Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia
Advertiesment

मायावती ने आगरा में ही क्यों की पहली रैली, निशाने पर क्यों रही कांग्रेस?

हमें फॉलो करें मायावती ने आगरा में ही क्यों की पहली रैली, निशाने पर क्यों रही कांग्रेस?

BBC Hindi

, गुरुवार, 3 फ़रवरी 2022 (07:46 IST)
दिलनवाज़ पाशा, बीबीसी संवाददाता
उत्तर प्रदेश में पहले चरण के मतदान में अब एक सप्ताह का ही समय रह गया है। मतदान के बिल्कुल क़रीब बहुजन समाज पार्टी ने आगरा में अपनी पहली बड़ी चुनावी रैली की है।
 
विश्लेषक मानते हैं कि दलित राजनीति की राजधानी कहे जाने वाले आगरा में मायावती ने अपनी पहली रैली करके ये संकेत देने की कोशिश की है कि दलित वोट बैंक अब भी उनके साथ है।
 
मायावती रैली में आक्रामक नज़र आईं और उन्होंने कांग्रेस, सपा और भाजपा पर जमकर निशाना साधा। बसपा का चुनावी अभियान अभी तक सुस्त रहा है और ये माना जा रहा है कि भाजपा और सपा के मुक़ाबले पार्टी यूपी में पिछड़ गई है।
 
इन अटकलों को ख़ारिज करते हुए मायावती ने रैली में कहा, "हमारी पार्टी यूपी की लगभग सभी सीटों पर तैयारी और दमदारी के साथ पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने के लिए लड़ रही है।"
 
मायावती ने कहा, "हमारी पार्टी ने पहले की तरह इस बार भी, बीएसपी से जुड़ने की तादाद को ध्यान में रखकर उसी अनुपात में सर्वसमाज के लोगों को टिकट दिया है।"
 
अपने वोट बैंक को संबोधित करते हुए मायावती ने कहा, "आपको अपना वोट कांग्रेस, सपा या भाजपा को ना देकर अपनी एकमात्र हितैषी पार्टी बसपा को ही देना है। आप लोगों को ये समझना होगा कि बीएसपी को ही वोट देना क्यों ज़रूरी है।"
 
कांग्रेस पर निशाना साधते हुए मायावती ने कहा, "ये पार्टी ज़बर्दस्त जातिवादी होने के कारण शुरू से ही हर मामले में दलित, आदिवासी व अन्य पिछड़ा वर्ग विरोधी रही है और अभी भी है। इन्हीं कारणों से इस कांग्रेस पार्टी की सरकार ने इन वर्गों को मसीहा व भारत के संविधान निर्माता परम पूज्य श्री बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर को भारत रत्न की उपाधि से सम्मानित भी नहीं किया था।"
 
कांग्रेस पर निशाना साधते हुए मायावती ने कहा, ''मान्यवर कांशीराम के देहांत के समय केंद्र की सत्ता में रही कांग्रेस पार्टी ने उनके सम्मान में एक दिवस का अवकाश भी घोषित नहीं किया था।''
 
जानकारों की नज़र में रैली अहम
पहले चरण के मतदान से ठीक पहले हुई मायावती की इस रैली को राजनीतिक विश्लेषक अहम मान रहे हैं।
 
वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं, "मायावती ने आगरा में रैली करके एक तो ये सफ़ाई दी कि अब तक वो कहां थीं यानी चुनाव मैदान से वो क्यों ग़ायब थीं। उनका कहना था कि वो अपनी पार्टी को मज़बूत करने में लगी थीं। हालांकि लोग इससे बहुत संतुष्ट नहीं हैं क्योंकि वो कहीं बाहर नहीं निकल रही थीं, केवल सतीश मिश्रा ही जा रहे थे।"
 
पिछले विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने आगरा ज़िले की सभी सीटें जीती थीं। लेकिन आगरा में मायावती ने अपने भाषण की शुरुआत की कांग्रेस पर हमला करके। मायावती ने कहा कि कांग्रेस ने दलितों के साथ न्याय नहीं किया और दलितों को बढ़ावा नहीं दिया। उन्होंने आरोप लगाया कि कांग्रेस ने बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर को भारत रत्न नहीं दिया।
 
कांग्रेस पर हमला करने के बाद मायावती ने समाजवादी पार्टी की आलोचना करते हुए कहा कि समाजवादी सरकार में प्रदेश में गुंडाराज बढ़ जाता है। मायावती ने बीजेपी की भी कड़ी आलोचना की।
 
अपने भाषण में मायावती ने कहा कि आगरा दलित राजनीति की राजधानी है। उन्होंने कहा कि लोगों को चुनावों में बीएसपी को लेकर ग़लतफ़हमी है और उनकी पार्टी चुनावों में सरकार बनाने लायक पर्याप्त सीटें जीतेगी।
 
आगरा में रैली और संदेश
मायावती ने ये रैली आगरा में ही क्यों की इसकी वजह बताते हुए रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं, "आगरा में मायावती के जाने की सबसे बड़ी वजह ये लग रही है कि भाजपा यहां बेबी रानी मौर्य नाम की एक जाटव महिला नेता को बढ़ावा दे रही है। पार्टी ने उन्हें उभारा है। पहले उन्हें आगरा का मेयर बनाया गया, फिर उत्तराखंड का राज्यपाल बनाया गया।
 
साल भर पहले फिर इस्तीफ़ा दिलवाकर उन्हें भाजपा का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया गया। बेबी रानी मौर्य अब चुनाव लड़ रही हैं। बेबी रानी मौर्य को सामने करके बीजेपी ये कोशिश कर रही है कि जाटव समुदाय का वोट खींचा जाए।
 
एक संदेश जाटव समुदाय और दूसरे दलित वर्गों में जा रहा है कि मायावती अब कमज़ोर पड़ रही हैं और सरकार नहीं बना सकती हैं। मायावती की कोशिश ये लग रही है कि फ़िलहाल वो अपने आधार वोट को संभालें और इसलिए ही वो आगरा गईं और वहां उन्होंने रैली को संबोधित किया।"
 
इसका एक कारण ये भी माना जा रहा है कि आगरा का संदेश प्रदेश के बाकी दलितों में भी जाता है। आगरा में दलित चमड़े के कारोबार से जुड़े हैं और यहां अमीर दलित कारोबारी भी हैं। यहां का जाटव समुदाय काफ़ी संपन्न है।
 
वहीं राजनीतिक विश्लेषक और लखनऊ यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर रवि कांत चंदन कहते हैं, "आगरा में आठ सीटें हैं, बीएसपी के शासन के दौरान ये सभी बसपा के पास थीं। लेकिन पिछले चुनावों में सभी बीजेपी की झोली में चली गई थीं। जाटवों के भीतर बीएसपी से कुछ निराशा थी और कुछ हिंदुत्व के रथ पर सवार होकर बीजेपी की तरफ़ चले गए थे। मायावती ने आगरा से शुरुआत करके अपने इस कोर वोट बैंक को संदेश देने की कोशिश की है।"
 
क्या है मायावती की रणनीति?
मायावती अब तक चुनाव में बहुत सक्रिय नज़र नहीं आई हैं। पहले चरण का प्रचार समाप्त होने से कुछ दिन पहले ही उन्होंने अपनी पहली बड़ी रैली की है। कई लोग ये मानते हैं कि मायावती इस बार मुख्य मुक़ाबले में नहीं हैं।
 
हालांकि प्रोफ़ेसर रवि कांत चंदन इससे इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते। प्रोफ़ेसर चंदन कहते हैं, "मायावती की इस बार की रणनीति को जितना हम समझ पा रहे हैं, हमें लग रहा है कि उन्होंने जानबूझकर ख़ामोशी रखी। मायावती को ये लग रहा था कि भाजपा सपा पर हमलावर होगी और सपा को मुस्लिमपरस्ती और यादवों की दबंगई से जोड़कर देखेगी तो इसका सीधा फ़ायदा बीएसपी को मिलेगा।"
 
मीडिया कवरेज और सोशल मीडिया पर बहसों से भी ऐसा ही लग रहा है कि इस बार मुख्य मुक़ाबला भाजपा और सपा के बीच है और बसपा कहीं मुक़ाबले में है ही नहीं।
 
प्रोफ़़ेसर चंदन कहते हैं, "भाजपा ने जानबूझकर इस चुनाव को द्विपक्षीय बनाया है। सीधा मुक़ाबला समाजवादी पार्टी से दिखाया गया है। मीडिया के सर्वे के ज़रिेए भी ऐसा दिखाया गया है। अब तक जो सर्वेक्षण आए हैं उनमें बीएसपी को बमुश्किल 10-12 सीटें मिलती दिख रही हैं जबकि भाजपा को ढाई सौ तक सीटें दी गई हैं।
 
इसके बाद समाजवादी पार्टी है। आम धारणा ये बना दी गई है कि बसपा कहीं है ही नहीं। बीजेपी ये चाहती थी कि चुनाव जब सीधे-सीधे भाजपा और सपा के बीच नज़र आने लगेगा तो ब्राह्मण मतदाता या ग़ैर यादव ओबीसी और ग़ैर जाटव दलित मतदाता विकल्पहीन हो जाएगा क्योंकि उसको लगेगा कि अगर हमें सपा और भाजपा में से किसी एक को ही वोट करना है तो फिर भाजपा ही सही।"
 
प्रोफ़ेसर चंदन मानते हैं कि मायावती ने बीजेपी की इस रणनीति का मुक़ाबला करने के लिए ज़मीनी स्तर पर मेहनत की है। वो कहते हैं, " बीजेपी की ये शुरुआत से ही रणनीति थी। लेकिन मायावती ने बोलने के बजाए पिछले चार महीनों में ज़मीनी स्तर पर काम किया। अपने सेक्टर प्रभारियों को मज़बूत किया, कार्यकर्ताओं को मुस्तैद किया और अपने प्रभारी बनाए।
 
बीएसपी पहले विधानसभा प्रभारी बनाती है और अगर कोई दिक़्क़त ना हो तो उन्हें ही उम्मीदवार बना देती है। बसपा ने दो-तीन महीने पहले ही प्रभारी बना दिए थे। मायावती ने संतुलित सामाजिक समीकरणों के साथ ये काम किया है। उन्होंने ओबीसी को तवज्जो दी है। मायावती ने सामाजिक समीकरणों और मज़बूत प्रत्याशियों से जो गोलबंदी की है उसने बहुजन समाज पार्टी को ज़मीन पर मज़बूत किया है।
 
समाजवादी पार्टी के लोग जब लखनऊ में टिकट के लिए डेरा डाले हुए थे तब बसपा के प्रभारी ज़मीन पर काम कर रहे थे, प्रचार कर रहे थे। इसका फ़ायदा बीएसपी को अब मिलता दिख रहा है। अब ये लगने लगा है कि लड़ाई सिर्फ़ भाजपा और सपा के बीच नहीं है, बल्कि बीएसपी भी मुक़ाबले में है। "
 
असमंजस में दलित वोटर?
विश्लेषक मानते हैं कि मायावती के बहुत सक्रिय ना दिखने और उनकी पार्टी की कमज़ोर स्थिति की वजह से वोटर असमंजस की स्थिति में थे।
 
रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं, "अभी ऐसा दिख रहा है कि अधिकतर लोग ये मान रहे हैं कि इस चुनाव में मुक़ाबला समाजवादी पार्टी लोकदल गठबंधन और भाजपा के बीच है। इस वजह से दलितों में भी ये असमंजस की स्थिति है कि उन्हें वोट कहां देना चाहिए। बीएसपी का काडर है और उसकी विचारधारा से जुड़े लोग हैं। ये बीएसपी के लिए प्रतिबद्ध हैं लेकिन अन्य दलित वोटर असमंजस में है।"
 
वो कहते हैं, "एक फ़र्क़ ये आया है कि जो दलित चिंतक वर्ग है या जो पढ़ा-लिखा तबका है जैसे नौकरीपेशा या सिविल सेवा में उच्च पदों पर काम कर रहे लोग, शिक्षक या प्रोफ़ेसर जैसे लोग, इन्हें मायावती से काफ़ी निराशा हुई है क्योंकि उनको लगता है कि मायावती उस मिशन पर नहीं चल रही हैं जिसके लिए कांशीराम ने पार्टी का गठन किया था।"
 
उत्तर प्रदेश में दलितों की आबादी 20 प्रतिशत से अधिक है और इनमें से अधिकतर मज़बूती से मायावती के साथ रहे हैं। मायावती को सत्ता तक पहुंचाने में भी दलित वोट बैंक की अहम भूमिका रही है। बसपा भले ही पिछले कुछ चुनावों में हारी हो लेकिन उसका अपना वोट बैंक उसके साथ रहा है। लेकिन अब ये सवाल उठा है कि क्या मायावती अपने इस वोटबैंक को थामे रख पाएंगी?
 
प्रोफ़़ेसर रवि कांत चंदन कहते हैं, "जाटव मायावती के कोर वोटर हैं और उनकी आबादी उत्तर प्रदेश में 11 प्रतिशत से कुछ अधिक है। ये दावे के साथ कहा जा सकता है कि आज भी ये वोटर पूरी ताक़त से मायावती के साथ खड़े हैं।
 
बीच में ये खिसकते हुए दिख रहे थे, ख़ासकर वो नौजवान जो अंबेडकरवादी हैं या दलित मुद्दों को लेकर ज़्यादा उग्र हैं क्योंकि मायावती तो ब्राह्मण सम्मेलन भी कर रही थीं और परशुराम की मूर्ति लगवाने का वादा भी कर रही थीं। ये मायावती का आपनी विचारधारा को सिर के बल खड़ा करने जैसा था। इससे नौजवान निराश थे और खिसकने की कोशिश कर रहे थे।"
 
प्रोफ़ेसर रवि कांत चंदन कहते हैं, "इस नौजवान वर्ग ने अखिलेश यादव से उम्मीद लगाई थी लेकिन अखिलेश से यहां चूक हो गई। अखिलेश ने दलितों की हत्या पर एक ट्वीट तक नहीं किया। उन्होंने ग़ैर जाटव वोटों पर फ़ोकस नहीं किया, जो दलित नेता बीएसपी से सपा में आए वो अधिकांश जाटव ही थे।
 
उन्होंने अखिलेश को ये भरोसा दिया कि हम आ जाएंगे तो जाटव वोट भी आ जाएगा, लेकिन जाटव वोट पूरी मज़बूती से मायावती के साथ था। इसके बाद चंद्रशेखर का प्रकरण हुआ, उससे भी जाटव अखिलेश से छिटक गए और फिर से मायावती से जुड़ गए।"
 
कांग्रेस पर अधिक हमलावर क्यों हैं मायावती?
मायावती ने भले ही कांग्रेस, भाजपा और सपा सभी पर हमला बोला है, लेकिन उनकी मुख्य प्रतिद्वंदी समाजवादी पार्टी है। हालांकि आगरा रैली में मायावती कांग्रेस पर अधिक हमलावर नज़र आईं।
 
इसकी वजह बताते हुए प्रोफ़़ेसर रवि कांत चंदन कहते हैं, "कांग्रेस पर हमला मायावती ने इसलिए किया है क्योंकि कांग्रेस ने दलितों में अपना जनाधार बढ़ाने की कोशिश की है। कांग्रेस यूपी में तब ही ज़िंदा हो सकती है जब उसके साथ यूपी में दलित भी जुड़ें। दलितों को कांग्रेस की तरफ़ जाने से रोकने के लिए भी मायावती कांग्रेस पर आक्रामक हो रही हैं।"
 
आगरा में जब एक वाल्मीकि समाज के युवक की पुलिस हिरासत में संदिग्ध मौत हुई थी तो प्रियंका गांधी उनके घर गई थीं। प्रिंयका ने कहा था कि दलितों को अपने भीतर अपना नेतृत्व पैदा करना होगा और अपनी लड़ाई लड़नी होगी। प्रियंका ने यहां दलितों को एक बड़ा संदेश दिया था। विश्लेषक मानते हैं कि इसलिए भी मायावती की आगरा रैली में कांग्रेस उनके निशाने पर रही है।
 
प्रोफ़ेसर चंदन कहते हैं, "मायावती जानती हैं कि बीजेपी उनकी मुख्य प्रतिद्वंदी नहीं है। जो दलित समुदाय बीजेपी की तरफ़ गया भी है वो महंगाई, बेरोज़गारी और प्रताड़ना जैसे मुद्दों से परेशान है। मायावती को लगता है कि बीजेपी की तरफ़ गए उनके वोट वापस लौट आएंगे।
 
मायावती का वोट बैंक आज भी उनके साथ मज़बूती से है। अखिलेश की चूक की वजह से गैर जाटव दलित भी मायावती की तरफ़ जाते दिख रहे हैं। इसलिए लग रहा है कि मायावती का आधार वोट बैंक पहले से मज़बूत होगा।"
 
चुनावों में कहा खड़ी है बसपा?
2007 में उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने वाली मायावती आज भले ही कमज़ोर स्थिति में दिख रही हों, लेकिन विश्लेषक मानते हैं कि उन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है।
 
प्रोफ़ेसर चंदन को लगता है कि बसपा अभी भी 70 सीटें तो ले ही आएगी। वो कहते हैं, "समाजवादी पार्टी और भाजपा के बीच जो ज़ुबानी जंग चल रही है उसका फ़ायदा भी बसपा को मिल सकता है। ब्राह्मण, ग़ैर जाटव और ओबीसी की कुछ जातियां जो समाजवादी पार्टी की तरफ़ जाने में संकोच कर रही हैं वो बसपा की तरफ़ आ सकती हैं।
 
यदि ये समीकरण और अनुमान सही साबित हुए तो मायावती यूपी चुनाव की बड़ी खिलाड़ी साबित हो सकती हैं। हो सकता है कि वो 70 तक सीटें जीत लें या इससे आगे भी बढ़ जाएं।"
 
वहीं रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं, "अभी की स्थिति में मायावती बहुत मज़बूत नहीं दिख रही हैं। ऐसा लग रहा है कि यूपी चुनाव में कांग्रेस और बसपा के लिए तीसरे और चौथे पायदान के लिए मुक़ाबला होगा।"

हमारे साथ WhatsApp पर जुड़ने के लिए यहां क्लिक करें
Share this Story:

वेबदुनिया पर पढ़ें

समाचार बॉलीवुड ज्योतिष लाइफ स्‍टाइल धर्म-संसार महाभारत के किस्से रामायण की कहानियां रोचक और रोमांचक

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

बजट में मोदी सरकार से कितनी उम्मीदें पूरी हुईं और कितनी रहीं बाक़ी