भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने सोमवार को राज्यसभा में दिल्ली सर्विस बिल (दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी सरकार संशोधन बिल 2023) पर बोल रहे थे। गोगोई राज्यसभा के नामित सदस्य हैं और ये सदन में उनका पहला भाषण था। गोगोई के पहले ही भाषण से विवाद खड़ा हो गया है।
गोगोई ने ऐसा क्या कहा?
रंजन गोगोई ने दिल्ली सर्विस बिल पर बहस के दौरान कहा कि हो सकता है कि क़ानून मेरी पसंद का न हो लेकिन इससे ये मनमाना नहीं हो जाता। क्या इससे संविधान के मूल विशेषताओं का उल्लंघन हो रहा है? मुझे संविधान के मूल ढांचे पर कुछ कहना है।
उन्होंने कहा कि भारत के पूर्व सॉलिसीटर जनरल अंध्यअरिजुना ने केशवानंद भारती केस पर एक किताब लिखी थी। उस किताब को पढ़ने के बाद मुझे लगा कि संविधान के मूल ढांचे पर बहस हो सकती है। ये बहस का विषय है और इसका क़ानूनी आधार है।
दिल्ली सर्विस बिल राज्यसभा से पारित हो चुका है। इस बिल के क़ानून में बदलते ही दिल्ली पर केंद्र सरकार का दबदबा बढ़ जाएगा और दिल्ली सरकार की शक्तियां कम हो जाएंगी।
इस बिल के पास होने के बाद अब दिल्ली सरकार के पास अधिकारियों की पोस्टिंग और तबादले का अंतिम अधिकार नहीं होगा। दरअसल, विपक्षी दल इस बिल को देश के संघीय ढांचे पर हमला मान रहे हैं और इसका विरोध कर रहे हैं।
लेकिन रंजन गोगोई ने इस बिल को सही ठहराने के लिए कहा कि अगर पसंद का क़ानून न हो तो ये मनमाना नहीं हो जाता। दरअसल, गोगोई ने ऐसा कह कर बिल का विरोध कर रहे विपक्षी दलों के तर्क को कमतर देखा।
सदन में बिल पर बोलने के बाद गोगोई ने कहा कि वो नामित सदस्य हैं। किसी पार्टी के नहीं हैं। उनका मतलब सिर्फ़ इस बात से था कि बिल संवैधानिक रूप से मान्य है या नहीं। उन्होंने सिर्फ़ ये कहा था कि बिल संवैधानिक रूप से मान्य है। उन्होंने बिल लाने की ज़रूरत पर बात नहीं की थी। उन्होंने सिर्फ़ वैधानिकता का मामला उठाया था।
गोगोई की स्पीच का विरोध
गोगोई की स्पीच की तीखी प्रतिक्रिया हुई है। कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल ने पूछा कि क्या ये भारत के संविधान को बुरी तरह ख़त्म करने की बीजेपी की चाल थी। क्या ये समझती है कि लोकतंत्र, समानता, धर्म निरपेक्षता, संघवाद और न्यायिक स्वतंत्रता ऐसे विचार हैं जिन पर बहस करने की ज़रूरत है। जिन लोगों का संवैधानिक मूल्य में विश्वास नहीं है वो संविधान पर हमला करने के लिए एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश का सहारा ले रहे हैं। हमें ये पता है। बीजेपी के इस तेवर से हमें कोई आश्चर्य नहीं हुआ।
उन्होंने कहा कि क्या गोगोई की नज़र में संविधान का मूल ढांचा जैसी कोई चीज़ नहीं है जिसकी रक्षा की जानी चाहिए। क्या सरकार उनके इस रुख़ का समर्थन करती है। बीजेपी को इसका विरोध करना होगा वरना ये समझा जाएगा कि उसने संविधान के मूल तत्वों को ध्वस्त करना शुरू कर दिया है।
क्या है संविधान के मूल ढांचे का सिद्धांत?
'भारत के संविधान में मूल ढांचे' यानी 'बेसिक स्ट्रक्चर' का कोई जिक्र नहीं है। इसके मूल में ये विचार है कि संसद ऐसा कोई क़ानून नहीं ला सकती जो संविधान के मूल ढांचे में बदलाव करती हो।
ये भारतीय लोकतंत्र की ख़ासियत को बरकरार रखने और लोगों के अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा से जुड़ा विचार है।
भारतीय संविधान के मूल ढांचे का सिद्धांत संविधान के दस्तावेज़ों में मौजूद भावना की रक्षा और उनका संरक्षण करता है।
संविधान के मूल ढांचे की बात केशवानंद भारती केस में सामने आई।
इस केस के फ़ैसले में ये कहा गया था कि कि संविधान के संशोधन के ज़रिये भी संविधान के मूल ढांचे में परिवर्तन नहीं किया जा सकता।
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क्या कहते हैं विशेषज्ञ?
अब जबकि रंजन गोगोई की स्पीच के बाद संविधान के मूल ढाँचे पर बहस को लेकर चर्चा गर्म है तो संवैधानिक क़ानूनों के विश्लेषक भी इस पर अपनी प्रतिक्रिया दे रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट के जाने-माने वकील और संवैधानिक कानूनों के विशेषज्ञ नीतिन मेश्राम ने इस मामले पर बीबीसी से बात की।
उन्होंने कहा कि जब सुप्रीम कोर्ट कहता है कि संसद को संविधान के किसी हिस्से को संशोधित करने का अधिकार नहीं है तो वह संसदीय संप्रभुता को चुनौती है। संसदीय संप्रभुता यानी इस देश के लोगों की संप्रभुता। जब सुप्रीम कोर्ट ऐसा कहता है तो वो संसदीय संप्रभुता के लिए गंभीर ख़तरा है।
वह कहते हैं कि संविधान सभा में बहस के दौरान बीआर आंबेडकर ने कहा था कि हम संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं करेंगे कि गड़े मुर्दे हमारे ऊपर आकर राज करें। उन्होंने कहा था संविधान में लचीलापन होना चाहिए।
उन्होंने कहा कि 1973 में केशवानंद भारती केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संविधान के मूल ढांचे में बदलाव नहीं हो सकता है। लेकिन ये भी सच है सुप्रीम कोर्ट की ओर से मूल ढांचे में बदलाव न करने की बात करना एक तरह से संसद पर न्यायपालिका का वर्चस्व बनाए रखने का ज़रिया है।
क्योंकि कई बार जब सरकार जनता के एक बड़े वर्ग के पक्ष में कोई फ़ैसला लाने की कोशिश करती है तो सुप्रीम कोर्ट उसे ये कह कर रोक देता है कि ये संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन है।
उदाहरण के लिए ओबीसी को 52 फ़ीसदी रिजर्वेशन इसलिए नहीं मिल सकता कि सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक ये संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन है।
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क्या हैं ख़तरे?
वकील और 'द क्विंट' के राजनीतिक संपादक रहे वकासा सचदेव मेश्राम की राय से इत्तेफाक नहीं रखते।
वह कहते हैं कि अगर संविधान के मूल ढांचे के सिद्धांत को ख़त्म कर दिया जाए तो कोई भी भारी बहुमत वाली सरकार संविधान में बड़े बदलाव कर सकती है। अगर मूल ढांचे में बदलाव न करने का सिद्धांत ख़त्म कर दिया जाता है तो सरकार अनुच्छेद 25 या अनुच्छेद 19 जैसे अहम अनुच्छेदों में बदलाव कर सकती है जिसमें धार्मिक स्वतंत्रता या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे अहम अधिकारों में कटौती हो सकती है।
वो कहते हैं कि संविधान के मूल ढांचे के सिद्धांत को अगर ख़त्म कर दिया जाता है कि बहुसंख्यकवाद का ख़तरा पैदा हो सकता है। यानी अगर कोई ऐसी सरकार आ गई जो बहुसंख्यकवाद की राजनीति के ज़रिये भारी बहुमत के साथ राज कर रही हो तो संविधान में मनमाने संशोधन कर सकती है। इसके ज़रिये पहले से मिले अधिकारों में भी कटौती हो सकती है। मसलन आईपीसी की धारा 377 के तहत समलैंगिकों को मिले अधिकारों को छीना जा सकता है।
वकासा सचदेव कहते हैं कि संविधान के मूल ढांचे के सिद्धांत में बदलाव न करने की व्यवस्था इसलिए दी गई थी किसी के पास इतनी ताक़त न आ जाए कि वो मनमाना बदलाव करे।संसद के पास इतनी ताक़त न आ जाए कि इसमें बहुमत वाली पार्टी ऐसे बदलाव कर दे कि लोगों को मौलिक अधिकार प्रभावित हो। 1973 में जब ये व्यवस्था दी गई थी तो इसका मक़सद इंदिरा गांधी सरकार को अथाह ताक़त हासिल करने से रोकना था।'
रंजन गोगोई के भाषण का बहिष्कार
राज्यसभा में रंजन गोगोई की स्पीच के दौरान चार महिला सांसद- समाजवादी पार्टी की जया बच्चन, शिव सेना (यूबीटी) की प्रियंका चतुर्वेदी, एनसीपी की वंदना चव्हाण और टीएमसी की सुष्मिता उठ कर चली गईं। उन्होंने उनकी स्पीच का बहिष्कार किया।
2019 में गोगोई पर उनके दफ्तर में काम कर चुकी एक पूर्व कर्मचारी ने यौन दुर्व्यवहार का आरोप का आरोप लगाया था। रंजन गोगोई ने यह कहते हुए आरोपों का खंडन किया था कि यह सीजेआई के कार्यालय को निष्क्रिय करने के लिए बड़ी ताक़तों की ओर से रची गई साज़िश थी।
चूंकि कोर्ट में कई संवेदनशील मामलों की सुनवाई होनी थी और इससे कइयों को मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता था इसलिए ऐसे आरोप लगाए गए।
उन्होंने 2019 में कहा था कि न्यायपालिका की आज़ादी बेहद गंभीर खतरे में है, जो दुर्भाग्यपूर्ण है। सुप्रीम कोर्ट ने उस वक्त एक कमिटी बनाकर इन-हाउस जांच कराई थी। इसमें पाया गया कि गोगोई पर लगाए गए आरोपों में कोई दम नहीं है।
गोगोई की राज्यसभा सदस्यता पर विवाद क्यों?
गोगोई को 2020 में मोदी सरकार की ओर से राज्यसभा में नामित किया गया था।
उस समय सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज जस्टिस मदन बी लोकुर, जस्टिस एके पटनायक, जस्टिस कुरियन जोसेफ और जस्टिस जे चेलमेश्वर ने उनकी नियुक्ति पर सवाल उठाते हुए कहा था कि इसने आम लोगों के विश्वास को हिला दिया है। इससे न्यायपालिका की आज़ादी पर सवाल खड़े हुए हैं।
दरअसल जस्टिस रंजन गोगोई अयोध्या में राम जन्मभूमि विवाद में फ़ैसला दिया था। फ़ैसला अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की मांग करने वालों पक्ष में आया था।
वो देश के दूसरे मुख्य न्यायाधीश हैं जिन्हें राज्यसभा में नामित किया गया है। उनसे पहले रंगनाथ मिश्रा को राज्यसभा में भेजा गया था। वो 1998 से 2004 तक राज्यसभा के सदस्य रहे।