Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia
Advertiesment

कोरोनावायरस: डॉक्टरों पर क्यों हो रहे हैं हमले?

हमें फॉलो करें कोरोनावायरस: डॉक्टरों पर क्यों हो रहे हैं हमले?

BBC Hindi

, गुरुवार, 1 जुलाई 2021 (09:52 IST)
(डॉक्टर सेउज कुमार)

दिव्या आर्य (संवाददाता)
 
डॉक्टर सेउज कुमार सेनापति को वो दोपहर एकदम साफ याद है। जब उन्हें लगा था कि वो ज़िंदा नहीं बचेंगे। असम के होजाई ज़िले के कोविड सेंटर में वो उनकी पहली नौकरी का दूसरा दिन था। उन्हें उसी सुबह वहां भर्ती हुए एक मरीज़ को देखने को कहा गया। जब उन्होंने चेक किया तो मरीज़ के शरीर में कोई हलचल नहीं थी।
 
जब मरीज़ के परिजनों को बताया कि उनकी मौत हो गई है तो वो बौखला गए। डॉ. सेनापति कहते हैं कि कुछ ही पलों में कोहराम मच गया। उन्होंने स्टाफ को गालियां देनी शुरू कर दीं, कुर्सियां फेंकी और खिड़कियों के शीशे तोड़ दिए।
 
डॉ. सेनापति छिपने के लिए भागे पर परिजनों के साथ और लोग जुड़ गए और उन्हें ढूंढ निकाला।
 
हमले के वीडियो में मर्दों के झुंड को उन्हें बेडपैन से बड़ी बेरहमी से पीटते हुए देखा जा सकता है। वो उन्हें अस्पताल से बाहर खींच लाते हैं और लातों घूंसों से मारते रहते हैं।
 
डॉ. सेनापति के कपड़े फट गए हैं, खून बह रहा है पर दर्द और डर से भरी उनकी चीखों का उन लोगों पर कोई असर नहीं पड़ता। वो कहते हैं, 'मुझे लगा था मैं ज़िंदा नहीं बचूंगा।'
 
पिछले साल महामारी की शुरुआत से ही कई डॉक्टर्स को कोविड से पीड़ित मरीज़ों के परिजनों के हमलों को झेलना पड़ा है।
 
परिजनों की शिकायत यही होती है कि उनके मरीज़ को ठीक इलाज नहीं मिला, वक्त पर आईसीयू बेड नहीं दिया गया और डॉक्टर ने वो सब नहीं किया जो जान बचाने के लिए ज़रूरी था।
 
और जब ये गुस्सा हमले की शक्ल ले लेता है तो अस्पतालों में उसकी कोई तैयारी नहीं होती।
 
जब डॉ. सेनापति पर हमला हुआ, कोई उन्हें बचाने नहीं आया क्योंकि बाकी सारा स्टाफ़ भी या तो हमले का शिकार था या छिप गया था। भीड़ के सामने एक अकेला गार्ड भी कुछ नहीं कर पाया।
 
डॉ. सेनापति ने कहा, 'उन्होंने मेरे कपड़े फाड़ दिए गए, सोने की चेन खींच ली, चश्मा और मोबाइल फोन तोड़ दिया। करीब बीस मिनट बाद ही मैं किस तरह से वहां से भाग पाया।'
 
वो सीधा स्थानीय थाने गए और शिकायत दर्ज की। हमले का वीडियो सोशल मीडिया पर शेयर हुआ और आनन फानन में राज्य सरकार ने कार्रवाई की। अब तीन नाबालिगों समेत 36 लोगों पर हमले का मुकदमा दर्ज हो गया है। पर ऐसा कभी-कभार ही होता है।
 
क़ानून
 
कोविड के दौरान स्वास्थ्यकर्मियों पर हमले चर्चा में आए हैं पर ये महामारी से पहले भी हो रहे थे। फिर भी इनमें से ज़्यादातर में पुलिस केस दर्ज नहीं होता। और जब होता भी है, तो अभियुक्त ज़मानत पर रिहा हो जाते हैं या समझौता कर लिया जाता है।
 
इसी साल अप्रैल में, एक मरीज़ की कोविड से मौत के बाद गुस्साए परिजनों ने दिल्ली के अपोलो अस्पताल में तोड़फोड़ की और स्टाफ को मारा पीटा।
 
एक बड़ा निजी अस्पताल होने के बावजूद उन्होंने कोई पुलिस केस नहीं किया। ऐसे मामलों से अस्पताल प्रशासन खुद को दूर ही रखता है जिस वजह से स्वास्थ्यकर्मी और अकेले पड़ जाते हैं। डॉक्टरों के मुताबिक उनके ख़िलाफ़ हमलों के लिए ख़ास क़ानून ना होना ही परेशानी की वजह है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने 18 जून को 'नेशनल प्रोटेस्ट डे' मनाया।
 
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के महासचिव डॉ. जयेश लेले कहते हैं, 'हमने पाया है कि मौजूदा कानून कारगर नहीं हैं इसलिए हमले रोक नहीं पाते। एक मज़बूत कानून की ज़रूरत है ताकि लोग ये समझें कि डॉक्टर को पीटने का बुरा परिणाम भुगतना होगा।'
 
330,000 डॉक्टर्स की सदस्यता वाली आईएमए स्वास्थ्यकर्मियों पर हमलों की रोकथाम के लिए, एक कड़े केंद्रीय कानून की मांग लंबे समय से कर रही है। हाल में हुए हमलों के बाद उन्होंने एक दिन देशव्यापी प्रदर्शन भी किया।
 
पर क्या क़ानून इस समस्या का समाधान है?
 
वजह और समाधान
 
श्रेया श्रीवास्तव ने ऐसे हमलों पर शोध किया है और कहती हैं, 'ये हिंसा सुनियोजित नहीं होती, बल्कि मौत होने के बाद भावुकता में उठाया कदम होती है। इसीलिए क़ानून का डर इसे रोकता नहीं है।'
 
श्रेया, विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी की उस शोधकर्ता टीम का हिस्सा थीं जिसने देशभर में हो रहे ऐसे हमलों का अध्ययन कर, इनकी वजह और रोकथाम के तरीके समझने की कोशिश की।
 
ऐसे हमलों का कोई डेटाबेस ना होने की सूरत में उन्होंने अखबारों में छपी ख़बरों को आधार बनाया और जनवरी 2018 से सितंबर 2019 के बीच हुए 56 हमलों की जानकारी इकट्ठा की।
 
श्रेया ने ध्यान दिलाया कि भारत सरकार ने एपिडेमिक ऐक्ट में संशोधन कर कोविड के मरीज़ों की देखभाल कर रहे स्वास्थ्यकर्मियों के विरुद्ध हिंसा करने पर अधिकतम सात साल की सज़ा का प्रावधान किया। पर उससे कुछ ख़ास मदद नहीं मिली।
 
ठीक एक साल पहले जून में, हैदराबाद के गांधी अस्पताल में जूनियर डॉक्टर, विकास रेड्डी पर कोविड से मौत के बाद गुस्साए परिजनों ने लोहे और प्लास्टिक की कुर्सियों से हमला किया।
 
वो बच गए और पुलिस में शिकायत भी की पर आज तक कोई गिरफ्तार नहीं हुआ है।
 
डॉ. रेड्डी कहते हैं, 'काम पर वापस जाना बहुत मुश्किल था। मैं उसी अक्यूट मेडिकल केयर वार्ड में था, वैसे ही क्रिटिकल मरीज़ों को देख रहा था। मेरे मन में हमले का ख़्याल आता रहता है। मुझे बस यही डर था कि ये रुकेंगे नहीं।'
 
उन्होंने हमले के बारे में बहुत सोचा, 'मैं दुविधा में था'। वो समझना चाहते थे कि मरीज़ की हालत के बारे में या बुरी ख़बर कैसे दी जाए ताकि ऐसे हमले होने से रोके जा सकें।
 
उन्होंने कहा वो महामारी की वजह से हो रही बेचैनी और घबराहट समझते हैं।
 
वो बोले, 'मुझे अहसास हुआ कि हमें मरीज़ और उनके परिवार के साथ समय बिताना होगा ताकि ये समझा पाएं कि हम क्या कर सकते हैं और क्या नहीं। और अगर वो असहमत हों तो अपने मरीज़ को दूसरे अस्पताल ले जाएं। पर हमारे पास उस तरह का वक्त ही नहीं है। मैं एक दिन में 20-30 मरीज़ देखता हूं।'
 
भारत का डॉक्टर-मरीज़ अनुपात दुनिया में सबसे कम में से है। साल 2018 के विश्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक यहां एक लाख लोगों के लिए 90 डॉक्टर थे। जो चीन (200), अमरीका (260) और रूस (400) से कहीं कम है।
 
पहले से ही कम स्वास्थ्यकर्मियों पर महामारी में और दबाव पड़ने लगा।
 
श्रेया के शोध के मुताबिक स्वास्थ्यकर्मियों पर ज़्यादातर हमले तब हुए जब मरीज़ इमरजेंसी या आईसीयू में थे, या जब उन्हें एक अस्पताल से दूसरे में ले जाया गया या जब उनकी मौत हो गई। और ये सभी परिस्थितियां महामारी के दौरान बहुत ज़्यादा हो रही थीं।
 
डॉ. लेले के मुताबिक, 'कोविड वार्ड में होना जंग के मैदान में होने जैसा है।' इसीलिए स्वास्थ्य ढांचा बेहतर करने की और डॉक्टर, नर्स और पैरामेडिकल स्टाफ़ की ट्रेनिंग बढ़ाने की ज़रूरत है।
 
भरोसा
 
भरोसे की कमी भी एक बड़ा मुद्दा है। भारत की दो-तिहाई अस्पताल सेवाएं, निजी क्षेत्र मुहैया करता है जिस पर कोई सरकारी नियंत्रण नहीं है। और ये कई लोगों की पहुंच से बाहर हैं।
 
श्रेया के मुताबिक महंगे इलाज के बावजूद कोविड से हो रही मौतों से, व्यवस्था पर विश्वास कमज़ोर हो रहा है। साथ ही मीडिया में डॉक्टरों की चुनौतियों की जगह इलाज में लापहरवाही की खबरें ज़्यादा दिखाए जाने से भी लोगों के मन में शक पैदा होता है।
 
उनकी टीम ने पाया कि युवा डॉक्टर ही ऐसे हमलों का शिकार ज़्यादा होते हैं।
 
डॉ. सेनापति और डॉ. रेड्डी में डर बरकरार है, पर उन्हें लगता है उनके पास ज़्यादा विकल्प भी नहीं।
 
डॉ. रेड्डी ने पिछले दस साल डॉक्टर की डिग्री के लिए पढ़ाई की है और अब भी नई तकनीक जानने के लिए पढ़ते रहते हैं।
 
वो कहते हैं, 'हम यही कर सकते हैं कि मरीज़ के लिए सबसे अच्छा करें। हम चाहते हैं कि मरीज़ बस हमारी एक प्रोफ़ेशनल की तरह इज़्ज़त करें। इस बात की इज़्ज़त करें कि हमने लोगों की जान बचानेवाला पेशा चुना।'(अतिरिक्त रिपोर्टिंग - दिलिप शर्मा, असम)(फोटो साभार : बीबीसी)

हमारे साथ WhatsApp पर जुड़ने के लिए यहां क्लिक करें
Share this Story:

वेबदुनिया पर पढ़ें

समाचार बॉलीवुड ज्योतिष लाइफ स्‍टाइल धर्म-संसार महाभारत के किस्से रामायण की कहानियां रोचक और रोमांचक

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

यूरोप जाने के लिए 'ग्रीन पास' बना भारतीयों के लिए मुसीबत