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एनडीए और यूपीए, कौन रख पाएगा गठबंधन का बंधन मज़बूत?

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- मधुसूदन आनंद

मायावती की बहुजन समाज पार्टी और अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के बीच हुए चुनावी गठबंधन ने न सिर्फ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के हाथों के तोते उड़ा दिए हैं बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की केंद्र की सत्ता में दुबारा निरापद वापसी की राह में भी रोड़े अटका दिए हैं। करीब 24 साल पहले लखनऊ में राज्य अतिथि घर में मुलायम सिंह यादव के उग्र समर्थकों ने मायावती पर हमला किया था क्योंकि मायावती ने मुलायम सिंह सरकार को दिया गया समर्थन वापस ले लिया था।

दरअसल, मायावती के राजनीतिक आका कांशीराम और अखिलेश के पिता मुलायम सिंह ने बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद 1993 का विधानसभा चुनाव मिलकर लड़ा था। तब डर यह था कि 1992 के बाबरी मस्जिद की घटना से उपजी भाजपा लहर की वजह से कहीं राज्य में प्रतिपक्षी दलों का सूपड़ा ही साफ न हो जाए।

इस घटना के बाद समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच वैसा ही बैर हो गया, जैसा कि सांप और नेवले के बीच होता है। मायावती और अखिलेश यादव यह बात अच्छी तरह से जानते हैं कि अगर वो दोनों मिलकर चुनाव लड़ें तो भाजपा को हरा सकते हैं जिसने पिछले लोकसभा चुनावों में प्रदेश की 80 सीटों में से 71 पर क़ब्ज़ा कर लिया था। दो सीटें अपना दल को मिली थीं जो भाजपा के नेतृत्व वाले सत्तारूढ़ गठबंधन एनडीए में शामिल है।

मायावती और ​अखिलेश ने अमेठी और रायबरेली की सीटें राहुल गांधी और सोनिया गांधी के लिए छोड़ने की घोषणा की है जबकि दो अन्य सीटें किसी सहयोगी दल के लिए खाली रखी हैं। दोनों पाटियां बराबर-बराबर यानी 38-38 सीटों पर चुनाव लड़ेंगी।

पिछले लोकसभा चुनावों में इन दोनों पार्टियों को लगभग उतने ही प्रतिशत वोट मिले थे जितने कि भाजपा ने हासिल किए थे। अगर इस गठबंधन में कांग्रेस और चौधरी अजीत सिंह की आरएलडी (राष्ट्रीय लोकदल पार्टी) को भी जगह मिलती तो चारों पार्टियों का वोट प्रतिशत 50 से भी ऊपर पहुंच जाता और तब भाजपा को हराना और भी आसान होता।

यों अब भी भाजपा की सीटें आधी रह जाने की भविष्यवाणी की जा रही है लेकिन कांग्रेस और आरएलडी में अगर चुनावी गठबंधन होता है और मुलायम सिंह के भाई शिवपाल यादव की नई पार्टी वोट काटने वाली साबित होती है तो भाजपा को कुछ फ़ायदा भी हो सकता है।

कांग्रेस से अब भी कड़ी चुनौती
पंजाब, कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में एक के बाद एक जीत के चलते कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के हौसले बुलंद रहे हैं। अब भी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अपने दम पर चुनाव लड़ने की बात कर रही है और आने वाले दिनों में कुछ नए आश्चर्य प्रस्तुत करने की भी घोषणा कर रही है।

लेकिन उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सीमाएं हर किसी के सामने हैं। वहां बरसों से पार्टी की चुनाव मशीनरी कबाड़ घर में धूल चाट रही है। उसे कामचलाऊ बनाने के लिए राहुल गांधी की आगामी चुनाव रैलियों की भूमिका भी सीमित ही रहेगी। बिहार में भाजपा और नी​तीश कुमार के गठबंधन में कांग्रेस और लालू प्रसाद यादव की आरजेडी (राष्ट्रीय जनता दल) कितना पलीता लगा सकती है, यह भी फिलहाल ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता।

अलबत्ता इतना सुनिश्चित लग रहा है कि जो भाजपा पिछले लोकसभा चुनावों में लगभग 180 सीटें मोटे तौर पर उत्तर पश्चिमी राज्यों से लेकर आई थी, कांग्रेस के पुनरोदय ने उस पर कड़ा मुकाबला ला खड़ा ​किया है। वैसे यह पुनरोदय राहुल गांधी की कामयाबियों को लेकर उतना नहीं है जितना कि नरेंद्र मोदी सरकार की नाकामियों को लेकर है। मोदी की बड़बोली सरकार ने नोटबंदी और जीएसटी लागू करके देश के मजदूर, किसानों, छोटे दुकानदारों और तमाम गरीब-गुरबों की ज़िंदगी बर्बाद करने का काम किया।

लाखों-करोड़ों लोग बेरोजगार हुए जबकि बेरोजगारों के लिए प्रतिवर्ष दो करोड़ नई नौकरियां सृजित करने का वादा भी चुनावी जुमला साबित हुआ। तथाकथित गोहत्या के नाम पर मुसलमानों और दलितों की हत्याएं हुईं और समाज को धर्म, जाति और संप्रदाय के नाम पर बांट दिया गया।

मोदी के कान विरोध और असहमति की आवाजें बर्दाश्त करने के आदी नहीं हैं। मीडिया पर सरकार की धौंस ने उसकी रीढ़ तोड़ दी है। प्रतिपक्षी पार्टियों को डराने के लिए सीबीआई का इस्तेमाल किया जा रहा है जिससे लग रहा है कि कोई भी विरोधी नेता निरापद नहीं है

जबकि खुद भाजपा में मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के सामने तथाकथित लौह पुरुष लालकृष्ण आडवाणी तक हाथ जोड़े खड़े रहते हैं। तमाम नेताओं को लगता रहा है कि या तो भाजपा से बनाकर चलो या फिर ऐसा गठबंधन बनाओ जो भाजपा से लोहा ले सकें।

गठबंधन का इतिहास
वैसे भारतीय राजनीति में गठबंधन कोई हाल की बात नहीं है। डॉ. राममनोहर लोहिया द्वारा गैर-कांग्रेसवाद का नारा दिए जाने के बाद 1967 में उत्तर प्रदेश और अन्य कुछ राज्यों में संयुक्त विधायक दल की सरकारें बनी थीं। यह राजनीतिक प्रयोग एक वांछित लक्ष्य पूरा करके समाप्ति की राह पर बढ़ गया।

इसके बाद 1977 में इमरजेंसी का विरोध करके सत्ता में आए अनके दलों ने, जिसमें भाजपा का पुराना संस्करण- भारतीय जनसंघ शामिल था, उसने एक राजनीतिक विकल्प देने की कोशिश की। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में केंद्र की पहली बार गठबंधन सरकार बनी। लेकिन, यह गठबंधन नेताओं की आपसी ईर्ष्या और द्वेष तथा भीतरघात के कारण चिंदी-चिंदी होकर बिखर गया। लेकिन 1989 से केंद्र में जिस तरह से गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हुआ है, उसे रोकना अब मुमकिन नहीं लगता।

वैसे तो विभिन्न धर्मों, जातियों, संप्रदायों और भाषाओं में बंटे भारत में कांग्रेस पार्टी भी विभिन्न सामाजिक-आर्थिक वर्गों के आपसी गठबंधन के आधार पर बनी एक छाता पार्टी मानी जाती थी जिसे धर्म निरपेक्षता और समाजवाद के नाम पर एक रखा गया। जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी के नेतृत्व का यह कौशल था कि यह पार्टी अपने ढांचागत अंतर्विरोधों का शिकार होने से बची रही।

गठबंधन तब और अब
अब घड़ी की सुई वापस मोड़ना मुश्किल है। वस्तुस्थिति यह है कि एक तरफ एनडीए है और दूसरी तरफ कांग्रेस के नेतृत्व वाला यूपीए गठबंधन। तीसरी तरफ एक तीसरा मोर्चा जन्म लेने के लिए युयुत्सु है।

तेलंगाना की पार्टी टीआरएस के मुख्यमंत्री केसीआर तीसरे मोर्चे को खड़ा करने का ख्वाब देख रहे हैं जिसमें पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की टीएमसी पार्टी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अ​रविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी सहयोग दे सकती है।

वैसे टीआरएस किसी भी सूरत में विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे स्वीकार्य नेता नहीं दे सकती जिन्हें कांग्रेस को सत्ता से बाहर रखने के लिए एक तरफ वामपंथी दल तो दूसरी तरफ भाजपा बाहर से समर्थन दे रहे थे। अगर एनडीए 200 सीटों का आंकड़ा पार कर जाता है तो संभव है कि वह किसी तरह सरकार बना ले। पर अभी तो उसके सबसे पुराने सहयोगी दलों में शामिल शिवसेना ही उसे आंखें दिखा रही है जबकि चंद्रबाबू नायडू की तेलुगूदेशम पार्टी कांग्रेस वाले यूपीए गठबंधन में बंध गई है।

अकाली दल के भी तेवर कुछ बदले हुए हैं। जहां तक डीएमके और एआईएडीएमके जैसी दक्षिण भारतीय पार्टियों का सवाल है, ये दोनों भी भाजपा के साथ नहीं जा सकतीं क्योंकि मोदी अटल बिहारी वाजपेयी की तरह उनमें भरोसा पैदा नहीं कर पाते। डीएमके ने राहुल गांधी को अभी से समर्थन दे दिया है।

वामपंथियों की स्थिति वैसे भी दयनीय है लेकिन अगर सचमुच कभी समर्थन की नौबत आई तो वे कांग्रेस वाले यूपीए गठबंधन को बाहर से समर्थन दे सकते हें। यही स्थिति सपा और बसपा की भी हो सकती है जो कांग्रेस के पाले में ही खड़े मिलने चाहिए। अगर खुदा न खास्ता सपा-बसपा को कांग्रेस से ज़्यादा सीटें मिलीं तो वे प्रधानमंत्री के पद पर भी अपनी दावेदारी पेश कर सकते हैं।

कुल मिलाकर भारत में एक तरह से दो दलीय व्यवस्था उभरती दिखाई दे रही है, अगर यूपीए को एक पार्टी और एनडीए को दूसरी पार्टी मानकर देखना शुरू करें तो। जो भी हो केंद्र में जो भी सरकार बनेगी, वह गठबंधन की सरकार ही होगी। यह एक ज़मीनी सच्चाई है और इसे हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा। अगर पश्चिमी यूरोप में गठबंधन सरकारें चल सकती हैं तो भारत में क्यों नहीं। हमें गठबंधन सरकारों की संस्कृति विकसित करनी ही पड़ेगी।

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