मल्लिकार्जुन खड़गे: सुर्खियां बटोरने वाले तेवर और बीजेपी से टक्कर लेने की रणनीति

BBC Hindi
मंगलवार, 8 अगस्त 2023 (07:56 IST)
दीपक मंडल, बीबीसी संवाददाता
कांग्रेस समेत देश के तमाम विपक्षी दल मणिपुर में जारी हिंसा को लेकर संसद के अंदर और बाहर पीएम मोदी के ख़िलाफ़ आक्रामक रुख बनाए हुए हैं। राज्य सभा में कांग्रेस पार्टी की ओर से इस हमले की कमान पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे संभाल रहे हैं। ऐसे में वह पिछले दिनों एक साथ स्पीकर जगदीप धनखड़ के साथ-साथ पीएम मोदी को घेरते दिखे।
 
बीते रविवार पीएम मोदी ने 543 रेलवे स्टेशनों की पुनर्विकास परियोजना का शिलान्यास करते हुए कहा कि विपक्ष का हाल ये है कि 'न करेंगे, न करने देंगे'। इस पर खड़गे ने पलटवार करते हुए कहा कि प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले नौ सालों में देश को सिर्फ ग़रीबी, बेरोजगारी, महंगाई, असमानता, असुरक्षा, दलितों का दमन और सामाजिक नाइंसाफ़ी दी है।
 
विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ पर तंज करते हुए पीएम ने जब इन दलों को ‘क्विट इंडिया’ यानी ‘भारत छोड़ो’ कहा तो खड़गे का गुस्सा देखने लायक था।
 
कांग्रेस अध्यक्ष ने आरएसएस पर तंज कसते हुए कहा, "आपके राजनीतिक पूर्वजों ने देशवासियों को आपस में लड़ाया। अंग्रेजों के लिए मुखबिरी की और क्विट इंडिया मूवमेंट का भरपूर विरोध किया।’’
 
“संघ पर महात्मा गांधी की हत्या के आरोप लगे। 52 साल तक आपने तिरंगा नहीं फहराया। सरदार पटेल को इसके लिए आपको चेतावनी देनी पड़ी। और हमें भारत छोड़ने के लिए कह रहे हैं।"
 
कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने से पहले तक दक्षिण से आने वाले 81 वर्षीय नेता को लोग पार्टी का रबर स्टैंप बताकर खारिज कर रहे थे। लेकिन ऐसे लोगों को खड़गे के राजनीतिक तेवर अब चौंका रहे हैं। खड़गे हर दिन नए जोश के साथ विपक्ष को लामबंद करते नजर आ रहे हैं।
 
पिछले दिनों विपक्षी एकता को लेकर कांग्रेस के रवैये में दिखने वाली कथित मैच्योरिटी का श्रेय भी खड़गे को ही दिया जा रहा है। राजनीतिक विश्लेषकों कहना है कि कांग्रेस अध्यक्ष बनने से पहले खड़गे कमजोर खिलाड़ी माने जा रहे थे।
 
लेकिन 26 अक्टूबर, 2022 को पार्टी की कमान संभालने के बाद से वह अपने काम करने के तौर-तरीकों और राजनीतिक सूझबूझ से आलोचकों को चुप कराते दिखे हैं।
 
खरे साबित हुए खड़गे?
अंबेडकरवादी बौद्ध मल्लिकार्जुन खड़गे ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया से की थी। लेकिन दिग्गज कांग्रेस नेता और कर्नाटक के मुख्यमंत्री देवराज अर्स ने उनकी प्रतिभा पहचानी और उन्हें 1969 में कांग्रेस में ले आए। खड़गे नौ बार विधानसभा और दो बार लोकसभा चुनाव जीत चुके हैं।
 
साल 1972 में वो पहली बार चुनाव लड़े थे और 2019 में लोकसभा चुनाव में हार को छोड़ दें तो लगातार जीतते आ रहे थे।
 
कई मौकों पर वो राजनीतिक जोखिम लेने से बचते नज़र आए। इसलिए तीन बार कर्नाटक का सीएम बनते-बनते रह गए। लेकिन वो कांग्रेस में गांधी परिवार के विश्वास पात्र बने रहे।
 
खड़गे के कटु आलोचक भी उनके लंबे करियर और बेदाग छवि को देखते हुए उनका सम्मान करते हैं।
 
हालांकि, कांग्रेस अध्यक्ष बनने से पहले तक लोगों को लगता नहीं था कि वो पार्टी में अंदरुनी गुटबाजी और फूट को रोक पाएंगे।
 
राजनीतिक विश्लेषक और कांग्रेस मामलों के विशेषज्ञ राशिद किदवई कहते हैं कि खड़गे को सोनिया और राहुल गांधी का समर्थन हासिल है।
 
कांग्रेस में आज जो जुझारूपन और राजनीतिक लय दिख रही है, उसे हासिल करने में खड़गे के छह दशकों लंबे राजनीतिक अनुभव की भी बड़ी भूमिका है।
 
किदवई कहते हैं, "खड़गे काफी लचीले हैं। मेरे सामने उन्होंने शिकायत लेकर आए एक अंसतुष्ट पार्टी नेता को धैर्य का महत्व समझाते हुए कहा कि तगड़े दावेदार होने के बावजूद भी वो तीन बार कर्नाटक के सीएम बनने से रह गए। लेकिन उन्होंने पार्टी नेतृत्व से लड़ाई-झगड़ा नहीं किया और आज वो पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं।’’
 
राशिद किदवई कहते हैं कि ऐसा नहीं कि खड़गे के राजनीतिक जीवन में उतार-चढ़ाव नहीं आए। कर्नाटक के मौजूदा सीएम सिद्धारमैया खड़गे के विरोधी रहे हैं और एक समय में उन्होंने राज्य की राजनीति में उन्हें अप्रासंगिक कर दिया था। इसके बावजूद खड़गे ने उनसे बदला नहीं लिया।
 
अपने समर्थक डीके शिवकुमार और सिद्धारमैया के बीच संतुलन बनाकर कर्नाटक की सत्ता कांग्रेस की झोली में डालना उनका मास्टरस्ट्रोक माना जाता है।
 
हिंदी में महारत से बढ़त
दक्षिण भारतीय होने के बावजूद खड़गे सदन में हिंदी भाषा में पलटवार करते नज़र आते हैं। संसद से बाहर और भीतर वो जिस तरह से अपनी खास दक्कनी हिंदी-उर्दू में बीजेपी-आरएएस पर वार करते हैं, वो लोगों को खासा पसंद आता है। 
अच्छी हिंदी जानने की वजह से वो उत्तर भारत के कांग्रेस नेताओं से संवाद कर पाते हैं और उनके मसले सुलझाने में मदद करते हैं।
 
अमूमन संसद के अंदर जब पीएम नरेंद्र मोदी और बीजेपी के सांसद राहुल गांधी पर हमले करते हैं तो ये चर्चा का विषय बन जाता है। लेकिन खड़गे पर वे तीखे हमले नहीं कर पाते हैं।
 
राशिद किदवई कहते हैं, "लोगों को उनका अंदाज पसंद आ रहा है। उनके भाषणों में वजन होता है। उनके अंदाज को देख कर लगता है कि खड़गे पर कांग्रेस का दांव बिल्कुल सही साबित हुआ है।"
 
संतुलन साधने का अंदाज
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक नीरजा चौधरी कहती हैं, "खड़गे ने अध्यक्ष बनते ही कर्नाटक चुनाव का महत्व समझ लिया था। जिस तरह से उन्होंने एक दूसरे के कट्टर विरोधी सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार को साथ खड़ा किया, वो पार्टी के लिए वरदान साबित हुआ।’’
 
‘’कर्नाटक की जीत ने कांग्रेस को राष्ट्रीय राजनीति में दोबारा उभरने का मौका दे दिया। इसी तरह उन्होंने छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव का विवाद सुलझाया। राजस्थान में भी अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच सुलह आसान काम नहीं था। लेकिन खड़गे ने ये कर दिखाया।’’
 
वो कहती हैं कि कांग्रेस में जिस तरह से जी-23 जैसे असंतुष्ट गुट बन गए थे और पार्टी में संवादहीनता की कमी दिख रही थी, उसमें ये कल्पना करना मुश्किल था कि कांग्रेस पटरी पर आ सकेगी।
 
80 की उम्र में कड़ी मेहनत
खड़गे की उम्र फिलहाल 80 साल से ज्यादा है। इसके बावजूद वो संसद और सड़क दोनों जगह अपनी पार्टी की अगुआई करते दिखते हैं।
 
राशिद किदवई कहते हैं, "इस उम्र में मेहनत करने की क्षमता उन्हें उनके प्रतिद्वंद्वियों से आगे रखती है। हर दिन वो 15-16 घंटे काम करते हैं। अपने 24 घंटे का बेहतर इस्तेमाल उन्हें बखूबी पता है। उन्होंने घर में एक दफ़्तर बनाए रखा है। वो राज्यों की कांग्रेस इकाई की लगातार मीटिंग लेते हैं। उनके आने से पार्टी के अंदर निचले कार्यकर्ताओं और बड़े नेताओं के बीच संवादहीनता की स्थिति कम हुई है।’’
 
वो कहते हैं, "एक जमाने में आरके धवन, माखनलाल फोतेदार, वी जॉर्ज और अहमद पटेल सोनिया गांधी और पार्टी नेताओं के बीच दीवार बन जाया करते थे। लेकिन खड़गे ने हालात बदल दिए हैं और राज्यों के नेताओं एवं कार्यकर्ताओं से लगातार बात करते हैं।’’
 
वो आगे कहते हैं, "खड़गे विनम्र भी हैं। अपनी व्यवहार कुशलता की वजह से वो नाराज कार्यकर्ताओं को ये भरोसा दिलाने में कामयाब रहते हैं कि उनकी बात सुनी जा रही है। उन्होंने गुटबाजी को भी लगभग ख़त्म कर दिया है।
 
उनके साथ सैयद नासिर हुसैन, गौरव पांधी, गुरदीप सिंह सप्पल और प्रणव झा जैसे लोगों की टीम है जो संगठन में उनके साथ मिलकर काम करते हैं। ये सभी युवा हैं और इससे उन्हें बदलते राजनीतिक परिदृश्य में पार्टी को तैयार करने में मदद मिल रही है।"
 
कमजोरी की भरपाई
खड़गे बड़े जनाधार वाले नेता नहीं हैं। कर्नाटक में कांग्रेस की राजनीति भी वो लंबे वक्त तक हाशिये पर रहे। लेकिन वो सोनिया और राहुल गांधी का भरोसा जीतने में सफल रहे हैं।
 
वो चुनावी राजनीति के माहिर नहीं समझे जाते और न ही उनकी अखिल भारतीय अपील है। फिर भी वो पार्टी अध्यक्ष के पद पर काबिज हैं।
 
नीरजा चौधरी कहती हैं, "खड़गे ने हाल में विपक्षी एकता की कोशिशों को जिस तरह मजबूत किया, उससे उनके काम करने की स्टाइल का पता चला। उनके रुख से क्षेत्रीय दलों को कभी ये नहीं लगा कि कांग्रेस ‘बड़े भाई’ का रोल निभाना चाहती है। या वो 2024 के दौरान होने वाले सीटों के बंटवारे में ज्यादा हिस्सेदारी चाहती है।’’
 
"उन्होंने ये भी ऐलान कर दिया था कि कांग्रेस की पीएम पद में कोई दिलचस्पी नहीं है। कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर खड़गे का ये रुख सहयोगी विपक्षी दलों को आश्वस्त करता है।’’
 
नीरजा चौधरी कहती हैं कि खड़गे पार्टी के सबसे बड़े दलित चेहरे हैं। दलित वोटरों को पार्टी के पाले में करने के लिए वो अहम भूमिका निभा सकते हैं।
 
वो कहती हैं कि पिछले कुछ महीनों से खड़गे ने विपक्ष के नेता के तौर पर बीजेपी और नरेंद्र मोदी सरकार के ख़िलाफ़ जो आक्रामकता दिखाई है, उसने उनके बारे में जताई जा रही आशंकाओं को धराशायी कर दिया है।
 
कांग्रेस अध्यक्ष बनने से पहले उन्हें एक ऐसे नेता के तौर पर देखा जा रहा था जो सिर्फ सोनिया और राहुल गांधी की पसंद था। लेकिन अपनी आक्रामक राजनीति से वो ये साबित कर रहे हैं कि वो बीजेपी की प्रो-एक्टिव राजनीति का मुकाबला कर सकते हैं।

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