टेसा वॉन्ग, एशिया डिजिटल संवाददाता, बीबीसी
बीते शनिवार चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों चाय की चुस्कियां लेते हुए यूक्रेन में शांति को लेकर चर्चा कर रहे थे। इसके कुछ घंटों बाद चीन की सैन्य ताकत का प्रदर्शन करते उसके फ़ाइटर जेट ताइवान की खाड़ी के ऊपर उड़ान भरते देखे गए। ताइवान को डराने के उद्देश्य से किए गए ये युद्धाभ्यास फ्रांसीसी राष्ट्रपति के चीन के आधिकारिक दौरे के एक दिन बाद शुरू हुए। फ्रांसीसी राष्ट्रपति का ये दौरा चीन की कूटनीति के लिए अहम उपलब्धि माना जा रहा है।
लगभग एक ही दिन आई ये दोनों विरोधाभासी तस्वीरें इस बात का उदाहरण है कि चीन कैसे दुनिया के सामने अपने दो चेहरे पेश कर रहा है।
चीन जहां एक तरफ अंतरराष्ट्रीय शांति की बात करता है तो दूसरी तरफ एक घातक हमलावर की तरह उस जगह की रक्षा के लिए सामने आकर खड़ा हो जाता है जिस पर वो अपना दावा करता है। लेकिन क्या चीन अपनी इस रणनीति पर कायम रह सकता है?
वैश्विक स्तर पर चीन की कोशिशें
कोविड महामारी के ख़त्म होने के बाद अर्थव्यवस्थाएं खुलीं और कूटनीति के क्षेत्र में चीन ने कोई वक्त नहीं गंवाया। बीते कुछ महीनों में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने रूस जाकर रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से मुलाक़ात की।
उन्होंने चीन में कई विदेशी नेताओं का स्वागत किया जिसमें फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों, यूरोपियन कमीशन की अध्यक्ष उर्सुला वॉन देर लेयेन, ब्राज़ील के राष्ट्रपति लुई इनासियो लूला डी सिल्वा शामिल हैं।
शी जिनपिंग ने अपने आला राजदूत को यूरोपीय देशों के दौरे पर भेजा और रूस-यूक्रेन युद्ध का हल निकालने की कोशिश में एक 12 सूत्री शांति योजना भी पेश की। और तो और इस बीच कूटनीतिक मामलों में चीन ने मध्य पूर्व में उस वक्त बड़ी कामयाबी हासिल की जब सालों के तनाव के बाद सऊदी अरब और ईरान ने एक बार फिर रिश्तों में नरमी लाने के संकेत दिए।
अमेरिका के लिए मध्य पूर्व बेहद अहम है, लेकिन बीते कुछ सालों से अमेरिका यहां के मुल्कों के बीच की आपसी रंजिश कम करने में सफल नहीं हो सका है, ऐसे में इस क्षेत्र में पैर जमाने की कोशिश कर रहे चीन के लिए ये बड़ी कामयाबी माना जा रहा है।
चीन में सऊदी अरब और ईरान के अधिकारियों के बीच चली चार दिन की बातचीत के बाद दोनों ने कूटनीतिक रिश्ते बहाल करने की अप्रत्याशित घोषणा की।
इन सबके साथ-साथ चीन ने वैश्विक सुरक्षा और विकास को लेकर भी कई प्रस्ताव दिए हैं, जो इस बात की तरफ इशारा हैं कि वो "ग्लोबल साउथ" के मुल्कों को लुभाना चाहता है। पहले भी वो अपनी महत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड परियोजना के तहत देशों में करोड़ों डॉलर का निवेश करता रहा है।
कूटनीतिक तरीकों में बदलाव
बीते सालों में चर्चा में आई चीन की आक्रामक कूटनीति जिसे 'वुल्फ़ वॉरियर्स डिप्लोमेसी' भी कहा जा रहा था उसमें भी बदलाव के संकेत दिख रहे हैं।
शी जिनपिंग विदेश मंत्रालय के अपने युवा, आक्रामक लेकिन, विवादित प्रवक्ता लिजियान झाओ की जगह अब वांग यी और चन गांग जैसे शांत स्वभाव वाले राजनयिकों को आगे कर रहे हैं। हालांकि ये भी सच है कि शी जिनपिंग अपने राजनयिकों को अपना 'आक्रामक रूप' दिखाने के लिए भी उत्साहित करते रहते हैं।
कूटनीति को लेकर चीन का मौजूदा रवैया बताता है कि वो खुद को वैश्विक स्तर पर ताकत के मुख्य केंद्र के रूप में स्थापित करना चाहता है।
इसकी जड़ें लंबे वक्त से चल रही राष्ट्रीयता की 'चीनी राष्ट्र के पुनरुत्थान' की अवधारणा से जुड़ी है जिसके अनुसार दुनिया में चीन का स्थान बेहद अहम है जिसे उसे फिर से हासिल करना है।
ज़ांग शिन ईस्ट चाइना नॉर्मल यूनिवर्सिटी में राजनीति और अंतरराष्ट्रीय संबंध मामलों के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं। वो कहते हैं कि शी जिनपिंग ने जब इस साल तीसरी बार राष्ट्रपति पद की शपथ ली, उन्होंने "चीन के सपने" की बात की, ये "अपने अपनाए रास्तों और आधुनिकता के अपने तरीकों में" चीनी नेतृत्व का भरोसा दिखाता है।
हालांकि ज़ांग शिन कहते हैं कि इसका नाता चीन की किसी परिकथा को दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचाने से नहीं है बल्कि इसका उद्देश्य वैश्विक आर्थिक संबंधों को मज़बूत करना है।
एशिया सोसायटी पॉलिसी इंस्टीट्यूट में चीन की राजनीति में फैलो नील थॉमस कहते हैं, "आपको पता होना चाहिए कि एब बेहतरीन अर्थव्यवस्था के बिना शी जिनपिंग चीनी राष्ट्र के पुनरुत्थान का सपना पूरा नहीं कर पाएंगे।"
वो कहते हैं, "चीन को कूटनीति के क्षेत्र में अपना प्रभुत्व तो बढ़ाना ही है लेकिन उसे साथ ही साथ तरक्की भी करते रहना है। पश्चिमी मुल्कों से दूरी बनाकर आप ऐसा नहीं कर सकते, आपको अच्छे व्यापारि रिश्ते रखने ही होंगे।"
थॉमस कहते हैं, "इसके लिए आपको कूटनीति की ज़रूरत है और 'वुल्फ़ वॉरियर्स डिप्लोमेसी' की अपनी छवि को थोड़ा नरम करने की ज़रूरत है।"
चीन को बदलाव की ज़रूरत क्यों?
लेकिन हाल के वक्त में चीन के कूटनीतिक रुख़ में दिख रहे बदलाव का कारण ये है कि वो खुद को घिरा हुआ महसूस कर रहा है। पश्चिमी मुल्कों के साथ उसके तनाव का नतीजा ये हुआ कि उसके आसपास ऑकस और क्वाड जैसे मज़बूत सुरक्षा गठबंधन बने और आधुनिक तकनीक तक पहुंचने की उसकी कोशिशों को रोकने की कोशिशें होने लगीं।
इसी साल मार्च में शी जिनपिंग ने आरोप लगाया कि "अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी मुल्क चीन की घेराबंदी करने, उसकी राह में रोड़े अटकाने और उसे दबाने की कोशिश कर रहे हैं जिससे देश के विकास के लिए अभूतपूर्व चुनौतियां खड़ी हो गई हैं।"
कार्नेगी चाइना में फैलो इयान चोंग कहते हैं कि बीते साल रूस ने यूक्रेन के ख़िलाफ़ "विशेष सैन्य अभियान" छेड़ दिया जिसके बाद नेटो सैन्य गठबंधन के देशों के बीच रिश्ते बेहद मज़बूत हो गए और चीन की इस सोच को और हवा मिली।
वो कहते हैं, "चीन को इस बात का अहसास हो गया है कि कई ताकतवर मुल्क अमेरिका के दोस्त हैं। चीन इस कारण अधिक घिरा हुआ महसूस करता है और अधिक ज़ोर लगाकर इस घेरे से बाहर निकलना चाहता है।"
यही कारण है कि चीन अपनी रणनीति के केंद्र में जो बात कर रहा है वो है "बहु ध्रुवीय दुनिया" यानी ऐसी दुनिया जहां एक से अधिक शक्ति के केंद्र हों। माना जाता है द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सोवियत संघ का विघटन हो गया और अमेरिका ताकत का केंद्र बन गया।
अमेरिका से दूरी लेकिन उसके मित्रों से नहीं
चीन कहता है कि ये "अमेरिकी प्रभुत्व" को चुनौती देने का एक विकल्प है। वो कहता है कि अमेरिकी प्रभुत्व के कारण देश आपस में हाथ मिला रहे हैं और पावर ब्लॉक्स बना रहे हैं जिससे तनाव बढ़ रहा है।
इमैनुएल मैक्रों के चीन के दौरे के दौरान ये बात उस वक्त स्पष्ट दिखी जब शी जिनपिंग ने मैक्रों की "रणनीतिक तौर पर स्वायत्तता" के जवाब में कहा कि बहुध्रुवीय दुनिया में यूरोप को खुद को एक "स्वतंत्र धुरी" के रूप में देखना चाहिए।
चीन का कहना है कि मुल्कों के बीच ताकत में संतुलन रहा तो दुनिया अधिक सुरक्षित होगी। हालांकि अन्य मुल्क ये मानते हैं कि ये उन्हें अमेरिका से दूर करने और चीन के क़रीब लाने की कोशिश है।
चीन अक्सर कहता है कि अमेरिका के मुक़ाबले वो दुनिया का नेतृत्व करने के मामले में अधिक भरोसेमंद है क्योंकि उसके हाथ ख़ून से नहीं सने हैं। वो इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान का उदाहरण देकर कहता है कि इन दोनों मुल्कों में अमेरिका की विदेश नीति नाकाम रही है।
वो बार-बार ये भी कहता रहा है कि कम्युनिस्ट चीन ने न तो कभी किसी देश पर हमला किया है और न ही किसी तरह के प्रॉक्सी युद्ध में शामिल रहा है।
लेकिन उसने तिब्बत पर कब्ज़ा किया है और वियतनाम के साथ भी युद्ध छेड़ा है। भारत के साथ सटी उसकी सीमा को लेकर दोनों के बीच बीते कुछ सालों से तनाव रहा है और भारत ने उस पर अपने इलाक़े पर ग़ैर-क़ानूनी रूप से कब्ज़ा करने का आरोप लगाया है।
दक्षिण चीन सागर को लेकर भी एशिया के कई मुल्कों के साथ उसका विवाद है। जहां इसके कुछ इलाक़ों पर दूसरे मुल्क अपना दावा जताते हैं वहीं चीन इसके एक बड़े हिस्से और लगभग सभी द्वीपों को अपने हिस्से में दिखाता है।
रही ताइवान की बात तो चीन उसे अपना ही हिस्सा मानता है जिसे वो आज नहीं तो कल अपनी मुख्यभूमि में मिला लेगा, भले ही इसके लिए ताकत की ही इस्तेमाल क्यों न करना पड़े। वो वन चाइना पॉलिसी की बात करता है और मानता है कि उसके साथ संबंध रखने वाले मुल्क ताइवान को मान्यता नहीं देंगे।
क्या काम कर रही है चीन की नई चाल?
चीन की ये बदली रणनीति ग्लोबल साउथ के कुछ मुल्कों और उन देशों के साथ बेहतर काम कर सकती है जो न तो चीन के क़रीब हैं और न अमेरिका के।
प्रोफ़ेसर ज़ांग शिन कहते हैं कि चीन बिना ताकत के इस्तेमाल वाली मध्यस्थता की एक रणनीति सामने रख रहा है जिसे "कोई भी पसंद" करेगा।
दखल न देने की इस रणनीति का वो मुल्क स्वागत करेंगे जहां तानाशाही है। नील थॉमस कहते हैं कि "कई मुल्क ऐसे हैं जो न तो गणतंत्र को अपनी सत्ता के केंद्र में रखते हैं और न ही मानवाधिकारों को। उनके लिए चीन ग्लोबल गवर्नेंस का चैंपियन हो सकता है।"
लेकिन इयान चोंग कहते हैं, "लेकिन इस बात में संदेह है कि क्या वो चीन के समर्थन में खुलकर सामने आएंगे।"
वो कहते हैं कि उनकी अपनी लक्ष्मण रेखाएं हैं जिसे वो पार नहीं कर सकेंगे।
यूक्रेन युद्ध को लेकर संयुक्त राष्ट्र में वोटिंग के दौरान ये साफ दिखा। यूक्रेन पर हुए रूसी हमले को लेकर आए प्रस्ताव पर चीन ने वोट नहीं किया लेकिन अधिकांश मुल्कों ने युद्ध की निंदा की।
और फिर जब चीन ने यूक्रेन में शांति के लिए प्रस्ताव पेश किया तो अमेरिका के पारंपरिक सहयोगी रहे यूरोप के मुल्कों में चीन के इस कदम को लेकर चर्चा छिड़ गई।
कुछ लोगों ने चीन के प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया, जबकि यूरोपियन कमीशन की अध्यक्ष उर्सुला वॉन देर लेयेन ने कड़ा रुख़ अपनाते हुए कहा कि उन्हें उम्मीद है कि चीन "केवल शांति को बढ़ावा" देने की भूमिका में रहेगा।
मैक्रों और शी जिनपिंग के संवाददाता सम्मेलन के बाद हुए एक अलग संवाददाता सम्मेलन में उर्सुला वॉन देर लेयेन ने कहा कि अगर चीन रूस को हथियारों की सप्लाई करता है तो ये अंतरराष्ट्रीय क़ानून का उल्लंघन होगा और इससे यूरोपीय संघ और चीन के बीच रिश्तों को "गंभीर नुक़सान" होगा।
लेकिन दूसरे मुल्क जो चीन के साथ अपने आर्थिक रिश्तों को बिगाड़ना नहीं चाहते वो इसे लेकर खुल कर बात करें।
इमैनुएल मैक्रों के हालिया चीनी दौरे के दौरान सैन्य परेड के साथ उनका भव्य स्वागत हुआ। ख़ुद राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने उनके साथ दक्षिणी शहर गुंआंगज़ू का दौरा किया और इशारा दिया कि दोनों में "जिगरी दोस्ती" है।
बाद में मैक्रों ने संवाददाताओं से कहा कि ये यूरोप के हितों में होगा कि वो ताइवान के मुद्दे को अधिक तूल न दे और "किसी ऐसे विवाद में न फंसे जिसके उसका कोई नाता न हो।"
इसके बाद उन्होंने अपने बयान का बचाव ये कहते हुए किया कि अमेरिका का सहयोगी देश होने का मतलब ये कतई नहीं कि "वो किसी की जागीर" है। मैक्रों का बयान इस बात का सबूत है कि शी जिनपिंग की रणनीति काम कर रही है।
नील थॉमस कहते हैं कि अमेरिका और चीन के बीच जारी तनाव में यूरोप "मुख्य रणभूमि" बनता जा रहा है। बदलते वक्त के साथ वो एक तरह का "स्विंग स्टेट" बनता जा रहा है और वो जिसका हाथ थामेगा वही पायदान में ऊपर के पड़ाव पर होगा।
लेकिन फिलहाल के लिए देखा जाए तो मैक्रों यूरोप के दूसरे मुल्कों का प्रतिनिधित्व नहीं करते। उनके बयानों की आलोचना की गई है और जर्मनी को अपनी विदेश मंत्री एनालेना बारबॉक को चीन भेजना पड़ा, जहां उन्होंने ताइवान को लेकर यूरोपीय संघ के रुख़ की बात दोहराई।
एनालेना बारबॉक मैक्रों के बयान का समर्थन करते दिखीं लेकिन उन्होंने ताइवान की खाड़ी में किसी तरह के तनाव को लेकर चेतावनी दी और कहा कि इसका असर जर्मनी और यूरोपीय संघ पर पड़ेगा।
नील थॉमस कहते हैं कि यूरोप अभी इसी कश्मकश में जूझ रहा है कि वो अमेरिका का साथ दे या फिर चीन का हाथ थामे लेकिन उसे पता है कि "इस मामले में अमेरिका बेहतर दांव होगा।"
ताइवान का मुद्दा और चीन की चुनौती
लेकिन ताइवान चीन के लिए बेहद संवेदनशील मुद्दा है और ये वो बिंदु है जहां आकर चीन की नई रणनीति रास्ते से हटती दिखती है।
ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग-वेन ने इसी महीने अमेरिका का दौरा किया जहां न्यूयॉर्क में उनका ज़बरदस्त स्वागत हुआ और इसके बाद उन्होंने अमेरिका के हाउस ऑफ़ रिप्रेज़ेन्टिव्स के स्पीकर केविन मैकार्थी से मुलाक़ात की।
उनके इस दौरे से नाराज़ चीन ने ताइवान की खाड़ी के पास सैन्य युद्धाभ्यास शुरू कर दिया, इस दौरान उसके फ़ाइटर जेट और टैंक ताइवान के पास से गुज़रते दिखे।
हाल के महीनों में लगभग हर महीने ताइवान के पास से चीनी लड़ाकू विमानों ने उड़ान भरी है और ताइवान ने आरोप लगाया कि चीन के विमानों ने उसके हवाई क्षेत्र का अतिक्रमण किया है।
विश्लेषक कहते हैं कि इस तरह के आरोप चीन के उस दावे को खारिज करते हैं कि वो शांति स्थापित करने की भूमिका में रह सकता है। वहीं कई और मुल्क चीन की इस तरह की हरकत को उसकी आक्रामकता के रूप में देखते हैं।
इयान चोंग कहते हैं कि ताइवान को लेकर युद्ध हुआ तो उसका असर पूरी दुनिया पर पड़ेगा। दुनिया में सेमीकंडक्टर के कुल 60 फ़ीसदी का उत्पादन अकेले ताइवान में होता है।
ये दुनिया के सबसे व्यस्ततम समुद्री मार्गों में से एक के पास है और यूरोप और एशिया को जाने वाली कई अहम टेलिकम्यूनिकेशन लाइनें इसी के पास से होकर गुज़रती हैं।
चीन इस बात को भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता कि अगर इसे लेकर युद्ध हुआ तो एशिया को अस्थिर करने का आरोप उसी के मत्थे मढ़ा जाएगा।
ज़्यादातर जानकार मानते हैं कि चीन ताइवान पर हमला नहीं करना चाहता, लेकिन ये चिंता भी जताई जा रही है कि अगर चीन ने हड़बड़ी में सैन्य कार्रवाई की तो इस युद्ध में अमेरिका भी शामिल हो सकता है, क्योंकि वो पहले भी कई बार ताइवान की रक्षा के लिए अपनी प्रतिबद्धता जता चुका है।
नील थॉमस कहते हैं, "शी जिनपिंग एक तरफ ताइवान को लेकर अपनी ताकत दिखाना चाहते हैं तो दूसरी तरफ चीन की नई कूटनीति की राह पर भी आगे बढ़ना चाहते हैं।"
"लेकिन ताइवान को लेकर उसके तीखे बोल के कारण कई मुल्कों को ये लगने लगा है कि वो ताइवान पर कभी भी हमला कर सकता है। ऐसे में उसके लिए इन दोनों उद्देश्यों के बीच संतुलन बनाकर आगे बढ़ना बड़ी चुनौती हो सकता है।"
जैसे-जैसे चीन दुनिया के दूसरे मुल्कों की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाता जाएगा, अपने कुछ फ़ैसलों के कारण वो दुनिया की निगाहों में भी आता जाएगा। हो सकता है आने वाले वक्त में चीन को ये फ़ैसला भी करना पड़े कि वो अंतरराष्ट्रीय शांति की बात करने के लिए अपना रुख़ नरम रखेगा या फिर एक घातक हमलावर की तरह अपना आक्रामक रुख़ बनाए रखेगा।
(ग्रेसी सोई के इनपुट्स के साथ)