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रायबरेली में कितनी मुश्किल है सोनिया गांधी की राह: लोकसभा चुनाव 2019

हमें फॉलो करें रायबरेली में कितनी मुश्किल है सोनिया गांधी की राह: लोकसभा चुनाव 2019
, रविवार, 14 अप्रैल 2019 (08:29 IST)
समीरात्मज मिश्र, रायबरेली से बीबीसी हिंदी के लिए
गुरुवार को रायबरेली में रोड शो और नामांकन के बाद सोनिया गांधी से पत्रकारों ने जब नरेंद्र मोदी और 2019 के लोकसभा चुनाव के बारे में सवाल किया तो शोरगुल में सोनिया गांधी की धीमी आवाज में सिर्फ यही सुनाई पड़ा, '2004 में अटल जी भी अजेय थे लेकिन कांग्रेस ने उन्हें हरा दिया।'
 
सोनिया गांधी रायबरेली से करीब 15 साल से सांसद हैं। स्वास्थ्य कारणों से इधर उनका रायबरेली दौरा जरूर काफी कम हो गया है लेकिन उनका ये आत्मविश्वास इस बात का संकेत दे रहा था कि फिलहाल रायबरेली में उन्हें कोई 'चुनावी खतरा' नहीं है। लेकिन सवाल उठता है कि क्या वास्तव में ऐसा है?
 
आंकड़ों पर गौर किया जाए तो सोनिया गांधी जब से इस सीट पर चुनाव लड़ रही हैं तब से उन्हें हराना तो दूर की बात, ठीक-ठाक चुनौती भी नहीं मिल पाई, 2014 की 'मोदी लहर' में भी नहीं। 2014 में सोनिया गांधी के खिलाफ बीजेपी ने अजय अग्रवाल को मैदान में उतारा था लेकिन वो करीब पौने दो लाख वोट ही पा सके और सोनिया गांधी से उनकी हार का अंतर साढ़े तीन लाख से ज्यादा मतों का रहा।
 
ये जरूर है कि साल 2014 में रायबरेली सीट पर भारतीय जनता पार्टी न सिर्फ पहली बार दूसरे नंबर पर रही बल्कि अब तक महज कुछ हजार मतों पर सिमटने वाली इस पार्टी को एक लाख तिहत्तर हजार वोट मिले। बीजेपी ने इस बार अजय अग्रवाल की बजाय कुछ समय पहले तक कांग्रेस के ही वफादार रहे एमएलसी दिनेश प्रताप सिंह को टिकट दिया है।
 
मुंशीगंज गोलीकांड के बाद
रायबरेली में पचास सालों से रह रहे प्रोफेसर राम बहादुर वर्मा बहुत ही स्पष्ट तरीके से कहते हैं कि सोनिया गांधी को इस बार भी किसी से कोई चुनौती नहीं है।
 
राम बहादुर वर्मा फिरोज गांधी पीजी कॉलेज में चालीस साल तक राजनीति शास्त्र पढ़ाने के बाद इस कॉलेज के प्रिंसिपल भी रहे हैं। वह कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी) यानी सीपीएम से अभी भी जुड़े हैं और इस पार्टी से चुनाव भी लड़ चुके हैं।
 
प्रोफेसर वर्मा के मुताबिक, 'गांधी परिवार से रायबरेली का राजनीतिक जुड़ाव पिछली पांच पीढ़ियों से है। इसकी शुरुआत 1921 में तब हुई जब किसान आंदोलन के दौरान मुंशीगंज गोलीकांड में बड़ी संख्या में किसानों की मौत हो गई थी और जवाहर लाल नेहरू कुछ घंटों के भीतर यहां पहुंच गए थे। मोतीलाल नेहरू भी आए और पूरी कांग्रेस पार्टी किसानों के पीछे खड़ी रही। इन्हीं की वजह से इस घटना और इस आंदोलन को व्यापक स्वरूप दे दिया गया। उसके बाद नमक सत्याग्रह भी उत्तर प्रदेश में रायबरेली से ही शुरू हुआ जिसमें इंदिरा गांधी, विजयलक्ष्मी पंडित और दूसरे नेता शामिल रहे। तब से लेकर अब तक रायबरेली गांधी परिवार की कर्मभूमि बनी हुई है।'
 
इसके अलावा प्रोफेसर वर्मा स्थानीय मुद्दों, मौजूदा उम्मीदवार और जातीय समीकरण को भी सोनिया गांधी के प्रतिकूल नहीं देखते हैं। वह कहते हैं, 'इस बार तो सपा और बसपा भी उन्हें अपना समर्थन दे रहे हैं, जबकि 2014 से पहले जो भी चुनौती थी, उन्हें इन्हीं दोनों पार्टियों के उम्मीदवारों से मिलती थी। इस संसदीय सीट पर बीजेपी तो कभी चुनौती बनकर खड़ी ही नहीं हुई।
 
दूसरे, बीजेपी ने इस बार जिस उम्मीदवार को उतारा है, उनकी छवि पार्टी बदलने वाले की है जो लोगों को बहुत अपील भी नहीं करेगी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यहां के लोगों का इस परिवार से जुड़ाव राजनीतिक कम, भावनात्मक ज्यादा है।
 
सपा-बसपा का समर्थन
रायबरेली में करीब 31 प्रतिशत मतदाता दलित समुदाय से और 42 प्रतिशत मतदाता पिछड़ी जातियों के हैं और ये किसी भी चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। कांग्रेस उम्मीदवार सोनिया गांधी को सपा और बसपा दोनों ने समर्थन देने की घोषणा की है जिसे राजनीतिक विश्लेषक उनके लिए फ़ायदेमंद ही देख रहे हैं।
 
दूसरी ओर, बीजेपी ने पिछली बार पौने दो लाख वोट पाने वाले अजय अग्रवाल को टिकट न देकर व्यापारी समुदाय को भी कुछ हद तक नाराज किया है। अजय अग्रवाल ने तो खुले तौर पर कह दिया था कि यदि उन्हें टिकट नहीं दिया गया तो बीजेपी को पूरे प्रदेश में नुक़सान हो सकता है। हालांकि, स्थानीय लोगों के मुताबिक, यहां ये सब बातें बहुत ज़्यादा मायने नहीं रखतीं।
 
लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में 71 सीटें जीतने से उत्साहित बीजेपी ने जिस तरीके से अमेठी और रायबरेली में कांग्रेस को घेरने की कोशिश की है, उसे देखते हुए इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि समीकरण अब पहले जैसे नहीं रहेंगे। ये बात अलग है कि बदले समीकरण सोनिया गांधी को हराने के लिए पर्याप्त हैं या नहीं।
 
करीब एक साल पहले दिनेश प्रताप सिंह और उनके परिवार को कांग्रेस छोड़ने के बाद बीजेपी में शामिल कराने के लिए बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह जिस अंदाज और भव्य तरीके से यहां पहुंचे थे उसे देखकर ऐसा लगा कि अब सोनिया गांधी की राह रायबरेली में आसान नहीं होगी।
 
अमित शाह ने उस मौक पर कांग्रेस पार्टी पर तमाम आरोप लगाते हुए लोगों को आश्वासन दिया था कि वो रायबरेली को न सिर्फ भारत का आदर्श जिला बनाएंगे, बल्कि कहा था कि 'रायबरेली का विकास दिन दूनी रात चौगुनी करने की जिम्मेदारी भाजपा लेती है।'
 
लेकिन, उसके करीब आठ महीने बाद रेल कोच फैक्ट्री की एक यूनिट का उद्घाटन करने पहुंचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यक्रम में पहुंचे लोगों के उत्साह को देखकर ऐसा नहीं लगा कि अमित शाह रायबरेली की जनता का दिल जीतने और उसे 'कांग्रेस और गांधी परिवार के खिलाफ' करने में कामयाब हो सके हैं।
 
स्थानीय लोगों के मुताबिक, ऐसा नहीं है कि रायबरेली के लोग सिर्फ भावनात्मक रूप से ही गांधी परिवार से जुड़े हैं बल्कि इस परिवार के लोगों ने यहां का प्रतिनिधित्व करते हुए विकास भी किया है। सिविल लाइंस इलाकेे में कंप्यूटर की एक दुकान चलाने वाले वीरेंद्र सिंह कहते हैं, 'रायबरेली की राष्ट्रीय पहचान और यहां हुए विकास कार्य कांग्रेस की ही देन हैं। शिक्षा से लेकर रोज़गार तक हर क्षेत्र में यहां तमाम काम हुए हैं जिससे लोगों को सीधा फायदा हुआ है।'
 
कार से बाहर न आने पर नाराजगी
गुरुवार को रोड शो के दौरान भीड़ की स्थिति और उत्साह देखकर कांग्रेस पार्टी के प्रति लोगों का लगाव साफ दिख रहा था। हां, ये जरूर था कि इस दौरान गांधी परिवार के सदस्यों का 'गाड़ी के भीतर ही रहना और शीशा तक न खोलना' कुछ लोगों को 'अखर' गया। एक महिला बेहद निराश स्वर में बोल पड़ीं, 'हम सब एनही लोगन के देखइ आइ रहे। घंटन से इहीं खड़ी अही। तनी बहेरवां निकरि जातेन त का होई जात।'
 
स्थानीय पत्रकार माधव सिंह कहते हैं कि नामांकन और रोड शो के बाद इस बात से लोगों में काफी नाराजगी थी कि गांधी परिवार किसी से मिला नहीं। माधव सिंह दिनेश प्रताप सिंह की उम्मीदवारी को भी बहुत कमजोर नहीं मान रहे हैं।
 
वह कहते हैं, 'सोनिया गांधी के खिलाफ राजनीतिक कद में दिनेश प्रताप सिंह भले ही बौने नजर आ रहे हों लेकिन आम लोगों को व्यक्तिगत रूप से इस परिवार ने जितना लाभान्वित किया है, उससे उन्हें हल्के में नहीं लेना चाहिए। इनके एक भाई विधायक, एक भाई जिला पंचायत अध्यक्ष हैं और तमाम लोगों के यहां सोलर लाइट्स और हैंडपंप का तोहफा दे चुके हैं। मतदाता के लिए ये सब बड़ी चीजें होती हैं और मतदान पर सीधा असर डालती हैं।'
 
माधव सिंह की बात का समर्थन कुछ स्थानीय लोग भी करते हैं लेकिन इन सबकी वजह से सोनिया गांधी का पलड़ा कमजोर है, ऐसा निष्कर्ष निकालना थोड़ा मुश्किल है। यहां दिलचस्प बात ये है कि कांग्रेस के लिए रायबरेली अमेठी जैसी ही मजबूत सीट है लेकिन अमेठी में गांधी परिवार को वहां की जनता ने कभी नहीं नकारा जबकि रायबरेली में खुद इंदिरा गांधी चुनाव हार चुकी हैं।
 
1977 में इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री रहते हुए इस सीट से भारतीय लोकदल के उम्मीदवार राजनारायण से चुनाव हार गई थीं। ये अलग बात है कि अब तक हुए सोलह चुनावों में 13 बार कांग्रेस पार्टी ही जीती है। हां, विधानसभा चुनाव में स्थिति जरूर अलग हो जाती है। यदि 2017 के विधान सभा चुनाव की बात करें तो पांच में से कांग्रेस को सिर्फ दो सीटें ही हासिल हुई थीं।
 
स्थानीय लोगों के मुताबिक, लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव दोनों में बिल्कुल अलग तरीके से लोग वोट डालते हैं।
 
रायबरेली की अलग पहचान
प्रोफेसर रामबहादुर वर्मा कहते हैं, 'लोकसभा में सोनिया गांधी या फिर गांधी परिवार के लिए लोगों की सोच अलग होती है। दूसरी पार्टियों के लोग भी इन्हीं को जिताना चाहते हैं। इनके जीतने से रायबरेली की एक अलग पहचान होती है, उसे यहां के लोग महसूस करते हैं।' प्रोफेसर वर्मा हँसते हुए कहते हैं, 'मैं खुद कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ा हूं लेकिन क्षेत्र में सोनिया गांधी को वोट देने की अपील कर रहा हूं।'
 
लखनऊ में हिन्दुस्तान टाइम्स की वरिष्ठ पत्रकार सुनीता ऐरन कहती हैं कि अभी तक की राजनीतिक परंपरा यही थी कि किसी भी बड़ी पार्टी के नेता या फिर किसी अन्य बड़े नेता के खिलाफ विरोधी पार्टियां बहुत मजबूत उम्मीदवार उतारती भी नहीं थीं और न ही उन्हें घेरने की कोशिश करती थीं। लेकिन बड़े नेताओं की सीट को किसी भी कीमत पर जीत लेने की बीजेपी ने नई परंपरा शुरू की है।
 
वो कहती हैं, 'बीजेपी के किसी बड़े नेता ने अमेठी-रायबरेली में रैली नहीं की और न ही कांग्रेस नेता सोनिया गांधी ने कभी अटल जी के क्षेत्र लखनऊ में रैली की। हां, मोहनलालगंज जैसे लखनऊ के नजदीकी इलाके में भले ही सोनिया ने सभा की लेकिन लखनऊ में नहीं की। पर, राजनीति में अब ये शिष्टाचार वाला दौर खत्म हो चुका है।
 
पिछले एक साल में रायबरेली में बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, वित्त मंत्री अरुण जेटली, कपड़ा मंत्री स्मृति ईरानी जैसे तमाम नेता दौरे कर चुके हैं और कांग्रेस पार्टी को घेर चुके हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी रायबरेली में कई सभाएं और कार्यक्रम कर चुके हैं। एक बड़े राजनीतिक परिवार को कांग्रेस से अलग कर बीजेपी में शामिल कराने के पीछे भी यही मकसद था कि रायबरेली में सोनिया गांधी को राजनीतिक मुसीबत में डाल दिया जाए।
 
लेकिन, कांग्रेस पार्टी के लिए लगभग अपराजेय समझी जाने वाली इस सीट पर बीजेपी क्या सोनिया गांधी को घेर पाएगी? इस सवाल के जवाब में लखनऊ में एशियन एज की वरिष्ठ पत्रकार अमिता वर्मा कहती हैं, 'इतना आसान तो ख़ैर नहीं है, ये बीजेपी भी जानती है। लेकिन बीजेपी को लगता है कि ऐसा करके वो अपने कार्यकर्ताओं में उत्साह जरूर बढ़ा सकती है। सोनिया गांधी को घेरने की बीजेपी कितनी भी रणनीति बनाए, कोशिश करे, लेकिन जीत का अंतर कम कर सकती है, पराजित करना काफ़ी मुश्किल है।'
 
अमिता वर्मा भी कहती हैं कि रायबरेली और अमेठी में लोग राजनीतिक रूप से नहीं बल्कि भावनात्मक रूप से जुड़े हैं और जब तक इस परिवार के लोग खुद चुनावी मैदान में हैं, उन्हें हराना नामुमकिन भले न हो, लेकिन आसान भी नहीं है।

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