- सलमान रावी, बीबीसी संवाददाता
झारखंड के गुमला ज़िले की आदिवासी बहुल लुंगटू पंचायत में आधे से ज़्यादा लोगों के पास राशन कार्ड नहीं है। कुछ लोगों के पास थे भी तो उन्हें निरस्त हुए 3 साल हो गए हैं। तब से इस पंचायत के कई परिवार सरकारी दफ्तरों का चक्कर लगा-लगाकर थक गए हैं। यहां उन लोगों की आबादी ज़्यादा है जो मज़दूरी कर अपना और अपने परिवार का पेट पालते हैं।
ये वो पंचायत है जहां कुछ दिनों पहले सीता देवी की मौत भूख से हुई थी मगर प्रशासनिक अमला इसे भूख से हुई मौत नहीं मानता। सीता देवी इस गांव में अपनी कच्ची झोपड़ी में अकेले रहतीं थीं क्योंकि उनके पुत्र दूसरे गांव में रहते थे। आस-पड़ोस के लोग बताते हैं कि वो सीता देवी का ख़याल रखते थे लेकिन खुद भी ग़रीब होने की वजह से वो उतना ख़याल नहीं रख पाए और आख़िरकार एक दिन सीता देवी की मौत हो गई।
बेटे का भी यही हाल
पड़ोस की ही रहने वाली जुलियानी तिर्की कहतीं हैं कि सीता देवी कभी खाना बनाती थीं, कभी नहीं। कभी गांवों के लोग कुछ लाकर दे देते थे तो खा लेती थीं। मगर कुछ दिनों तक उन्होंने कुछ नहीं खाया था। वो कमज़ोर होती चली गईं। मां की मौत के बाद उनके पुत्र शुक्रा नगेसिया वापस गांव लौटे मगर उनके पास कुछ भी नहीं है। वो ख़ुद को ही जिंदा रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। बात नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि उनके नाक और गले में घाव हो गया है और वो बुख़ार में हैं।
गांव वाले बताते हैं कि शुक्रा के पास राशन कार्ड भी नहीं है और घर में अनाज भी कम है। वो मज़दूरी करते हैं। मगर मजदूरी भी रोज़-रोज़ नहीं मिलती है। इसलिए न इलाज करा पा रहे हैं और ना ही दवाइयां ख़रीद पा रहे हैं। इस गांव में कमोबेश हर घर की यही कहानी है। टूटे हुए घर और जिंदा रहने के संघर्ष के बीच जिंदगियां पिस रही हैं।
भूख की वजह
झारखंड में 40 प्रतिशत से भी ज़्यादा की आबादी ग़रीबी रेखा के नीचे रहती है। इनमें आदिवासी और पिछड़े तबक़े के लोग ज़्यादा हैं। सामाजिक संगठनों का आरोप है कि पिछले 3 सालों में झारखंड में भूख की वजह से 22 लोग मरे हैं। इन आंकड़ों को लेकर विवाद है मगर मरने वालों में ज़्यादातर वो लोग हैं जिनके पास रोज़गार के साधन नहीं हैं या फिर उन्हें समाज में भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
दर-दर की ठोकरें
गुमला के पास ही सिमडेगा ज़िले के कारीमाटी में कोइली देवी रहती हैं जिनकी 11 साल की बेटी संतोषी की मौत भूख से हो गई थी। संतोषी अब ज़्यादातर वक़्त बाहर रहती हैं क्योंकि 4 लोगों के परिवार को चलाने के लिए सब उनकी मज़दूरी पर ही निर्भर हैं।
महिला होने की वजह से इन्हें कम मज़दूरी में ही संतोष करना पड़ता है। बस कुछ ही दिन होते हैं जब उन्हें काम मिलता है और बाक़ी के दिन वो काम के लिए दर-दर की ठोकरें खाती रहतीं हैं। इसलिए वो काफी कमज़ोर हो गई हैं।
बेटी ने आंखों के सामने दम तोड़ा
वो दिन उनके दिमाग़ से नहीं हटता जब उनकी 11 साल की बेटी ने उनकी आंखों के सामने दम तोड़ दिया था। बात करते हुए वो कहती हैं, मैं मज़दूरी करती हूं। तब ऐसा हुआ कि कई दिनों तक मुझे काम नहीं मिल पाया। घर में अनाज नहीं था। बेटी भूखी थी। वो बार बार भात मांग रही थी। मगर मैं कहां से लाती। मैंने उसे लाल चाय बनाकर दी। मगर कुछ ही देर में उसने दम तोड़ दिया।
कोइली देवी कहतीं हैं कि उन्हें गांव के लोगों से भी मदद नहीं मिलती थी क्योंकि वो पिछड़े समाज से आती हैं। जब पानी भरने गांव के चापाकल पर जाती हैं तो उसके बाद पानी भरने वाले उसे धोकर पानी भरते हैं। उनका कहना था, क्या मदद मांगूं? छुआछूत करते हैं गांव के लोग। कोई चावल उधार भी नहीं देता क्योंकि अगर हम उधार वापस लौटाएंगे तो वो हमारे छुए चावल को नहीं लेंगे।
पैसे नहीं होते...
कोइली देवी का एक छोटा बेटा भी है और एक बेटी के अलावा पति हैं जो मानसिक रूप से विक्षिप्त हैं। सास भी हैं जो बूढी हैं। कमाने वाला कोई नहीं। उनकी अंधेरी झोपड़ी के चारों तरफ़ गंदगी पसरी हुई है। उन्हें बेटी के मरने का मलाल तो है साथ में ये भी मलाल है कि जब उनका बेटा दूसरे बच्चों को कुछ दुकान से लेकर खाता हुआ देखता है तो वो भी खाने की ज़िद करने लगता है। अब कहां से खिलाऊं उसको। उतने पैसे नहीं होते।
वैसे तो झारखंड के सुदूर ग्रामीण और जंगल के इलाकों में रहने वाले लोग कुपोषित ही हैं, मगर जो बुज़ुर्ग हैं और अकेले रहते हैं उनके लिए ज़िन्दगी काफी मुश्किल है। ना राशन कार्ड, ना मज़दूरी करने का सामर्थ्य और न ही कोई मदद। इन्हीं में से एक हैं बुधनी देवी जिन्होंने अपने 8 बच्चों को खोया है। अब वो दुनिया में अकेली हैं। सिर्फ़ पड़ोसियों के सहारे हैं।
सामाजिक कार्यकर्ताओं का आरोप
लुंगटू की जुलियानी तिर्की कहती हैं कि बुधनी की कौन उतनी देखभाल करेगा क्योंकि सब लोग अपने-अपने संघर्ष में लगे हुए हैं। कभी-कभार तो उनके लिए खाने को कुछ भेज देते हैं। मगर रोज़-रोज़ संभव नहीं हो पाता। यही वजह है कि शुक्रा नगेसिया ने 15 दिन पहले दाल खाई थी वो भी किसी पड़ोसी ने उनके लिए भिजवाई थी। सामाजिक कार्यकर्ताओं का आरोप है कि भूख से हुई मौतों के बाद सरकार लीपापोती करने की कोशिश करती रहती है।
भोजन का अधिकार अभियान ने भूख से हुई मौतों के सभी मामलों की जांच की और अपनी रिपोर्ट जारी की। अभियान से जुड़ी तारामणि साहू कहती हैं, भूख से हुई मौत के बाद संबंधित सरकारी महकमे के अधिकारी पीड़ित के घर जाते हैं और वहां अनाज रख देते हैं ताकि कोई ये ना कह सके कि कुछ नहीं खाने की वजह से मौत हुई है।
भूख जनित बीमारी
तारामणि कहतीं हैं कि भूख से जो लोग मरे उनमें ज़्यादातर वैसे लोग हैं जिनके परिवार के पास न कमाई का ज़रिया है ना राशन कार्ड। अब किसी की मौत होती है तो सरकारी अधिकारी कहते हैं भूख से नहीं बल्कि बीमारी से मरे हैं। ये कौन तय करेगा कि भूख से मरे हैं या बीमारी से?
भूख जनित बीमारी को कौन परिभाषित करेगा? लेकिन राज्य सरकार का कहना है कि झारखंड में भूख से मौत का एक भी मामला दर्ज नहीं हुआ है। सरकार के प्रवक्ता दीनदयाल बर्नवाल कहते हैं कि राज्य में अनाज की कमी भी नहीं है और हर प्रखंड में 100 क्विंटल अनाज गोदाम में रखा हुआ है।
भूख से हुई मौत को सत्यापित करना चुनौती
उनका कहना था, भारत मे झारखंड पहला और एकमात्र राज्य है जिसने भूख से हुई मौतों के सत्यापन के लिए एक प्रोटोकॉल बनाया है। सरकार ने इस काम के लिए सामाजिक संगठनों और कार्यकर्ताओं की भी मदद ली थी। सरकार ने भूख से हुई मौतों के सत्यापन के लिए एक प्रोटोकोल बनाया तो ज़रूर है।
मगर भूख से हुई मौत को सत्यापित करना सामाजिक कार्यकर्ताओं और पीड़ित परिवारों के लिए एक चुनौती है। सरकार कहती है कि बीमारी से मौत हुई, तो मृतकों के परिजन कहते हैं कि भूख से मौत हुई है। लेकिन भूख की वजह से हुई बीमारी के सत्यापन का कोई मॉडल किसी के पास नहीं है।