क्या भारतीय जनता पार्टी अपने आप को बदलने के लिए तैयार है? वह हो तो भी एकदम तो शायद नहीं। पार्टी के साथ दिक्कत यह है कि वह ऐसा सार्वजनिक रूप से बतलाना या प्रदर्शित करना नहीं चाहती कि उसे अब अपने आप को बदलने की कोई जरूरत है।
ऐसा करने में खतरा यह है कि तब पार्टी यह स्वीकार करती हुई नजर आएगी कि बिहार की हार से वह वाकई घबरा गई है। चुनाव परिणामों के अगले दिन अपनी पत्रकार परिषद् में केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली ने अंकगणित के आंकड़ों से यही सिद्ध करने की कोशिश की कि बिहार में आश्चर्यचकित कर देने जैसा कुछ भी नहीं हुआ है। जो कुछ भी परिणाम आए हैं, वे संभावित ही थे, स्थिति का आकलन करने में पार्टी से चूक हो गई। पर अब परिस्थिति की मांग है कि भाजपा अपने आप को अन्दर से बदले भी और बदलती हुई दिखाई भी दे।
बिहार के नतीजों के बाद से जिस तरह की निराशा का माहौल भाजपा के प्रति देश में बन गया है उससे उसका बाहर आना जरूरी हो गया है। ऐसी स्थिति पहले कभी नहीं निर्मित हुई कि केवल एक राज्य की विधानसभा के लिए हुए चुनावों के परिणामों ने समूचे देश की राजनीति के भविष्य को अपने साथ नत्थी कर लिया हो।
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सत्ता में आने के केवल सात महीनों के भीतर दिल्ली के चुनावों में भाजपा को पहला जबरदस्त धक्का लगा था जबकि उसका मुकाबला तब एक नई-नई पार्टी के साथ था, किसी गठबंधन अथवा महागठबंधन से नहीं। अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व में 'आम आदमी पार्टी' के हाथों हुई हार से तब इतनी व्यापक प्रतिक्रिया नहीं हुई थी जितनी कि आज हो रही है। वह इसलिए कि दिल्ली के दस महीनों के बाद ही बिहार भी हो गया। आगे पश्चिम बंगाल, केरल और उत्तर प्रदेश प्रतीक्षा कर रहे हैं। दिल्ली और बिहार, दोनों स्थानों पर चुनाव प्रचार की कमान प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष के हाथों में ही बनी रही।
अब सवाल यह है कि क्या प्रधानमंत्री और उनके नजदीकी रणनीतिकार अपने आपको लोकसभा चुनावों के 'मोड' और अतिरंजित उत्साह से 'बाहर' क्यों नहीं ला पा रहे हैं? लोकसभा चुनावों में दिल्ली की सभी सात सीटों पर भाजपा विजयी हुई थी। पार्टी को लगा कि उसे विधानसभा में भी वैसा ही बहुमत प्राप्त हो जाएगा। लोकसभा में प्राप्त 'अहंकारी' बहुमत के घोड़े पर सवार पार्टी-नेतृत्व ने दिल्ली में डॉ. हर्षवर्धन और अन्य स्थानीय नेताओं की दावेदारी की उपेक्षा करते हुए 'पार्टी के बाहर' के व्यक्ति को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया। नतीजा सामने था। पार्टी के लोगों ने ठीक से काम नहीं किया।
बिहार से लोकसभा में पार्टी को 40 में से 31 सीटें प्राप्त हुई थीं। दिल्ली के दूध से जली भाजपा ने बिहार में छाछ इस तरह से फूंक-फूंककर पी कि पार्टी फिर गलती कर बैठी। मुख्यमंत्री पद के लिए किसी नाम की घोषणा इस डर से नहीं की गई कि सहयोगी दलों के नेता नाराज हो जाएंगे। चुनाव प्रधानमंत्री के नाम पर लड़ा गया। लड़ाई 'बिहारी' बनाम 'बाहरी' बना दी गई। स्थानीय नेता के तौर पर नीतीश कुमार की छवि के भारी पड़ने के साथ ही आरक्षण के सवाल पर भागवत के बयान ने आग में घी का काम कर दिया। मुख्यमंत्री पद को लेकर सहयोगी दलों के दावेदारों का चुनाव में सफाया हो गया। कीमत अब भाजपा को चुकाना पड़ रही है।
बिहार के परिणामों से प्रधानमंत्री के आर्थिक विकास के एजेंडे के किसी भी तरह से प्रभावित नहीं होने का दावा कितना सही या गलत है आने वाला समय बताएगा। हाल-फिलहाल तो सारे सवाल सरकार की राजनीतिक स्थिरता और उसके कमजोर दिखाई देते आत्मविश्वास को लेकर उठ रहे हैं। पूछा जा रहा है कि राजनीतिक स्तर पर अगर प्रधानमंत्री जरूरी निर्णायक कदम नहीं उठाते हैं तो आने वाले समय में जिन चुनावों का भाजपा को सामना करना है, उनमें भी पार्टी की स्थिति क्या दिल्ली और बिहार जैसी नहीं बन जाएगी? खासकर उत्तरप्रदेश के महत्त्वपूर्ण चुनावों को देखते हुए।
भाजपा को वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के मोड से अब बाहर निकलना पड़ेगा। लोकसभा का चुनाव यूपीए सरकार के पांच सालों की असफलता और उसके भ्रष्टाचार के खिलाफ सुनहरे सपने दिखाकर लड़ा गया था। वे सपने जमीनी हकीकत से कोसों दूर हैं और इसी कारण भाजपा राजनीतिक तौर पर पर हारती हुई नजर आ रही है। इस सबके अलावा पार्टी का कट्टर हिन्दुत्ववादी तबका जिस तरह के मुद्दे उठा रहा है और उसके खिलाफ कोई निर्णायक कार्रवाई नहीं की जा रही है उसका भी विपरीत प्रभाव प्रधानमंत्री की छवि और उनके पार्टी पर नियंत्रण पर पड़ रहा है।
नरेंद्र मोदी अब क्या करेंगे? क्या अपनी विदेश यात्रा से वापसी और संसद के धमाकेदार साबित होने वाले सत्र के बाद ऐसा कुछ करके दिखाएंगे, जिससे कि बिहार के बाद उनके स्वयं के और पार्टी अध्यक्ष के खिलाफ खुले तौर पर जो आवाज़ें उठना शुरू हो गई हैं, उन पर कोई रोक लगे और देश की जनता के बीच कोई खराब संदेश नहीं जाए? क्या प्रधानमंत्री अपने नजदीकी सलाहकारों की टीम में परिवर्तन करने का साहस दिखाकर उन लोगों को पास लाने की कोशिश करेंगे, जिन्हें कि पार्टी ने अभी हाशिए पर धकेल रखा है? अगर ऐसा नहीं हुआ तो बदली हुई परिस्थितियों में पार्टी के नेता और कार्यकर्ता जोखिम उठाकर उत्तरप्रदेश के प्रतिष्ठापूर्ण चुनावों में प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित करने के काम में अपने प्राण नहीं झोंकेंगे। आर्थिक फैसले अपनी जगह, स्थितियों को बदलने के लिए कड़े राजनीतिक फैसले लिए जाने की जरूरत है और मोदी में ऐसा कर दिखाने की क्षमता है। वे गुजरात में बड़े-बड़े संकटों से कई-कई बार सफलतापूर्वक बाहर आ चुके हैं। दिल्ली के बाद बिहार की पराजय ने प्रधानमंत्री को अवसर प्रदान किया है, उसे वे अपने पक्ष में वर्ष 2014 की तरह एक लहर में बदलकर दिखा दें। भाजपा के पास नरेंद्र मोदी का कोई विकल्प नहीं है।