- राजीव रंजन गिरि (असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजधानी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय)
सन 1947 के 15 अगस्त से कुछ माह पूर्व ही 'नियति से साक्षात्कार' वाले इस दिवस का अहसास होने लगा था। इसकी निश्चितता की ख़ुशी को कुछ खाला थी, जो खाये जा रही थी। अरसे तक चले संघर्ष के बाद ब्रिटिश दासता समाप्त हो रही थी। ऐसे वक़्त में ख़ुशी के जिस माहौल की कल्पना की जा सकती है, वह निरापद नहीं दिखती। वजह है, आज़ादी की ख़ुशी के साथ बंटवारे का ग़म।
नफ़रत की आग से यह ग़म जलकर राख नहीं बन रही थी। इस आग ने तो सुलगा रखा था ताकि ग़म की तपिश कम न हो जाए। लोग इसकी आँच में झुलसते-जलते रहें।
सत्ता हस्तांतरण की बयार थोड़ी राहत पहुंचा रही थी कुछ लोगों को, पर इनमें गांधी शामिल नहीं थे। जीवन के 78 बसन्त और कई प्रयोगों का सकर्मक साक्षी रहा उनका मन-मस्तिष्क पहले से ज्यादा अनुभव-ज्ञान से लैस और मजबूत था, जो स्वाभाविक भी था; पर काया कमजोर हो गयी थी।
गांधी से सभी को शिकायत
मन की दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ गांधी का शरीर कदम-ताल मिलाने में हांफने लगा था। अपने जुनूनी स्वभाव और सामने आए पहाड़ सी चुनौती के कारण वे इसे स्वीकार नहीं कर सकते थे। तभी तो अगस्त 1947 से कई माह पहले से लेकर जनवरी 1948 तक वे लगातार यात्रा में थे।
जहां भी खूरेंजी होती गांधी जाते। लोगों के दुःख-दर्द बांटते। प्रार्थना और संदेशों से नफ़रत की ज्वाला बुझाने का प्रयास करते। भविष्य में अपनापन कायम रहे इसकी राह सुझाते। कट्टरता और पागलपन के मार्ग से दूर इंसानियत का पथ दिखाने में प्राण-पण से जुटे रहते। जितनी जगहों से उनको बुलावा था, आहत लोगों को उनकी कामना थी, भौतिक रूप से सब जगहों पर पहुंचने में वे अक्षम थे। एक स्थान रहकर भी दूसरी जगहों पर अमन के लिए सन्देश भेजते और दूत भी।
परिस्थितियां विकराल और जटिल होती जा रही थीं। अखंड भारत का व्यास भी बड़ा था। करांची का असर बिहार में दिखता तो नोआखाली का कोलकाता में। तबाही कई तरफ़ थी। आग हर तरफ़ धधक रही थी। गांधी से शिकायत सबको थी। आग लगानेवालों और इसमें जलनेवालों के अलावा इस आग में हाथ सेंकने वालों को भी नाराजगी थी।
क्योंकि उनसे उम्मीदें भी सभी के भीतर थी। चाहे कहीं हिंदुओं का कत्लेआम हो रहा हो या मुसलमानों अथवा सिखों का, गांधी के लिए अपनी काया के अंग के जलने सरीखा था। इसे अपनी असफलता मान रहे थे गांधी। अपने स्वप्नों का यह यथार्थ उन्हें व्यथित करता था। गोया गांधी वामन की तरह दो-तीन कदमों में नाप लेना चाहते थे अखंड हिंदुस्तान। पर नाप कहाँ पा रहे रहे थे! नाप कहां पाए! यही उनकी नियति थी! त्रासद नियति!
जश्न में डूबी दिल्ली, लेकिन गांधी कहां थे?
15 अगस्त की आधी रात को जश्न में डूबी दिल्ली हिंदुस्तान का मुस्तक़बिल तय कर रही थी, तब पिछले तीन दशकों से स्वाधीनता संघर्ष की नीति, नियति और नेतृत्व तय करने वाले महात्मा गांधी भावी राष्ट्र के शिल्पकारों, जो उनके उत्तराधिकारी भी थे, को आशीर्वाद देने के लिए न सिर्फ़ जश्न-स्थल से गैरमौजूद थे बल्कि दिल्ली की सरहद से मीलों दूर कलकत्ता (अब कोलकाता) के 'हैदरी महल' में टिके थे।
वे नोआखाली की यात्रा पर निकले थे, जहाँ अल्पसंख्यक हिंदुओं का भीषण कत्लेआम हुआ था। दो-तीन दिनों के लिए उन्हें कोलकाता रुकना पड़ा। यहां अल्पसंख्यक मुसलमान सहमे हुए थे। नोआखाली की ज्वाला रोकने की खातिर गांधी को कोलकाता की आग शांत करना आवश्यक लगा था।
वे सोच रहे थे कि कोलकाता में मुसलमानों को असुरक्षित छोड़ किस मुंह से नोआखाली में हिंदुओं की रक्षा की गुहार लगा पाएंगे! गांधी यहां अल्पसंख्यको की हिफ़ाज़त अपना धर्म मान रहे थे, और इससे अर्जित कर रहे थे वह नैतिक ताकत जिससे नोआखाली में अल्पसंख्यकों की जान के साथ हक़ और हुकूक की रक्षा कर सकते थे।
कोलकाता में रहने के लिए गांधी ने ऐसे स्थान की कामना की, जो तबाही का मंजर खुद बयान करता हो! एक मुस्लिम बेवा का जीर्ण 'हैदरी महल' इस लिहाज से उपयुक्त था। इस इलाके में हिन्दू बहुसंख्यक थे। पास में कमजोर तबके के मुसलमानों की बस्ती मियां बागान थी। मियां बगान में लूट पाट और आगजनी का आलम यह था कि कोई रहवासी अपना दुखड़ा सुनाने के लिए भी मौजूद नहीं था।
इसी हैदरी महल को गांधी ने डेरा बनाना स्वीकार किया था, पर शर्त यह भी थी कि सुहरावर्दी भी यहां साथ रहें। वही सुहरावर्दी जिसने साल भर पहले 'सीधी कार्रवाई' से सैकड़ों हिंदुओं को मौत की नींद सुलाया था और हज़ारों को बेघर बनाया था। हिंदुओ से नफ़रत के लिए ख्यात सुहारावर्दी आज अपना अपराध कुबूल कर अमन के लिए आया था।
गांधी की एक और शर्त थी, कलकत्ता के मुस्लिम लीग से जुड़े कट्टर नेता नोआखाली के अपने 'लोगों' को तार भेजकर वहां के हिंदुओं की रक्षा सुनिश्चित करें और अपने कार्यकर्ताओं को भी भेज अमन के पैदावार की ज़मीन तैयार करें।
गांधी क्या हिंदुओं के शत्रु थे?
गांधी की शर्तें मंजूर हुईं। कलकत्तावासियों को अपना विचार बताते रहे पर हिन्दू महासभा से जुड़े युवकों की नाराजगी बनी रही। ये लोग गांधी को महज मुसलमानों का हितैषी मान रहे थे, कह रहे थे कि आप तब क्यों न आये जब हम संकट में थे, वहां क्यों न जाते जहां से हिन्दू पलायन कर रहे हैं!!
ऐसे लोग गांधी को 'हिंदुओं का शत्रु' कहकर चिल्ला रहे थे, उस शख़्स को जो जन्म, संस्कार, जीवनशैली, आस्था और विश्वास से पूरी तरह हिन्दू था। जवाब में गांधी भी यही कहते, गांधी को हिंदुओं का शत्रु कहने वाली अहमक बातें गहरे आहत करती थीं।
गांधी 15 अगस्त को 'महान घटना' मानते थे और अपने लोगों से 'उपवास, प्रार्थना और प्रायश्चित' करके इस दिन का स्वागत करने का इसरार करते थे। उन्होंने इस महान दिन का स्वागत ऐसे ही किया भी।
कलकत्ता में गांधी सफल साबित हुए। अमन का माहौल बनने लगा। महात्मा के आदर्श का असर सैन्य शक्ति से प्रभावकारी दिखा। तभी तो आखिरी वायसराय और पहले गवर्नर जनरल माउंटबेटन ने तार से बधाई भेजी, पंजाब में हमारे पास 55 हज़ार सैनिक हैं, पर दंगें काबू में नहीं आ रहे, बंगाल में हमारी सेना में केवल एक व्यक्ति है और वहां पूरी तरह शांति है।
गांधी नोआखाली की यात्रा से कुछ दिन निकालकर कलकत्ता रुके थे, पर रहना पड़ा महीना भर। शहर जो बारूद की ढेर पर टिका था और चिंगारी के पल की प्रतीक्षा में था, गांधी को प्रस्थान नहीं करने दिया। गांधी ने बारूद की ज्वलनशीलता को निस्तेज कर दिया था, चिंगारी भी बुझा दी थी। साल भर पहले के सुहरावर्दी की, अब नए आदर्श की, प्रतिज्ञा लोग सुन आश्चर्य कर रहे थे। दंगाई हिन्दू नौजवान भी प्रायश्चित कर रहे थे।
दिल्ली को गांधी की ज़रूरत
गांधी को दिल्ली बुला रही थी। जश्न का माहौल काफूर हो चुका था। दिल्ली को अब गांधी की जरूरत थी। कलकत्ते के गांधी से दिल्ली एक बार फिर अभिभूत थी। दिल्ली महात्मा की प्रतीक्षा कर रही थी, अधीरता से। 9 सितंबर की सुबह गांधी दिल्ली पहुंचे। रेलगाड़ी से वाया बेलूर। गांधी ने महसूस किया कि सितंबर की यह परिचित खुशगवार सुबह नहीं है। चारो तरफ़ मुर्दा शांति है। तमाम औपचारिकताओं में भी अफरा-तफरी लक्षित हो रही थी।
स्टेशन पर गांधी को लेने सरदार पटेल आये थे। पर उनके चेहरे से मुस्कान गायब थी। जो सरदार कठिन संघर्ष के दिनों में भी खुशगवार दिखते थे, आज उनके चेहरे पर मायूसी थी। स्टेशन पर गांधी के और अपेक्षित लोग अनुपस्थित थे। गांधी की चिंता बढ़ाने के लिए इतना काफ़ी था। कार में बैठते ही सरदार ने चुप्पी तोड़ी, ''पिछले पांच दिनों से दंगे हो रहे हैं। दिल्ली मुर्दों की नगरी बन गयी है''।
गांधी अपनी पसंदीदा वाल्मीकि बस्ती नहीं ले जाये गए। उनके रुकने की व्यवस्था बिड़ला भवन में थी। गाड़ी यहां पहुंची ही थी कि प्रधानमंत्री नेहरू भी आ गए। यह संयोग नहीं था। उनके चेहरे का लावण्य गायब था। झुर्रियां महीने भर में अपेक्षाकृत ज़्यादा बढ़ गयी थी।
वे गुस्से में आग-बबूला हो रहे थे। एक सांस में उन्होंने 'बापू' को सारी बातें बताई। लूटपाट, कत्लेआम, कर्फ्यू सब जानकारी दी। खाने- पीने की चीजें न मिल रही, साधारण नागरिक की दुर्दशा, पाकिस्तान से कैसे कह सकते हैं कि वहां अपने नागरिकों की हिफ़ाजत करे।।किन्हीं मशहूर सर्जन डॉ जोशी का जिक्र किया जो हिन्दू- मुसलमान में भेद किये बिना सबकी समान सेवा करते थे, उनको मुस्लिम घर से गोली लगी, बच न पाए।
भारत-पाकिस्तान को उनके वायदे याद दिलाते गांधी
शांति का हर सम्भव प्रयास हो रहा था। सब जुटे थे। गांधी के लोग और सरकार भी। गांधी की दिनचर्या भी जारी थी। रोज प्रार्थना सभा मे गांधी अपनी बात कहते। रेडियो से प्रसारण होता। पर ये प्रयास शायद नाकाफ़ी साबित हो रहे थे।
पाकिस्तान से हिंदुओं और सिखों की तादाद कम नहीं हो रही थी। ये लोग खून का बदला खून चाहते थे। गांधी की बातें इन्हें नापसंद थीं। ये लोग यह भी नहीं देख पा रहे थे कि यह व्यक्ति पाकिस्तान पर नैतिक दबाव बना रहा है। जिन्ना को उसके वायदे की याद दिला रहा है कि वह अपने नागरिकों की रक्षा करे।
गांधी भारत को भी वायदे की याद दिला रहे थे। वायदे की पूर्ति में गांधी नैतिक शक्ति की बढ़ोतरी देखते थे। वे रोज योजनाएं बनाते और उस पर अमल भी कर रहे थे। जनवरी की हाड़तोड़ ठंड आ गयी थी। गांधी को गवारा नहीं था कि भारत या पाकिस्तान कोई भी अपना विश्वास तोड़े। वे 55 करोड़ रुपये को विश्वास की एक कड़ी मान रहे थे। भरोसा और वायदे की रक्षा के लिए वे किसी के भी ख़िलाफ़ जाने को तैयार थे। स्वयं के ख़िलाफ़ भी।
गांधी इसी आत्मबल से नैतिक शक्ति पाते थे। उनकी योजना में निकट भविष्य में पाकिस्तान जाना भी शामिल था, वे जिन्ना और उनकी सरकार को इससे परे नहीं मानते थे। हिन्दू महासभाई विचार को अमन का प्रयास पसंद न था। इन कट्टर लोगों को गांधी के अनशन में आत्मशुद्धि का प्रयास न दिखता था। जब दुनिया मे गांधी के जयकारे लग रहे थे, ये लोग गांधी मुर्दाबाद चिल्लाते थे।
संसार का श्रेष्ठ मस्तिष्क जिस पर रश्क करता था, जिसकी आत्मिक पवित्रता की बड़ाई मानता था, नथूराम गोडसे का वैचारिक सम्प्रदाय उसे नहीं समझ रहा था तो आश्चर्य क्या!!!