आपकी कल्पना में 14 साल की एक लड़की कैसी होगी? वो स्कूल जा रही है, अपने दोस्तों के साथ खिलखिलाकर हँस रही है, शीशे में ख़ुद को देखकर मुस्कुरा रही है। मगर क्या आप ये सोचेंगे कि 14 साल की लड़की अपने बलात्कारी के बच्चे को पाल रही है और देश की किसी संस्था को 'उसकी चिंता नहीं हो रही'?
दिल्ली से 680 किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश का बहराइच ज़िला। इसके एक गांव में रहती है वो लड़की जिसे बलात्कार के चलते माँ बने अब डेढ़ साल हो चुका है। बात जून 2016 की है जब उस बच्ची का पेट दिखने लगा। आस-पड़ोस की औरतों ने पूछा कि आख़िर ये कैसे हुआ? तब पता चला कि उसके पेट में पल रहा बच्चा बलात्कार का नतीजा है। आरोप गाँव के ही एक 55 साल के व्यक्ति पर लगा, जिस पर भरोसा कर उसके पिता ने उसे लखनऊ भेजा था।
'चाकू की नोक पर बलात्कार'
पिता और वो लड़की, दोनों अनपढ़ हैं। उसकी मां कई साल पहले चल बसी थीं। एक कच्चे घर में रहते हैं। ग़रीबी रेखा से काफ़ी नीचे ज़िंदग़ी गुज़र रही है। एकमात्र पहचान अनुसूचित जाति की है।
पिता ने बड़ी बहन की शादी तो जैसे-तैसे कर दी थी, लेकिन अब उसकी शादी पिता के लिए चिंता बनती जा रही थी। अभियुक्त ने उसके पिता से कहा कि लखनऊ में ग़रीब लड़कियों की शादी के लिए सरकार से पैसा मिल जाता है इसलिए बेटी को उसके साथ भेज दें ताकि उसे आर्थिक मदद मिल जाए।
पिता कहते हैं, "मदद तो दूर की बात, उसने मेरी बेटी को लखनऊ ले जाकर चाकू की नोक पर उसका बलात्कार किया। उसके बाद नानपारा (बहराइच का क़स्बा) में फिर से बलात्कार किया। यहाँ तक कि घर वापस आते हुए फिर से उसके साथ यही किया।"
घर वापस आकर तो उसने डर के मारे किसी से कुछ नहीं कहा, लेकिन छह महीने बाद जब कहानी पता चली तो उसके पिता ने पास के पुलिस थाने में 24 जून 2016 को अभियुक्त के ख़िलाफ़ मामला दर्ज करवाया।
क़ानून कहता है कि अगर कोई अनुसूचित जाति के व्यक्ति के ख़िलाफ़ अपराध करता है तो उसे अग्रिम ज़मानत नहीं मिल सकती। उसकी गिरफ़्तारी के बाद उसे ज़मानत देना, ना देना कोर्ट पर निर्भर करता है। लेकिन दो साल बाद भी इस केस में ना कोई गिरफ़्तारी हुई, ना लड़की को मुआवज़े के तौर पर कोई आर्थिक मदद दी गई। इस बीच लड़की ने बच्चे को भी जन्म दे दिया।
जिस परिवार की अपनी ज़िंदग़ी मुश्किलों में गुज़र रही थी उसे अब एक बच्चे को भी पालना था। अब मामला इस बात पर आकर टिका कि यदि बच्चे का डीएनए अभियुक्त के डीएनए से मेल खा जाता है तो उस पर कार्रवाई होगी। पुलिस का कहना है कि आज भी उसे डीएनए रिपोर्ट का इंतज़ार है।
सिस्टम का अपराध कौन तय करेगा
सिस्टम में हर स्तर पर बलात्कार पीड़िता की मदद के लिए सख़्त कानून, दिशा-निर्देश और न्यायिक संस्थाएं बनाई गई हैं। लेकिन क्या वो हर बार उसके पक्ष में काम करती हैं?
एक अनुसूचित जाति की नाबालिग लड़की जिसके पेट में बलात्कार का सबूत छह महीने का एक बच्चा था, ऐसे गंभीर और संवेदनशील मामले पर देश, राज्य या ज़िले की किसी संस्था को उसकी मदद के लिए पहुँच जाना चाहिए था। लेकिन इतने वक़्त के बाद भी उस लड़की को मदद का इंतज़ार है।
इस मामले की पड़ताल के लिए मैं बलात्कार पीड़िता और उसके पिता से मिलने के बाद उस थाने पर गई जहाँ इस मामले की रिपोर्ट लिखवाई गई थी। थाने की एसएचओ एक महिला पुलिस अफ़सर ही थीं। वो उस वक्त इलाक़े के स्थानीय नेताओं के किसी विवाद को सुलझाने में व्यस्त थीं। फिर भी उन्होंने कुछ मिनट निकालकर मुझे जानकारी दी कि ये मुक़दमा सर्कल अफ़सर (सीओ) की देख-रेख में है।
दोपहर के क़रीब दो बजे जब बहराइच के सर्कल अफ़सर के दफ़्तर पहुँची तो अफ़सर तो मौजूद नहीं थे, उनके पेशकार ने बताया कि लखनऊ में डीएनए जाँच से संबंधित 5500 मुक़दमे बाक़ी पड़े हैं और बिना रिपोर्ट आए वो किसी को गिरफ़्तार कैसे कर सकते हैं।
इसके बाद मैंने उनसे पूछा कि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम के मुताबिक़ क्या पीड़िता को कोई मुआवज़ा दिया गया था? पेशकार ने माना कि एफ़आईआर और मेडिकल जाँच के आधार पर एक अनुसूचित जाति की बलात्कार पीड़िता को मुआवज़े की रक़म का 50 फ़ीसदी तत्काल मिल जाता है।
अप्रैल 2016 में आए केंद्र सरकार के नए नियमों के मुताबिक़ अनुसूचित जाति एवं जनजाति की बलात्कार पीड़िता को कुल पाँच लाख रुपए मुआवज़ा दिया जाता है। अगर वह गैंगरेप की शिकार है तो ये रक़म सवा आठ लाख है। यानी इस मामले में पीड़िता ढाई लाख की हक़दार थी।
लेकिन इस मामले में कोई मुआवज़ा नहीं दिया गया था तो पेशकार मुझे टालने लगे कि साथ वाले कमरे में बैठे पुलिसकर्मी मुआवज़ा देते हैं। जब मुआवज़ा जारी करने वाले पुलिसकर्मी के सामने मैंने सवाल दोहराया तो उन्होंने कहा कि जब जाँच अधिकारी लिखकर देते हैं तब हम मुआवज़ा जारी करते हैं।
अब बात फिर से सीओ दफ़्तर पर आ गई थी। जब मैंने इन दोनों को आमने-सामने किया तो सीओ के पेशकार ने कहा, "वैसे तो दो साल पहले ही मुआवज़ा भिजवा देना चाहिए था, लेकिन कोई बात नहीं, कल भिजवा देते हैं।"
जितने हल्के अंदाज़ में ये बात कही गई थी, बात उतनी छोटी नहीं है। ये मुआवज़ा अगर उस ग़रीब लड़की को वक़्त पर मिलता तो वह इसे अपने इलाज, क़ानूनी मदद या अपने बच्चे के लिए इस्तेमाल कर सकती थी।
इस बात को लापरवाही या भूल भी कहा जा सकता है, लेकिन पुलिस जांच में किस तरह पीड़िता और उसके पिता के अनपढ़ और संसाधनविहीन होने का फ़ायदा उठाया जा सकता है, ये मामला इस बात का एक उदाहरण है।
मेडिकल रिपोर्ट में बच्ची की उम्र 19 साल कैसे?
पीड़िता के पिता के मुताबिक़ जब बलात्कार हुआ तब पीड़िता की उम्र 14 साल थी। मजिस्ट्रेट के सामने हुए बयान में भी उसकी उम्र 14 साल है। मगर एफ़आईआर में उसकी उम्र 20 साल लिखी गई है। अगर पीड़िता की उम्र 18 साल से कम हो तो एफ़आईआर में 'लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (पोक्सो एक्ट)' की धारा भी लगाई जानी चाहिए थी।
इस मामले की एफ़आईआर में ऐसा नहीं किया गया। पेशकार से इस बारे में पूछा तो उन्होंने मुझे इस मामले में दो साल पहले हुई मेडिकल जाँच के काग़ज़ात दिखाए। पीड़िता की सही उम्र पता करने के लिए उसकी हाथ की हड्डियों का एक्स-रे भी मेडिकल रिपोर्ट के साथ जोड़ा गया था और मेडिकल रिपोर्ट में उसकी उम्र 19 साल लिखी गई थी।
मैंने रिपोर्ट को सरसरी निगाह से देखकर पेशकार से कहा कि परिवार का दावा है कि वो घटना के वक्त 14 साल की थी तो रिपोर्ट में उसकी उम्र 19 साल होना कैसे मुमकिन है?
उन्होंने यक़ीन से कहा कि एक्स-रे तो झूठा नहीं हो सकता है। ध्यान से रिपोर्ट देखी तो पुलिस की जांच पर संदेह के कुछ निशान दिखे। दरअसल, पीड़िता की उम्र पता करने के लिए जब मेडिकल कार्ड बनाया गया था तो उस पर एक्स-रे का नंबर काली स्याही से 1278 लिखा गया था। लेकिन रिपोर्ट के साथ लगाए गए एक्स-रे पर नंबर लिखा था 1378।
एक दिन बाद की फाइनल रिपोर्ट में भी एक्स रे का नंबर 1378 ही लिखा गया था। मगर पहले दिन के मेडिकल कार्ड में 1278 के 2 को नीली स्याही से 3 बना दिया गया था। फ़ाइनल रिपोर्ट भी आधी नीली स्याही से लिखी गई थी और आधी काली स्याही से। पीड़िता के अंगूठे का निशान भी उस पर ले लिया गया था।
मैंने ये सब देखकर पेशकार और रिकॉर्ड रूम में बैठे एक और पुलिसवाले से पूछा कि मेडिकल रिपोर्ट में इस छेड़छाड़ को कैसे अनदेखा किया गया? कोई जवाब देने की बजाए उन्होंने मुझसे सिर्फ़ इतना ही पूछा कि मुझे इस केस के बारे में किसने बताया।
यहाँ तक कि एफ़आईआर 24 जून 2016 को दर्ज हुई और पीड़िता का मजिस्ट्रेट के सामने बयान 25 दिन बाद 19 जुलाई 2016 को करवाया गया जबकि सुप्रीम कोर्ट के 2014 के आदेश के मुताबिक पीड़िता का बयान 24 घंटे के अंदर हो जाना चाहिए। किसी भी देरी की ठोस वजह पुलिस को लिखित में मजिस्ट्रेट को देनी होती है।
पीड़िता के पिता को पुलिस की जांच पर भरोसा नहीं है क्योंकि उनका आरोप है कि 'अभियुक्त ने हर तरह से जांच को पैसे के दम पर प्रभावित किया है'।
किसी आयोग से कोई मदद नहीं आई
हैरानी की बात ये है कि पीड़िता के वकील ने भी इस गड़बड़ी को नहीं पकड़ा और ना किसी मुआवज़े के लिए कभी कोई दरख़्वास्त दी। जब पुलिस और क़ानून ने निराश किया तो पीड़िता के पिता ने गाँव प्रधान की मदद से देश के 11 अहम पदों पर बैठे लोगों और संस्थाओं से मदद की गुहार लगाई, लेकिन दो साल में कोई उनके पास नहीं पहुँचा।
प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, ज़िलाधिकारी, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, राज्य अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग, राष्ट्रीय अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग, परिवहन मंत्री, विधायक, राष्ट्रीय महिला आयोग, राज्य महिला आयोग, डीआईजी- इन सभी को भेजी गई अर्जियों की कॉपी मेरे पास है।
बहराइच से वापस आकर मैंने तीन जून 2018 को मामले की जानकारी बहराइच की ज़िलाधिकारी माला श्रीवास्तव को फ़ोन पर दी और ई-मेल के ज़रिए लिखित में भी। एक हफ़्ते बाद 11 जून को जब उनसे कार्रवाई को लेकर दोबारा पूछा तो उन्होंने सिर्फ़ इतना कहा कि जाँच कर रहे हैं। मुआवज़े को लेकर उन्होंने बताया कि संबंधित विभाग को जानकारी दे दी गई है। इसके अलावा क्या क़दम उठाए गए हैं, उस पर उन्होंने कोई जानकारी नहीं दी।
इसके बाद उत्तर प्रदेश के राज्य अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग के अध्यक्ष पूर्व डीजीपी बृजलाल को मैंने फ़ोन पर इसकी जानकारी दी। उन्होंने मुझसे कहा कि पीड़ित परिवार को उनके लखनऊ दफ़्तर भेज दें। मैंने उन्हें बताया कि ये परिवार बिल्कुल अनपढ़ और संसाधनविहीन है तो क्या आयोग से कोई इनके पास आ सकता है? उन्होंने साफ़ इनकार कर दिया। उनका कहना था कि उनके पास कोई सदस्य या प्रतिनिधि नहीं है जो वहां जा सके।
जिस लड़के ने अस्पताल का ख़र्च उठाया...
पुलिस ने एक मासूम बच्ची के मुक़दमे में कैसे कार्रवाई की, इसकी झलक मुझे सर्कल अफ़सर के दफ्तर में देखने को मिली। वहाँ हर कमरे में मुझे दूसरे कमरे का रास्ता दिखाया गया। मेरी मौजूदगी में उन्होंने मदद का भरोसा दिलाया मगर ये रिपोर्ट लिखते समय तक उस परिवार से किसी ने संपर्क तक नहीं किया है।
ये भी हैरान करने वाली बात है कि एक अनपढ़, ग़रीब और कमज़ोर बलात्कार पीड़िता के अधिकारों की कितने स्तरों पर अनदेखी की जा सकती है। जब वो पुलिस के पास गई, जब वो मेडिकल अफ़सर के पास गई, जब वो वकील के पास गई और जब मदद के लिए उसने दर्जन भर संस्थाओं को गुहार लगाई। मदद कहीं से नहीं आई।
मेरे पूछने पर पता चला कि किसी आर्थिक सहायता के बारे में इस परिवार को नहीं पता था और किसी भी अधिकारी ने उन्हें बताया भी नहीं। ना कभी अभियुक्त को गिरफ़्तार किया गया और ना डीएनए रिपोर्ट आई, ना मुआवज़ा मिला, ना इलाज। यहाँ तक कि क़ानूनी मदद भी नहीं।
रिश्तेदारी के जिस लड़के ने अस्पताल का ख़र्च उठाया, अब पखारपुर में उसी की पत्नी के तौर पर पीड़िता रहती है बिना अपने बच्चे के। उसके पिता ही मज़दूरी कर उसके बच्चे को पालते हैं।
परिवार का कहना है कि जब मामला सबके सामने आया था तब अभियुक्त ने 15 हज़ार देकर गर्भपात करवाने की बात कही थी। यहाँ तक कि पीड़िता के चरित्र पर ही सवाल उठा दिए गए। पीड़िता की सुरक्षा को लेकर भी कभी कोई क़दम नहीं उठाया गया। उसे अपने अपराधी का सामना बार-बार करना पड़ा।
कोर्ट में मुक़दमा चला ही नहीं
इस केस में अब तक कोई चार्जशीट भी दाख़िल नहीं की गई है। बिना डीएनए रिपोर्ट के दो साल में भी मुक़दमा शुरू नहीं हो पाया है। मान लिया जाए कि पीड़िता गर्भवती ना होती तो क्या एक बलात्कार पीड़िता का मुक़दमा आगे बढ़ेगा ही नहीं?
अगर ये भी मान लिया जाए कि पीड़िता की उम्र घटना के वक्त 18 साल से ज़्यादा भी थी, क्या तब पीड़िता को इंसाफ़ नहीं मिलेगा?
ये एकमात्र ऐसा मामला नहीं है, जहाँ एक बलात्कार पीड़िता के साथ ऐसा सलूक हो रहा है। आए दिन ऐसी खबरें टीवी न्यूज़ की फ़टाफ़ट खबरों में 15 सेकेंड की जगह पाती हैं, लेकिन उनके मुक़दमे और उनके भविष्य पर कोई अपडेट लेने वाला नहीं है।
वो सरकारी संस्थाएं भी नहीं जिनका वजूद इनकी मदद के लिए ही है। अब ज़रा नीचे दी गई लंबी लिस्ट देखिए। इस पीड़िता को क़ानून ने ढेरों विकल्प दिए हैं, लेकिन कोई विकल्प उस तक पहुँचा नहीं या पहुँचने नहीं दिया गया।
अगर पीड़िता अनुसूचित जाति या जनजाति से है
*अगर अपराधी ग़ैर अनुसूचित जाति-जनजाति का व्यक्ति हो तो अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम, 1989 लागू होगा
*मेडिकल रिपोर्ट और एफ़आईआर होने पर मुआवज़े का 50 फीसदी पीड़िता को तुरंत मिल जाना चाहिए।
*पीड़िता, गवाहों और उस पर आश्रित लोगों की सुरक्षा का इंतज़ाम किया जाना चाहिए। {सेक्शन 15A (1)}
*पीड़िता को अधिकार है कि वह किसी भी दस्तावेज़ को पेश करने के लिए या गवाहों को पेश करने के लिए स्पेशल कोर्ट या एक्सक्लूसिव स्पेशल कोर्ट में याचिका दायर कर सके। {सेक्शन 15A (4)}
*स्पेशल कोर्ट या एक्सक्लूसिव स्पेशल कोर्ट की ज़िम्मेदारी है कि वह पीड़िता और गवाहों को सुरक्षा प्रदान करे, जांच, पूछताछ या ट्रायल के दौरान उसके आने-जाने का खर्चा दे, उसके सामाजिक-आर्थिक पुनर्वास की व्यवस्था करे। {सेक्शन 15A (6)}
*अगर पीड़िता या गवाहों या जानकारी देने वालों को किसी तरह से धमकाया या डराया जा रहा है तो जांच अधिकारी और थाने के एसएचओ को रिपोर्ट लिखनी होगी। {सेक्शन 15A (9)}
*मुफ़्त में एफआईआर की कॉपी पीड़ित पक्ष को देनी होगी।
*राज्य सरकार की ज़िम्मेदारी है कि पीड़िता को तुरंत आर्थिक मदद दी जाए। {सेक्शन 11(b)}
*एफ़आईआर या शिकायत लिखे जाने के वक्त ही पीड़िता को इस क़ानून के तहत उसके अधिकारों के बारे में जानकारी मिल जानी चाहिए। {सेक्शन 11(h)}
*मुआवज़े के बारे में जानकारी देना भी सरकार की ज़िम्मेदारी है। {सेक्शन 11(K)}
*मुकदमे और ट्रायल की तैयारी के बारे में जानकारी देना और उन्हें क़ानूनी मदद दिलवाना भी इस क़ानून के तहत राज्य सरकार की ज़िम्मेदारी है। {सेक्शन 11(m)}
*पीड़िता का अधिकार है कि वो एनजीओ, वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की मदद ले सकती है। (सेक्शन 12)
*एक्सक्लूसिव स्पेशल कोर्ट में चार्जशीट दायर होने के 2 महीने के अंदर मामले का निपटारा करना होगा। (सेक्शन 14)
अगर पीड़िता 18 साल से कम उम्र की है
*किसी भी 18 साल से कम उम्र के बच्चे के साथ यौन हिंसा होती है तो अभियुक्त पर पोक्सो एक्ट की धाराएं लगाई जाती हैं। (प्रोटेक्शन ऑफ़ चाइल्ड फ़्रॉम सेक्शुअल ऑफ़ेंसेस एक्ट, 2012)
*पुलिस को अगर लगता है कि बच्चे को सुरक्षा और देखभाल की ज़रूरत है तो वो रिपोर्ट लिखवाने के 24 घंटे के अंदर इसकी व्यवस्था करती है। {सेक्शन 19(1)(5)}
*पुलिस को रिपोर्ट मिलने के 24 घंटे के अंदर बाल कल्याण समिति और स्पेशल कोर्ट को इसकी सूचना देनी होती है। अगर स्पेशल कोर्ट नहीं है तो सेशन कोर्ट को इसकी तुरंत सूचना देनी होती है। {सेक्शन 19(1)(6)}
*जो पुलिस अधिकारी इस मामले की जांच कर रहा होता है, उसकी ज़िम्मेदारी है कि जब वह बच्चे से पूछताछ करे तो अभियुक्त किसी भी तरह बच्चे के संपर्क में ना हो। {सेक्शन 24(3)}
*इस क़ानून के तहत राज्य सरकारें हर ज़िले में स्पेशल कोर्ट बनाएंगी ताकि ट्रायल जल्द से जल्द ख़त्म हो सके। {सेक्शन 28(1)}
*इस क़ानून में लिखित अपराधों के लिए अगर किसी व्यक्ति के ख़िलाफ़ ट्रायल चलेगा तो कोर्ट ये मान कर चलेगी कि अभियुक्त ने ये अपराध किया है जब तक कि इसके विपरीत साबित ना कर दिया जाए। (सेक्शन 29)
*पुलिस रिपोर्ट या किसी शिकायत के आधार पर स्पेशल कोर्ट किसी मामले का ख़ुद संज्ञान भी ले सकती है। {सेक्शन 33(1)}
स्पेशल कोर्ट के संज्ञान लेने पर 30 दिन के अंदर-अंदर बच्चे का बयान लेना ज़रूरी है। किसी भी देरी के कारण को लिखित में देना अनिवार्य है। {सेक्शन 35(1)}
*स्पेशल कोर्ट के संज्ञान लेने पर एक साल के अंदर-अंदर ट्रायल पूरा हो जाना चाहिए। {सेक्शन 35(2)}
*बच्चे के अभिभावक अगर ख़ुद से क़ानूनी मदद लेने में असमर्थ हैं तो लीगल सर्विस अथॉरिटी उन्हें वकील दिलाएगी। (सेक्शन 40)
*राज्य सरकार पीड़ित बच्चे को ट्रायल से पहले और ट्रायल के दौरान एनजीओ और विशेषज्ञों की मदद दिलाएगी। (सेक्शन 39)
*अगर कोई बच्ची बलात्कार की वजह से गर्भवती होती है तो अपराधी को कम से कम 10 साल की सज़ा होगी या उम्रक़ैद भी हो सकती है।
बलात्कार पीड़िता के लिए क़ानून
*सुप्रीम कोर्ट के आदेश (साल 2014) के मुताबिक पुलिस को रिपोर्ट लिखने के बाद 24 घंटे के अंदर पीड़िता को मजिस्ट्रेट के सामने बयान के लिए पेश करना होगा। किसी भी देरी का कारण लिखित में देना होगा।
*क्रिमिनल लॉ (एमेंडमेंट) एक्ट, 2013 के सेक्शन 357 C के मुताबिक हर सरकारी या ग़ैर-सरकारी अस्पताल बलात्कार पीड़िता का मुफ़्त इलाज करेंगे।
*लीगल सर्विस अथॉरिटी एक्ट, 1987 के मुताबिक किसी भी महिला, बच्चे, अनुसूचित जाति एवं जनजाति के व्यक्ति को राज्य की लीगल सर्विस अथॉरिटी वकील दिलाएगी।
*पीड़िता आर्थिक मदद या मुआवज़े के लिए लीगल सर्विस अथॉरिटी को याचिका दे सकती है।
*महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की योजनाओं के तहत किसी भी हिंसा की शिकार महिला को क़ानूनी मदद, चिकित्सा और काउंसलिंग मुफ़्त में दी जाएगी।
*बलात्कार पीड़िता किसी भी थाने में अपनी रिपोर्ट लिखवा सकती है चाहे घटनास्थल उस थाने के दायरे में आता हो या ना आता हो। इस एफ़आईआर को ज़ीरो एफ़आईआर कहा जाता है।
*अगर कोई पुलिस अधिकारी एफ़आईआर दर्ज नहीं करता है तो क्रिमिनल लॉ (एमेंडमेंट) एक्ट, 2013 के सेक्शन 166A के तहत उसे 6 महीने से 2 साल तक की सज़ा हो सकती है और भारी जुर्माना देना पड़ सकता है।