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लता के स्‍वर की कोई संध्‍यावेला नहीं हो सकती

हमें फॉलो करें लता के स्‍वर की कोई संध्‍यावेला नहीं हो सकती

सुशोभित सक्तावत

ऐसा अकसर होता है। हम अपने काम में लगे रहते हैं, पृष्‍ठभूमि में टीवी या रेडियो अपनी तमाम रोज़मर्राई कॉमनप्‍लेस चीज़ों के साथ चलते रहते हैं। सहसा लता का कोई गीत सुनाई देता है। हज़ारों दफ़े सुना हुआ गीत। लगभग आमफ़हम होने की हद तक। लेकिन जब हम उसे चुनते नहीं हैं, जब वह हमें चुनता है, हमें औचक अपनी रोज़मर्राई मशगूलियतों के बीच धर-दबोचता है, तो हम हठात हतप्रभ रह जाते हैं। 
 
इस स्‍वर में कुछ ऐसा है, जो समस्‍त संज्ञाओं के परे है। वह अतुलनीय है और दुनियावी नहीं जान पड़ता। धूप और चांदनी की तरह वह भले ही छिटककर हमारी दुनिया में चला आया हो, लेकिन वह हमारी दुनिया का है नहीं। उसका दूसरा छोर किसी ऐसे लोक में है, जो हमारी पहुंच के परे है। हमारी सोच का उजाला भी वहां तक नहीं पहुंच सकता। हम बस उसके श्रोता हैं। उसको ग्रहण करने वाले। किंतु ऐसा कोई यश हमें अपना याद नहीं आता, जिसकी वजह से इस दिव्‍य स्‍वर के श्रोता होने का अधिकार हम जता सकें। हम एक स्‍वर के उत्‍सव के अधबीच में सहसा सोच में डूब जाते हैं।
 
यह लता-स्‍वर की ही कीर्ति है कि एक दुनियावी दोपहर के दौरान हमें इस तरह की अधिभौतिक तन्‍मयता में धकेल दे।
 
राजशेखर ने दो तरह की प्रतिभाएं मानी हैं : कारयित्री और भावयित्री। कारयित्री प्रतिभा रचनाकार की होती है, भावयित्री आस्‍वादक की, जिसे आचार्य विद्यानिवास मिश्र ने ‘सहृदय’ कहा है। किंतु सोचता हूं, एक प्रतिभा ऐसी भी होती है, जो अपना बीज स्‍वयं हो। बद्धमूल, तत्‍वमसि प्रतिभा। जैसे किसी गायक का शुद्ध स्‍वर ही उसका अंतर्भाव हो। वह जो, उसके होने से पहले भी रहा हो, वह जो उसके बाद भी रहेगा। वह स्‍वर, जिसमें नाद दीर्घ हो जाता है, व्‍यक्ति लघु। जहां व्‍यक्ति का होना अपने स्‍वरों के सीमांत पर सिमटकर रह जाता है।
 
लता को सुनकर उसी शुद्ध स्‍वर का विचार आता है। वे नादरूपा हैं। स्‍वर स्‍वरूपा हैं। लता को व्‍यक्ति की तरह नहीं, हेतु की तरह ही देखा-सुना जा सकता है। उन्‍हें सुनकर हठात यही विचार आता है कि ऐसा निष्‍कंप नाद-स्‍वर किसी नश्‍वर कंठ से कैसे संभव हो सकता है। फिर लगता है कि नहीं, कोई देह उसे धारण नहीं कर सकती, ठीक वैसे ही, जैसे तटबंध किसी नदी को धारण नहीं कर सकता, नौकाएं दिशाओं को धारण नहीं कर सकतीं, वे बस उनका हेतु होती हैं।
 
स्‍वर के पीछे जो अनहद है, वह कौन है? इस अनित्‍य जगत में भला कैसे संभव हो पाता है वह विराट वैभव? लता को सुनते, सिर धुनते हम सोचते हैं।
 
लता के गायन के बारे में ऐसी सुदूरगामी व्‍यंजनाएं क्‍यों? बड़ी सीधी वजह है। कोई भी लता-गीत सुनें, खासतौर पर पचास के दशक के शुरुआती सालों का, गाने में कुछ दीपता हुए महसूस होता है। लगता है जैसे स्‍वर के भीतर कोई लौ लगी है, कोई दीप बलता है। गाने में ऐसा भाव पैदा कर पाना विलक्षण है। एक उदाहरण देखें। बिमल रॉय की फिल्‍म ‘दो बीघा जमीन’ का सुपरिचित लता-गीत है : ‘आ जा री आ निंदिया तू आ’। गीत सुनकर बराबर किसी निष्‍कंप दीपशिखा का आभास होता है। मर्म पर आंच लगती है। हम सोचते रह जाते हैं स्‍वरों के भीतर ऐसा उत्‍ताप कैसे संभव हो सका? ऐसा ढला हुआ स्‍वर, जैसे पिघली धातु एक लय में गिरती है : एक उत्‍तप्‍त और दीप्‍त प्रपात।
 
कहते हैं यह लता का मराठी कंठ है, जहां से ऐसा स्‍वाभाविक नादमय उच्‍चार आता है, जैसे 'ठंडी हवाएं लहरा के आएं' में पहले शब्‍द 'ठंडी' का ठसकभरा उच्‍चारण। लेकिन लता का एक अन्‍य गीत सुनें : 'नैन सो नैन नाहि मिलाओ'। गीत की पहली पंक्ति में ऐसी निरायास स्‍वर योजना है कि लगता है आकाश में भोर का आलोक धीमे-धीमे फैल रहा है। सायास और निरायास का ऐसा अ-द्वैत भी लता-गायन का ही वैभव है।
 
कितने ही गीत ज़ेहन में एक के बाद एक कौंधते हैं। ‘जाग दर्दे-इश्‍क़ जाग’ में हेमंत कुमार के गहन-गंभीर पुरोवाक् के बाद विद्युल्‍लता की तरह लता का प्रवेश, जैसे कोई वज्रपात हुआ हो। या फिर, ‘आएगा आने वाला’ का अलसाया-उनींदापन। जैसे हम नींद में बारिश सुन रहे हों, जैसे वह गीत किसी सपने में चल रहा हो और हम उसे एक अन्‍य सपने के भीतर सुन रहे हों। 
इतना निकट, फिर भी इतना सुदूर कि उसे स्‍पर्श तक न किया जा सके। या ‘आ जा रे परदेसी’ में कोहरों में फैली हुई आवाज़, जो अपनी ही स्‍वरकाया के परे चली गई है। या ‘तुम न जाने किस जहां में खो गए’ की अपूर्व शोकात्‍मकता, जिसमें ‘तुम कहां’ के बाद बुझी हुई राख के आकुल अभिलेख।
 
सुना है कोयल तारसप्‍तक के पंचम में गाती है। कह सकते हैं तार का वह पंचम ही लता का भी देश है। वह उसी देश की नागरिक है और शेष सब हेतु है, निमित्‍त है। और हम? हमने इस गान-यक्षिणी को सुना, उस नाद-स्‍वर के उत्‍सव को एक नश्‍वर काया से नि:सृत होते देखा, इससे बड़ा यश हमारे लिए क्‍या हो सकता था?
 
लता का गायन हमारी स्‍मृति की दीर्घाओं में भोर के आलोक की भांति ठहर गया है। इस अपूर्व स्‍वर की कोई संध्‍यावेला नहीं हो सकती।

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