प्रभाकर मणि तिवारी, कोलकाता से, बीबीसी हिंदी के लिए
क्या पश्चिम बंगाल के मौजूदा विधानसभा चुनावों में मुख्यमंत्री और टीएमसी अध्यक्ष ममता बनर्जी के लिए बीजेपी से मुकाबले की खातिर वाम का सहारा जरूरी हो गया है या फिर उन्होंने सोची-समझी रणनीति के तहत वाम समर्थकों से टीएमसी के पक्ष में वोट देने की अपील की है?
यूं तो उनकी पार्टी ने बीती जनवरी में भी लेफ्ट से बीजेपी के खिलाफ टीएमसी को समर्थन देने की अपील की थी। लेकिन अब बुधवार को पार्टी का चुनावी घोषणापत्र जारी करने के बाद उन्होंने एक बार फिर इसे दोहराया है।
ममता का कहना था, "लेफ्ट मौजूदा चुनावों में जीत कर सत्ता में नहीं आ सकता। इसलिए उसके समर्थकों को लेफ्ट फ्रंट का समर्थन कर अपना वोट बर्बाद नहीं करना चाहिए। इसके बजाय उनको बीजेपी को हराने के लिए टीएमसी को वोट देना चाहिए।" ममता की इस अपील के बाद राजनीतिक हलकों में सवाल उठ रहा है कि क्या ममता को बीजेपी की चुनौती कठिन लगने लगी है? क्या इसलिए उन्होंने लेफ्ट समर्थकों से टीएमसी के पक्ष में वोट डालने की अपील की है?
लंबे अरसे तक टीएमसी कवर करने वाले वरिष्ठ पत्रकार पुलकेष घोष ऐसा नहीं मानते। घोष कहते हैं, "लेफ्ट का तालमेल जब तक कांग्रेस के साथ था तब तक तो ठीक था। लेकिन पीरज़ादा अब्बासी की पार्टी इंडियन सेक्युलर फ्रंट (आईएसएफ़) के इस गठजोड़ में शामिल होने की वजह से लेफ्ट समर्थकों का एक गुट नाराज़ है। ऐसे लोगों का सवाल है कि अगर हमें सांप्रदायिक पार्टी की ही सहारा लेना है तो फिर आईएसएफ क्यों, दूसरी पार्टी क्यों नहीं?" वे बताते हैं कि इस नाराज़गी को ध्यान में रखते हुए ही ममता ने ऐसे वोटरों से बीजेपी की बजाय टीएमसी को वोट देने की अपील की है ताकि बीजेपी को हराया जा सके।
लेफ्ट के असंतुष्ट वोटरों का मिलेगा साथ?
घोष कहते हैं, "ममता बनर्जी और उनकी पार्टी के तमाम नेताओं के अलावा लेफ्ट और कांग्रेस नेता भी बीजेपी को सांप्रदायिक पार्टी बताते रहे हैं। इसलिए ममता ने इस सांप्रदायिक पार्टी को हराने के लिए लेफ्ट के असंतुष्ट वोटरों का समर्थन मांगा है।"
टीएमसी के वरिष्ठ नेता और पार्टी सांसद सौगत रॉय ने जनवरी में कहा था, "अगर लेफ्ट फ्रंट और कांग्रेस वास्तव में बीजेपी-विरोधी हैं तो उन्हें भगवा पार्टी की सांप्रदायिक और विभाजनकारी राजनीति के खिलाफ ममता बनर्जी के संघर्ष में साथ खड़ा होना चाहिए। ममता बनर्जी ही बीजेपी के खिलाफ धर्मनिरपेक्ष राजनीति का असली चेहरा हैं।"
पश्चिम बंगाल में बीते छह-सात वर्षों के दौरान होने वाले चुनावों के नतीजों से साफ है कि अगर टीएमसी को लेफ्ट के हिस्से के कुछ वोट भी मिल जाएँ तो चुनावी तस्वीर बदल सकती है।
घोष कहते हैं कि लेफ्ट के वोटरों के समर्थन की वजह से ही वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी की सीटें दो से बढ़ कर 18 तक पहुंच गई थीं।
अपनी दलील के समर्थन आंकड़ों के हवाले वे बताते हैं, "वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में टीएमसी को 39.05, लेफ्ट को 29.71, बीजेपी को 17.02 और कांग्रेस को 9.58 प्रतिशत वोट मिले थे।
दो साल बाद वर्ष 2016 के विधानसभा चुनावों में भी लेफ्ट को 25.69 और कांग्रेस को 12.25 प्रतिशत वोट मिले थे जबकि बीजेपी का हिस्सा 10.16 प्रतिशत रहा था।
ममता की अपील का असर होगा?
"लेकिन वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में टीएमसी को जहां 43.69 प्रतिशत वोट मिले वहीं बीजेपी लेफ्ट और कांग्रेस को पीछे धकेलते हुए 40.64 प्रतिशत तक पहुंच गई। इस चुनाव में कांग्रेस को 5.67 और लेफ्ट को 6.34 प्रतिशत वोट मिले। यानी दोनों के कुल वोट करीब 10 प्रतिशत रहे। इससे साफ़ है कि लोकसभा चुनाव में लेफ्ट के वोटों का एक बड़ा हिस्सा बीजेपी के खेमे में चला गया। अब ममता बनर्जी की निगाहें इन वोटरों पर ही हैं।"
दूसरी ओर, सीपीएम ने कहा है कि ममता की इस अपील का कोई असर नहीं होगा। सीपीएम नेता सुजन चक्रवर्ती कहते हैं, "ममता समझ गई हैं कि अबकी सत्ता में वापसी संभव नहीं है। बीते दस वर्षों के दौरान उन्होंने लेफ्ट की जड़ें खोदने में कोई कसर नहीं उठा रखी है। टीएमसी ने लेफ्ट के हजारों समर्थकों को बेघर बना दिया है। हमारे दर्जनों दफ्तरों पर कब्जा हो चुका है। वे कहते हैं कि राज्य सरकार ने लेफ्ट के नेताओं और कार्यकर्ताओं के खिलाफ झूठे मामले दायर किए हैं। इसके अलावा टीएमसी बीजेपी के साथ कंधे से कंधा मिला कर ध्रुवीकरण की राजनीति कर रही है। ऐसे में ममता बनर्जी लेफ्ट के समर्थन की उम्मीद कैसे कर सकती हैं?"
चक्रवर्ती का कहना है कि टीएमसी नेता समझ गए हैं कि वे बीजेपी का मुकाबला नहीं कर सकते। लेफ्ट ही बीजेपी से मुकाबले में सक्षम है। संयुक्त मोर्चा राज्य में विकल्प तीसरी ताकत के तौर पर सरकार बनाने के लिए मैदान में है। हमारे लिए बीजेपी और टीएमसी में कोई अंतर नहीं है। सीपीएम का आरोप है कि पश्चिम बंगाल में बीजेपी के उभार के लिए टीएमसी ही ज़िम्मेदार है।
बीजेपी नेता शमीक भट्टाचार्य कहते हैं कि ममता की अपील से साफ है कि वे लड़ाई से पहले ही हार कबूल कर चुकी हैं। लेकिन टीएमसी नेता सौगत राय का कहना है कि इस अपील का गलत मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए। राज्य में बीजेपी जैसी सांप्रदायिक ताकत को रोकने के लिए तमाम धर्मनिरपेक्ष दलों और लोगों का एकजुट होना ज़रूरी है।
वरिष्ठ पत्रकार तापस मुखर्जी कहते हैं, "बीजेपी से मिल रही कड़ी चुनौती के बीच ममता बनर्जी भगवा पार्टी को सत्ता में आने से रोकने के लिए ममता कुछ भी करने को तैयार हैं। आजीवन सीपीएम की कट्टर विरोधी रहीं ममता के लेफ्ट समर्थकों से समर्थन की अपील को भी उनकी इसी रणनीति का हिस्सा मानना चाहिए। अगर इस अपील का असर दो-तीन फीसदी लेफ्ट समर्थकों पर भी पड़ा तो नतीजों में काफी अंतर हो सकता है।"
राजनीतिक विश्लेषकों की राय में कांग्रेस और पीरज़ादा अब्बासी के साथ तालमेल के तहत चुनाव मैदान में उतरा लेफ्ट इस बार अपने पुराने जनाधार को वापस पाने की भरसक कोशिश कर रहा है। बीती 28 फरवरी को कोलकाता के ब्रिगेड परेड मैदान की रैली में जुटी भीड़ से लेफ्ट नेता बम-बम हैं।
राजनीतिक विश्लेषक समीर कुमार पाल कहते हैं, "बंगाल में लेफ्ट वोटरों की अब भी अच्छी तादाद है। अपने सबसे खराब प्रदर्शन (2019) के दौर में भी उसे छह फीसदी से ज्यादा वोट मिले थे। ऐसे में अगर यह वोट और लोकसभा चुनाव में बीजेपी के हिस्से में गए वोटों में कुछ प्रतिशत भी टीएमसी का समर्थन करता है तो चुनावी तस्वीर बदल सकती है। शायद इसी वजह से ऐन चुनावों के समय ममता ने यह अपील की है। उनको यह बात भी पता है कि आईएसएफ के साथ लेफ्ट की दोस्ती से लेफ्ट समर्थकों के एक गुट में असंतोष है। वे उसी असंतोष का फायदा उठाना चाहती हैं।"