस के पाले की तरह दिल में एक कचोट जमी हुई है और एक उचाटपन है, गोया, बकौल फ़िराक, "ज़िंदगी उचटी हुई नींद है दीवाने की!"
 
जाने कितने चांद बीते, जब उस गीत को पहले-पहल सुना था। तबसे हमेशा यही सोचा है कि हिंदी सिनेमा के जलसाघर में लता "राग बसंत" की तरह हैं और मन्ना "राग जोगिया" की तरह! लता में राग कभी नहीं चुकता, मन्ना में विराग की थाह नहीं है।  हेमंत कुमार को अगर छोड़ दें तो हमारे सिने-संगीत में ऐसा कोई दूसरा स्वर नहीं आया, जिसमें मन्ना सरीखा वैराग गहरे-अंतर तक पैठा हुआ हो। यह अकारण नहीं है कि मन्ना और हेमंत दोनों ही बांग्ला पृष्ठभूमि से वास्ता रखते हैं। रवींद्र संगीत और वैष्णवी बाउलों के गीतों में आत्मोत्सर्ग का "आकुल अंतर" एक अनिवार्य भावरूप की तरह हमेशा से उपस्थित रहा है (शायद यही कारण था कि सन् 55 की फिल्म "देवदास" में मन्ना डे ने दो बाउल वैष्णवी गीत दुर्लभ तन्मयता के साथ गाए हैं)। यह भारतीय दर्शन की उस निर्वेद परंपरा के भी अनुरूप है, जिसमें एक तरफ संतों का "निर्गुण" का विचार है तो दूसरी तरफ बौद्ध दर्शन का "शून्यवाद" है, जो लक्ष्य करता है कि सृष्टि मूलत: शोकस्वरूप है और सुख उसका आकस्मिक मध्य है। अस्तु, अनित्य ही जिसका ईष्ट हो, वैसा है मन्ना का स्वर, जो हमें निरंतर ख़र्च होती जिंदगी के प्रति रंजीदा होने का शऊर सिखाता है!
 
और तब याद आता है फिल्म "चोरी-चोरी" का वह बेजोड़ प्रणय-गीत : "ये रात भीगी-भीगी, ये मस्त फिजाएं", जिसके अंतरे में पंक्तियां हैं : "इठलाती हवा, नीलम-सा गगन, कलियों पे ये बेहोशी की नमी/ऐसे में भी क्यों बेचैन है दिल, जीवन में न जाने क्या है कमी" यह एक अपूर्व भाव-प्रसंग है, जिसमें प्रेमी और प्रेमिका रागात्मकता के गहन ऐंद्रिक क्षण में हठात उदास हो गए हैं और जिंदगानी के अधूरेपन पर सोग से भर उठे हैं।  
 
गीत को शैलेंद्र ने लिखा है (स्मरण रहे : "मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी/भेद ये गहरा बात जरा-सी" सरीखी गीत-पंक्ति लिखने वाले शैलेंद्र का कृतित्व भी मन्ना डे की ही तरह एक अनंत विराग से सदैव आविष्ट रहा है!), लेकिन ये मन्ना डे ही हैं, जो इस गीत को अपूर्व त्वरा से गाकर विलक्षण बना देते हैं. जी हां, (नई नस्ल के कमनसीब नौजवानो, सनद रहे), प्रणय में विषाद भी होता है और विषाद में भी प्रबोध होता है : एक बोधमय आलोक। 
 
सोचता हूं आवाज़ें महज आवाज़ें नहीं होतीं. वे एक परदा भी होती हैं। अकसर आवाजों को सुनने से भी ज़रूरी होता है, उनके पीछे झांककर देखना। मन्ना की आवाज़ के पीछे अगर झांककर देखें, तो जलते हुए पहाड़ नजर आते हैं, चैत की बांक पर मुड़ती नदियां दीखती हैं, जो अब सूख रहीं, और झुलसे बगीचों में मंडलाती तितलियां नजर आती हैं, जिनके पंखों का नमक जाता रहा!
 
और तब, हमारे कानों में पड़ता है फिल्म "सीमा" का वह गीत : "तू प्यार का सागर है." स्वयं परापर को संबोधित इस गीत को हिंदी सिनेमा के "गानशीर्ष" की संज्ञा दी जा सकती है। गीत में पंक्ति आती है : "घायल मन का पागल पंछी, उड़ने को बेक़रार." हम सोच में डूब जाते हैं, ये कौन पाखी है? ये किसके प्राणों का 'हारिल’ है? और अब, जब वह पागल पंछी देह के पिंजरे को छोड़कर उड़ चला है, तब जाकर हम वस्तुत: समझ सकते हैं कि वह तो हमेशा से उड़ने को बेकरार था, और उसका जीवन, महज़ प्रतीक्षा का एक पड़ाव था। 
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