नवंबर में सेवानिवृत्त हो रहे भारत के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई (Chief Justice Ranjan Gogoi) ने अगले मुख्य न्यायाधीश के लिए न्यायाधीश शरद अरविंद बोबड़े (Judge Sharad Arvind Bobde) के नाम की अनुशंसा की है। न्यायाधीश बोबड़े का कहना है कि सभी मुक़दमों में न्याय सुनिश्चित करना उनका फौरी लक्ष्य है। परंपरा का पालन करते हुए मुख्य न्यायाधीश गोगोई ने सेवानिवृत्त होने से ठीक एक महीने पहले अपनी अनुशंसा विधि मंत्रालय को भेजी।
न्यायाधीश बोबड़े को अपनी अनुशंसा की एक प्रति भेजने से पहले न्यायाधीश गोगोई ने अन्य न्यायाधीशों के लिए पेस्ट्री का ऑर्डर किया। न्यायाधीश बोबड़े ने उन्हें चॉकलेट खिलाई। हालांकि ऐसी कोई परंपरा नहीं है। अपनी अनुशंसा में मुख्य न्यायाधीश गोगोई ने कहा कि न्यायाधीश बोबड़े भारत के मुख्य न्यायाधीश बनने के लिए उत्कृष्ट रूप से उपयुक्त हैं। 18 नवंबर को न्यायाधीश बोबड़े ने यदि मुख्य न्यायाधीश का कार्यभार संभाला तो उनके पास 18 महीने का ही कार्यकाल होगा। वो यदि न्यायपालिका में बहु-प्रतीक्षित सुधार करके उन्हें अमल में लाना चाहते हैं तो इसके लिए उनके पास समय बहुत अधिक नहीं होगा। लेकिन उनके सामने चुनौतियां ज़रूर कई होंगी।
सबसे बड़ी चुनौती होगी उन मामलों को निपटाने की जो लंबित पड़े हैं। भारतीय अदालतों में 3.53 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं। सर्वोच्च न्यायालय में ही 58,669 मामले लंबित हैं। इनमें से 40,409 मामले तो ऐसे हैं जो बीते 30 वर्षों से लंबित हैं। नवीनतम आर्थिक सर्वेक्षण में अनुमान लगाया गया है कि पांच साल के भीतर लंबित मामलों को निपटाने के लिए लगभग 8,521 न्यायाधीशों की ज़रूरत है। लेकिन उच्च न्यायालय और निचली अदालतों में 5,535 न्यायाधीशों की कमी है।
सर्वोच्च न्यायालय में आज की तारीख़ में न्यायाधीशों की संख्या 31 है। लेकिन आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया है कि उच्चतम न्यायालय को आठ अतिरिक्त न्यायाधीशों की आवश्यकता है। 'नेशनल ज्यूडीशियरी डेटा ग्रिड' के मुताबिक 43,63,260 मामले उच्च न्यायालयों में लंबित हैं। मुख्य न्यायाधीश गोगोई ने इस बात को रेखांकित किया था कि ज़िला और सब-डिविज़नल स्तरों पर स्वीकृत न्यायाधीशों की संख्या 18,000 है। लेकिन मौजूदा संख्या इससे कम 15,000 ही है। दिल्ली उच्च न्यायालय के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश का कहना था कि जिस गति से मामलों को निपटाया जा रहा है, उस हिसाब से लंबित आपराधिक मामलों को निपटाने के लिए 400 साल लग जाएंगे।
वो भी तब जब कोई नया मामला ना आए। हर साल मुक़दमों की संख्या बढ़ रही है, उसी हिसाब से लंबित मामलों की संख्या बढ़ रही है। इससे 'न्याय में देरी यानी न्याय देने से इंकार' की धारणा बलवती हो रही है। अदालतों में लंबित मामलों की बढ़ती संख्या से न्यायाधीश बोबड़े को चिंतित होना चाहिए। साल 1987 में विधि आयोग ने सुझाया था कि प्रत्येक दस लाख भारतीयों पर 10.5 न्यायाधीशों की नियुक्ति का अनुपात बढ़ाकर 107 किया जाना चाहिए। लेकिन आज ये अनुपात सिर्फ़ 15.4 है।
जेलों में बंद विचाराधीन क़ैदी : न्यायाधीश बोबड़े के लिए चिंता की दूसरी बात ये होगी कि किस तरह जेलों में बंद चार लाख विचाराधीन क़ैदी सुनवाई के लिए अंतहीन इंतज़ार कर रहे हैं। इनमें से बड़ी संख्या उन क़ैदियों की है जिन्हें ज़मानत मिल भी जाए तो ज़मानत के लिए रक़म नहीं चुका सकते। विचाराधीन क़ैदियों को तब तक दोषी नहीं माना जा सकता, जब तक कि उनका जुर्म साबित नहीं हो जाता।
साल 2009 में, लंबित मामलों को निपटाने और मुक़दमों में होने वाली देरी को दूर करने के लिए विचार-विमर्श के बाद कुछ रणनीतिक नीतिगत क़दम बढ़ाए गए थे जिनमें प्रक्रियागत ख़ामी को दूर करना, मानव संसाधन का विकास करना और निचली अदालतों में बुनियादी सुविधाओं को बेहतर बनाना शामिल था। लेकिन इस मोर्च पर बहुत अधिक काम नहीं हुआ। न्यायाधीश बोबड़े के लिए ये भी एक चुनौती होगी।
मुक़दमों की बढ़ती संख्या : साल 2012 में सर्वोच्च न्यायालय ने 'नेशनल कोर्ट मैनेजमेंट सिस्टम' आरंभ किया था, उसका आकलन है कि भारतीय अदालतों में साल 2040 तक मुक़दमों की संख्या बढ़कर 15 करोड़ हो जाएगी। इसके लिए 75,000 अदालतें और बनाने की आवश्यकता है। संसदीय विधान संबंधित मामले और वैश्वीकरण के बाद तेज़ी से बढ़ते क़ारोबारी विवाद मुक़दमों की संख्या को और बढ़ाएंगे। न्यायाधीश बोबड़े का कहना है कि मुक़दमों में न्याय सुनिश्चित करना उनकी प्राथमिकता होगी, ऐसे में देखना होगा कि इन चुनौतियों से वो कैसे पार पाते हैं।
कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टकराव बढ़ रहा है। कई मामले ऐसे हैं जहां कहा जाता है कि न्यायपालिका ने अधिक सक्रियता दिखाई है और ऐसा करके न्यायपालिका ने अपनी सीमारेखा का उल्लंघन करके कार्यपालिका के क्षेत्र में दख़ल दिया है। लेकिन ऐसा तभी हुआ है जब सरकार विफल हुई और न्याय सुनिश्चित करने के लिए न्यायपालिका को आगे आना पड़ा, क्योंकि न्याय के लिए और कोई रास्ता नहीं था। न्यायाधीशों की नियुक्ति पर भी सरकार के साथ टकराव रहा है। कॉलेजियम ने जो सुझाया, सरकार ने उस पर असहमति जताई। विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद ने हाल ही में कहा था कि सरकार को कॉलेजियम की सिफ़ारिशों पर राज़ी होना ही चाहिए, ऐसी उम्मीद नहीं की जानी चाहिए।
संबंध वकीलों के परिवार से : 24 अप्रैल 1956 को जन्मे न्यायाधीश बोबड़े नागपुर में पले-बढ़े। एसएफएस कॉलेज से उन्होंने बीए किया। साल 1978 में नागपुर यूनिवर्सिटी से क़ानून की डिग्री हासिल की। 13 सितंबर 1978 को उन्होंने वकील के तौर पर अपना नामांकन कराया और बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच में प्रैक्टिस की। साल 1998 में उन्हें सीनियर एडवोकेट नामित किया गया। 29 मार्च 2000 को उन्हें बॉम्बे हाईकोर्ट में एडिशनल जज नियुक्त किया गया। 16 अक्तूबर 2012 में मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में चीफ़ जस्टिस बनने के बाद अगले ही वर्ष साल 2013 में उन्हें उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीश बनाया गया। उनकी सेवानिवृत्ति की तारीख़ 23 अप्रैल 2021 है।
न्यायाधीश बोबड़े का संबंध वकीलों के परिवार से रहा है। उनके दादा एक वकील थे जिन्होंने शायद कभी कल्पना नहीं की होगी कि उनका पोता एक दिन सर्वोच्च न्यायालय में प्रधान न्यायाधीश होगा। उनके पिता अरविंद बोबड़े महाराष्ट्र में एडवोकेट जनरल रहे हैं। उनके बड़े भाई दिवंगत विनोद बोबड़े भी सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ वकील थे। उनकी बेटी रुक्मणि भी दिल्ली में वक़ालत कर रही हैं। बेटा श्रीनिवास भी मुंबई में पेशे से वकील है।
महत्वपूर्ण फ़ैसले : न्यायाधीश बोबड़े ऐसी कई बेंच में शामिल रहे जिन्होंने कई महत्वपूर्ण फ़ैसले सुनाए। इनमें आधार कार्ड से जुड़े फ़ैसले भी शामिल हैं। एक अन्य मामला उस महिला का है जिसे गर्भपात की इजाज़त नहीं दी गई क्योंकि भ्रूण 26 हफ्ते का हो चुका था और डॉक्टरों का कहना था कि जन्म के बाद शिशु के जीवित रहने की संभावना है। कर्नाटक सरकार ने माता महादेवी नामक एक किताब पर इस आधार पर प्रतिबंध लगाया था कि इससे भगवान बासवन्ना के अनुयायियों की भावनाएं आहत हो सकती हैं। न्यायाधीश बोबड़े उस बेंच में शामिल थे जिसने इस प्रतिबंध को बरकरार रखा था।
वे उस बेंच का भी हिस्सा थे जिसने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में भारी प्रदूषण की वजह से पटाखों की बिक्री पर रोक लगा दी थी। न्यायाधीश बोबड़े अयोध्या विवाद और एनआरसी से संबंधित बेंच में भी रहे। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश गोगोई के ख़िलाफ़ जब एक महिला कर्मचारी ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया, तो उन्होंने इस मामले में उठाए जाने वाले कदमों को तय करने के लिए न्यायाधीश बोबड़े से कहा। उस समय मुख्य न्यायाधीश गोगोई की आलोचना हो रही थी।
न्यायाधीश बोबड़े ने न्यायाधीश एनवी रमन और न्यायाधीश इंदिरा बनर्जी साथ इस आरोप की जांच-पड़ताल की थी जिसमें शिकायत को ग़लत पाया गया था। लेकिन इसकी रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया जिस पर काफी विवाद हुआ था। न्यायाधीश बोबड़े ने छह वर्ष पूर्व स्वेच्छा से अपनी सम्पत्ति ज़ाहिर की थी। इसमें उन्होंने अपनी बचत 21,58,032 रुपए और फिक्स्ड डिपोज़िट 12,30,541 रुपए बताए थे। उनके पास इसके अलावा मुंबई के एक फ्लैट में हिस्सा है और नागपुर में दो इमारतों का मालिकाना हक़ है।