उत्तर प्रदेश चुनाव: बीजेपी के लिए निषाद समाज का साथ क्यों ज़रूरी है?

BBC Hindi
शनिवार, 18 दिसंबर 2021 (08:02 IST)
भारतीय जनता पार्टी ने शुक्रवार को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में 'निषाद पार्टी' के साथ एक संयुक्त रैली का आयोजन किया। लखनऊ के रमाबाई मैदान में हुई इस रैली की ख़ास बात ये थी कि इसमें केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह से लेकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ समेत बीजेपी के बड़े नेता शामिल हुए।
 
इस महारैली की होर्डिंग में एक ओर बीजेपी के तमाम नेता दिख रहे थे, तो वहीं दूसरे सिरे पर डॉ संजय निषाद की तस्वीर थी। अमित शाह ने इस रैली में आश्वासन दिया है कि अगर बीजेपी की सरकार दोबारा बनती तो निषाद समुदाय के एजेंडे को पूरा किया जाएगा।
 
लेकिन दिलचस्प बात ये है कि इस रैली में निषाद समुदाय अपेक्षा कर रहा था कि अमित शाह निषाद समुदाय की अनुसूचित जाति में शामिल किए जाने की मांग को स्वीकार करेंगे। ऐसा नहीं हुआ। और इसकी नाराज़गी दूर-दूर से उम्मीद लगाकर आए लोगों के बयानों में दिखाई दी।
 
लेकिन लोगों ने इसे निषादों के नज़रिए से एक अहम रैली बताया है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि बीजेपी के लिए इस चुनाव में निषाद समाज और इस रैली की क्या अहमियत रहेगी।
 
बीजेपी के लिए कितने अहम हैं निषाद?
उत्तर प्रदेश की लगभग कई विधानसभा सीटों को प्रभावित करने वाला निषाद समुदाय दशकों से उत्तर प्रदेश की राजनीति में किंग मेकर की भूमिका निभाता रहा है।
 
बता दें कि निषाद समुदाय और संजय निषाद गोरखपुर उपचुनाव में बीजेपी को अपना दमखम दिखा चुके हैं। संजय निषाद के बेटे प्रवीण निषाद ने सपा के साथ मिलकर बीजेपी को उसके ही गढ़ गोरखपुर में मात दी थी।
 
हालांकि, इसके बाद बीजेपी उन्हें अपने साथ जोड़ने में सफल रही। मगर संख्याबल को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस से लेकर सपा और बसपा समेत तमाम दल निषादों को अपनी ओर लाने की कोशिश कर रहे हैं।
 
कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने हाल ही में एक वोट यात्रा के ज़रिए निषाद समाज का समर्थन हासिल करने की कोशिश की थी। लेकिन सवाल ये उठता है कि ये समुदाय बीजेपी की जीत में क्या भूमिका अदा कर सकता है।
 
राजनीतिक जानकार प्रोफेसर बदरी नारायण मानते हैं कि नदियों के किनारे बसने वाला ये समुदाय चुनावी गणित के लिहाज़ से काफ़ी ख़ास है।
 
वह कहते हैं, "उत्तर प्रदेश में निषाद हर नदी के किनारे पर पाए जाते हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में यमुना से सटे ग़ाजियाबाद और नोएडा से लेकर दूसरे तमाम इलाकों में ये समुदाय पाया जाता है। इसके बाद पूर्वांचल में गंगा के कछार क्षेत्र में इलाहाबाद से लेकर अन्य जगहों पर निषाद अच्छी ख़ासी संख्या में मौजूद हैं।
 
हर जगह निषाद एक महत्वपूर्ण समुदाय है जो कि राजनीति को प्रभावित करेगा। लेकिन निषाद हर दल के लिए महत्वपूर्ण है। बीजेपी लगातार इसे अपने साथ जोड़ने की कोशिश कर रही है। हालांकि, बीजेपी का इसमें पहले से ही काफ़ी आधार है।
 
इसके साथ ही समाजवादी पार्टी की भी हिस्सेदारी है इस समुदाय में। यही नहीं, बीएसपी भी इस समुदाय से वोट हासिल करती है। लेकिन इस बार लड़ाई इस बात की है कि सबसे ज़्यादा वोट किसे मिलेंगे। बीजेपी इसी दिशा में कोशिश कर रही है। बीजेपी की तमाम कल्याणकारी योजनाओं के ज़रिए जो लाभार्थी बने हैं, अब उन्हें अपनी ओर खींचने की कोशिश हो रही है।"
 
खुद को कांशीराम से प्रेरित बताने वाले डॉ संजय निषाद ने हाल ही में एक इंटरव्यू के दौरान कहा है कि सपा और बसपा की ओर से उनका ठीक ढंग से आकलन नहीं किया गया।
 
बीजेपी ने इससे पहले भी यूनियन कैबिनेट में उनके बेटे प्रवीण निषाद को जगह देने से जुड़ी उनकी मांग को स्वीकार नहीं किया था। इसके बावजूद उन्होंने इस चुनाव में बीजेपी के साथ गठबंधन किया है। और बीजेपी के साथ अपने भविष्य को लेकर आशांवित नज़र आते हैं।
 
लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या इस संजय निषाद उत्तर प्रदेश में बीजेपी को अपने समुदाय का एकमुश्त वोट दिलाने में कामयाब हो पाएंगे।
 
इस सवाल के जवाब में प्रोफेसर बदरी नारायण कहते हैं, "छोटे राजनीतिक दलों के नेता अपने समाज में अच्छा प्रभाव रखते हैं। और ये चुनाव को प्रभावित करेंगे। इस समय किसी भी राजनीतिक दल के पास बड़ा नेता नहीं है। कैप्टन जयनारायण प्रसाद निषाद एक नेता थे। अभी बिहार में मुकेश सहनी का प्रभाव है। यूपी में संजय निषाद का प्रभाव है।"
 
एक सवाल ये भी है कि संजय निषाद उत्तर प्रदेश में बीजेपी की जीत में कितनी बड़ी भूमिका निभा पाएंगे।
 
इस पर प्रोफेसर बदरी नारायण कहते हैं, "देखिए, चुनाव में एक - एक सीट महत्वपूर्ण होती है। आप एक - एक सीट जीतते जाइए तो आपकी संख्या बढ़ती जाएगी। ऐसे में हर एक समुदाय महत्वपूर्ण है। जनसंख्या में इनकी हिस्सेदारी के लिहाज़ से ये जिसके साथ भी जाएंगे, उसे फायदा होगा। अगर बीजेपी निषाद समुदाय को अनुसूचित जाति में डालने की मांग को स्वीकार करके इस बारे में घोषणा कर देती है तो इससे बीजेपी को बहुत बड़ा फायदा होगा।"
 
बीजेपी की ओर से इस रैली में निषाद समुदाय को अनुसूचित जाति में शामिल करने से जुड़ी कोई घोषणा नहीं की गयी है।
 
निषाद समुदाय का राजनीति इतिहास
बता दें कि बीजेपी से पहले समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी भी निषाद समुदाय के सहयोग से चुनाव जीतती रही हैं। डकैत से राजनेता बनीं फूलन देवी भी एक निषाद नेता थीं जिन्हें मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी की ओर से लोकसभा का टिकट दिया था।
 
इसके साथ ही मायावती भी इस समुदाय को अपनी ओर लाने की कोशिश करती रही हैं। लेकिन सवाल ये उठता है कि अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक राजनीति के लिए चर्चित बीजेपी निषाद समुदाय को लुभाकर क्या हासिल कर पाएगी।
 
उत्तर प्रदेश की राजनीति को क़रीब से समझने वाले योगेश मिश्र मानते हैं कि बीजेपी इससे क्या हासिल करेगी, ये इस पर निर्भर करेगा कि वह किस तरह का चुनाव लड़ रही है, फिलहाल वह विवशता भरी राजनीति करती दिख रही है।
 
वह कहते हैं, "उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण, ठाकुर, मुसलमान और दलित चार ऐसे समुदाय हैं जो कि पूरे प्रदेश में पाए जाते हैं। अन्य जातियां अलग - अलग जगहों पर छोटे - छोटे समूहों में पाई जाती हैं। और इन जातियों के कोई एक सर्वमान्य नेता नहीं हैं।
 
उदाहरण के लिए सपा नेता बेनी प्रसाद वर्मा कुर्मियों के नेता थे। लेकिन वह पूरे उत्तर प्रदेश के कुर्मियों के नेता नहीं थे। बल्कि बाराबंकी से बहराइच तक थे। बनारस के इलाके में जो कुर्मी समुदाय है, उसके नेता सोने लाल पटेल थे। इसी तरह फतेहपुर से बुंदेलखंड तक के इलाके में रहने वाले कुर्मियों की नेता प्रेमलता कटियार या विनय कटियार होते थे।
 
ऐसे में बीजेपी ये समझ नहीं पा रही है कि वह जिन लोगों को निषादों का नेता बनाना चाह रही है, वह एक क्षेत्र विशेष के नेता हैं। अब संजय निषाद ने 25 लाख लोगों की रैली करने की इजाज़त मांगी थी। मुझे लगता है कि सारे दल मिल जाएं तब भी 25 लाख लोग किसी रैली में नहीं आ सकते हैं। अब तक की सबसे बड़ी रैली मायावती की मानी जाती है जिसमें 1।5 से 2 लाख लोग आए थे।
 
ऐसे में सवाल ये है कि बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक राजनीति करने वाली बीजेपी जातिगत राजनीति करके चुनाव कैसे जीत सकती है जब संख्या के लिहाज़ से छोटी जातियों के बड़े नेता और ज़्यादा नेता क्षेत्रीय दलों के पास हैं। ज़्यादा इसलिए हैं क्योंकि क्षेत्रीय दलों ने अलग - अलग इलाकों से नेता लिए हैं।"
 
बीजेपी की दुविधा
लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या बीजेपी निषादों को अनुसूचित जाति की श्रेणी में शामिल करने का वादा किए बिना उनका समर्थन हासिल कर सकती है। और क्या ऐसा करके वह ऐच्छिक चुनावी बढ़त हासिल कर सकती है।
 
इस सवाल के जवाब में योगेश मिश्र कहते हैं, "मुझे बीजेपी की इस रणनीति में एक भारी विरोधाभास नज़र आता है। क्योंकि जहां एक ओर शीर्ष बीजेपी नेतृत्व दलितों को लुभाने की कोशिशें कर रहा है। तमाम कार्यक्रम हो रहे हैं, योजनाएं बनाई जा रही हैं। लेकिन वहीं, दूसरी ओर बीजेपी दलितों को मिले आरक्षण को निषाद समुदाय के साथ बांटने का संकेत देती हुई दिख रही थी
 
संजय निषाद लोगों को ये कहकर रैली में लेकर आए थे कि अमित शाह इस रैली में उन्हें अनुसूचित जाति में शामिल करने का आश्वासन देंगे। यह नहीं हुआ। इससे इस रैली में आए निषाद निराश हुए। संजय निषाद पूरे उत्तर प्रदेश में निषादों के नेता नहीं थे। लेकिन आज उनकी अगुआई में लोग इकट्ठे हुए थे।
 
अगर इसे बीजेपी के नज़रिए से देखा जाए तो अगर निषादों को अनुसूचित जाति का लाभ देने की कोशिश की जाएगी तो दलित समुदाय की तमाम जातियां जैसे पासी, बाल्मीकि, धोबी जो कि बीजेपी को वोट देती हैं। ये इससे नाराज़ होंगे। और बीजेपी अपना नुकसान कर लेगी। तो ये ऐसा है कि बीजेपी को चित और पट दोनों में नुकसान है। क्योंकि दलित समाज ये कैसे स्वीकार कर लेगा कि उसको मिलने वाला लाभ निषाद समुदाय के साथ बांटा जाए।"
 
उत्तर प्रदेश में ओम प्रकाश राजभर से लेकर हरिशंकर तिवारी और जयंत चौधरी जैसे नेताओं के समाजवादी पार्टी के साथ जुड़ने के बाद बीजेपी अलग - अलग तरीकों से अपनी ज़मीनी स्थिति सुधारने की कोशिश कर रही है।
 
लेकिन क्या इन तमाम समुदायों की अलग - अलग मांगों को स्वीकार किए बिना बीजेपी उनका समर्थन हासिल कर पाएगी। ये अब तक एक सवाल बना हुआ है जिसका जवाब चुनाव के नतीजों में मिलेगा।

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