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पश्चिम बंगाल चुनावः ममता और मोदी को टक्कर देने को तैयार वामपंथी- ग्राउंड रिपोर्ट

हमें फॉलो करें पश्चिम बंगाल चुनावः ममता और मोदी को टक्कर देने को तैयार वामपंथी- ग्राउंड रिपोर्ट

BBC Hindi

, बुधवार, 10 फ़रवरी 2021 (08:33 IST)
अपूर्व कृष्ण (बीबीसी संवाददाता, कोलकाता से)
 
बात 1999 की है। पश्चिम बंगाल में वामपंथियों की तूती बोलती थी। लगातार 22 साल से इसकी लगाम थामे मुख्यमंत्री ज्योति बसु बीबीसी के प्रोग्राम हार्डटॉक में पत्रकार करण थापर के सामने बैठे थे। करण थापर ने घुमा-घुमाकर ये सवाल पूछा, 'लोग बोर हो गए हैं... वो कह रहे हैं, हमें परिवर्तन चाहिए।' और करण थापर के सवाल को शांति से सुनने के बाद ज्योति बसु ने उल्टा सवाल किया - 'पर क्या परिवर्तन? अच्छे के लिए या ख़राब के लिए? अगर अच्छे के लिए चाहिए तो हम एकमात्र विकल्प हैं।'
 
बसु ने अगले साल स्वेच्छा से परिवर्तन के नाम पर गद्दी छोड़ दी। वो तब 86 साल के थे। तब भारत में सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने का कीर्तिमान उनके नाम था। 18 साल बाद सिक्किम के मुख्यमंत्री पवन कुमार चामलिंग ने ज्योति बसु का वो रिकॉर्ड तोड़ा।
 
बसु के बाद वामपंथी सरकार की कमान बुद्धदेव भट्टाचार्य के हाथों में गई। उनकी अगुआई में अगले दो चुनावों में वामपंथियों ने सत्ता बरक़रार रखी। लेकिन आख़िरकार 2011 में वामपंथियों का क़िला ढह गया। आख़िरकार 34 साल बाद पश्चिम बंगाल में परिवर्तन हो गया। पर उस परिवर्तन से अच्छा हुआ या ख़राब - 2021 के चुनाव में वामपंथी इसी सवाल को लेकर मतदाताओं के बीच जा रहे हैं।
 
पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे के सबसे बड़े घटक मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी या सीपीआई (एम) के विधायक दल के नेता सुजन चक्रवर्ती कहते हैं,'लोग बदलाव चाहते थे, उन्होंने कर दिया, पर 10 साल बाद लोगों को महसूस हो रहा है कि तृणमूल कांग्रेस उनके साथ न्याय नहीं कर सकती।'
 
यहीं पर ये सवाल पैदा होता है कि अगर लोगों के बीच ममता बनर्जी की सरकार को लेकर निराशा है, अगर प्रदेश में सत्ता विरोधी लहर है, अगर लोग एक बार फिर परिवर्तन चाहते हैं, तो विकल्प के तौर पर भारतीय जनता पार्टी का ही नाम क्यों आगे आ रहा है, वामपंथियों की चर्चा क्यों नहीं हो रही?
 
वामपंथी नेता इसकी एकमात्र वजह बताते हैं- मीडिया। और उनकी मानें तो एक कहानी गढ़ी जा रही है जिसे मीडिया के ज़रिए सुनाया जा रहा है।
 
मुख्य विपक्ष कौन?
 
वामपंथियों के बारे में एक धारणा ये बन गई है कि वो अब राज्य में मुख्य विपक्ष नहीं रहे, वो जगह अब बीजेपी ने ले ली है। ये धारणा मज़बूत हुई 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद जब राज्य की 42 सीटों में वामपंथी दलों का खाता भी नहीं खुल सका, ज़्यादातर सीटों पर वो तीसरे और चौथे नंबर पर आए, एक को छोड़ कोई भी लेफ़्ट फ़्रंट उम्मीदवार अपनी ज़मानत तक नहीं बचा सका। उधर बीजेपी की सीटों की संख्या 2 से बढ़कर 18 हो गई, वोट प्रतिशत 10 से बढ़कर 40 के पास जा पहुंचा।
 
सीपीएम का जाना-माना चेहरा रहे मोहम्मद सलीम दो बार राज्यसभा और दो बार लोकसभा सांसद रह चुके हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में रायगंज सीट से उनकी भी ज़मानत नहीं बची थी। मगर वो सीपीएम को मुख्य विपक्ष नहीं बताए जाने पर सख़्त आपत्ति करते हैं।
 
मोहम्मद सलीम कहते हैं, 'ये बताने का सिलसिला 2014 के चुनाव के बाद से ही शुरू हो गया था और 2016 के बाद भी यही कहानी कही गई जबकि बीजेपी को तब केवल तीन सीटें मिली थीं, तब भी मीडिया के सहारे ये फैलाया गया कि अब मुख्य विपक्ष बीजेपी है जबकि लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 18 सीटें मिलने के बाद भी अगर आप ज़मीनी हक़ीकत देखें तो बीजेपी कहां है, लड़ाई कौन लड़ रहा है?'
 
वाम दलों का कहना है कि मीडिया के ज़रिए ये दिखाने की कोशिश हो रही है कि तृणमूल और बीजेपी के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
 
सुजन चक्रवर्ती कहते हैं,'ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि अगर तृणमूल को हटाना है तो बीजेपी को मौक़ा दिया जाए, लोगों ने लेफ़्ट को परखा, तृणमूल को परखा, तो अब बीजेपी को भी परखा जाए। पर लोग समझ गए हैं कि बीजेपी और तृणमूल तो एक ही है, जो चेहरे तृणमूल के थे, अब वही चेहरे बीजेपी में आ रहे हैं। तो लोग समझ नहीं पा रहे हैं कि क्या करें। वो विकल्प ढूंढ रहे हैं।'
 
वामपंथी नेता साथ ही कहते हैं कि मीडिया में उनके प्रयासों को बहुत तवज्जो इसलिए भी नहीं मिल पाती क्योंकि वो सरकार में नहीं हैं, जबकि तृणमूल कांग्रेस पश्चिम बंगाल में सत्ताधारी है, तो बीजेपी के हाथ में देश की सरकार है।
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लेफ़्ट का जनाधार
 
लेफ़्ट पार्टियों के बारे में माना जाता है कि उनके सदस्य या समर्थक वामपंथी विचारधारा से प्रभावित होते हैं और उन्हें डिगाना मुश्किल होता है। अजय डे 1975 से पार्टी के समर्थक हैं, वो दमदम में भारत की सबसे पुरानी इंजीनियरिंग कंपनी 'जेसप एंड को' में काम करते थे।
 
दमदम में सीपीएम की एक सभा में आए अजय डे कहते हैं, 'मार्क्सवाद एक दर्शन है, अगर आपको इसकी थोड़ी भी समझ होगी तो आप इसे नहीं छोड़ सकेंगे, हम चुनाव में जीतें या हारें, ये सोचकर हम इस दल के साथ नहीं है, हमारा मार्क्सवाद एक तरीक़ा बताता है कि लोग कैसे सुखी रहें, हम ये तरीक़ा बस लोगों को बताना चाहते हैं।'
 
पश्चिम बंगाल में वामपंथी दलों के बारे में एक आम धारणा ये भी रही है कि ये बुज़ुर्गों की पार्टी हैं। धारणा को बल तब भी मिलता है जब वो सुनते हैं कि ज्योति बसु ने 86 साल की उम्र में सत्ता त्यागी, और अभी राज्य में वाम मोर्चे का भार जिन विमान बोस के कंधों पर हैं वो भी 82 साल के हैं।
 
ये सवाल उठने पर सुजन चक्रवर्ती कहते हैं, 'हां, ये बात सही है कि हमारे नेता बुज़ुर्ग हैं, पर वो हमारे लिए एक बहुत बड़ी धरोहर हैं, मगर बुज़ुर्ग नेताओं के अलावा हमारे साथ बहुत बड़ी संख्या में नौजवान भी हैं जो ऊर्जावान और दूरदर्शी हैं, तो बुज़ुर्गों का अनुभव और नौजवानों की ऊर्जा मिलकर इस राज्य की दशा बदल देंगे।'
 
दमदम की सभा में आईं युवा पार्टी सदस्य अर्पिता बोस इस सवाल पर कहती हैं, 'पश्चिम बंगाल में पिछले साल छात्र संगठन डीवाईएफ़आई के एक लाख 20 हज़ार नए सदस्य बने, तो अगर युवा नहीं होते हमारे साथ तो ये कैसे होता?'
 
वहां आए एक और युवा पार्टी सदस्य तमग्न पाल कहते हैं,'रोज़ाना की राजनीतिक सभाओं में युवा चेहरे थोड़ा कम दिखाई देते हैं, मगर चुनावी राजनीति में आपको बहुत युवा दिखाई देंगे।'
 
प्रदेश की राजनीति को समझने वाले जानकार भी स्वीकार करते हैं कि राज्य में वामपंथी दलों का अपना एक मज़बूत जनाधार है जो सभा, जुलूस, रैली, प्रदर्शनों में दिखाई भी देता है।
 
वो ये भी कहते हैं कि वाम दलों ने कोरोना महामारी के दौरान भी बहुत बढ़-चढ़कर लोगों की मदद की। कोलकाता स्थित वरिष्ठ पत्रकार अरुंधति मुखर्जी उनके जनाधार होने की बात बताते हुए साथ ही कहती हैं, 'उनके पास ज़मीन तो है, पर उनके पास उस ज़मीन का इस्तेमाल करने के लायक संसाधन नहीं है।'
 
लेफ़्ट के वोटर क्या करेंगे?
 
2019 के आम चुनाव में बीजेपी को इतने ज़्यादा वोट आए जिसकी उम्मीद शायद उन्हें भी नहीं थी। पश्चिम बंगाल में बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष ने कहा, 'पहली बार 2016 के चुनाव में हमें अकेले 10 प्रतिशत वोट मिले, उसके पहले लोकसभा चुनाव में हमें 17 प्रतिशत वोट मिले पर वो चुनाव एक दूसरे माहौल में हुआ था। हम 4 से 10 प्रतिशत के बीच अप-डाउन करते थे।'
 
मगर 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को चार गुना ज़्यादा यानी लगभग 40 प्रतिशत वोट मिल गए। इसके पीछे दो बड़ी वजह थी - एक तो तृणमूल कांग्रेस से नाराज़गी और दूसरा पुलवामा-बालाकोट हमले के बाद बीजेपी के पक्ष में बनी लहर।
 
इस माहौल में ऐसा कहा जाता है कि पश्चिम बंगाल में बड़ी संख्या में लेफ़्ट के मतदाताओं ने बीजेपी को वोट दे दिए। सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने नतीजे आने के कुछ समय बाद कहा कि उन्होंने बंगाल में खुद ये नारा सुना - 'एबार राम, पॉरे बाम...' यानी इस बार राम, बाद में वाम।
 
विश्लेषक बताते हैं इस बार लेफ़्ट वोटर दुविधा में होंगे। वरिष्ठ पत्रकार शिखा मुखर्जी कहती हैं कि एक साल से ये चर्चा चल रही थी कि सबको परख लिया तो इस बार बीजेपी को भी परख लें।
 
शिखा कहती हैं, 'बीजेपी के लिए वो समर्थन मोदी के प्रदर्शन से जुड़ा हुआ था, पर अब महामारी और आर्थिक संकट के बाद लोगों के मन में सवाल आ रहा है कि हम उनको लेकर आ भी गए यहां क्या फ़र्क़ पड़नेवाला है।'
 
ऐसे लोगों का वोट इस चुनाव में किस ओर जाता है ये दिलचस्प होगा क्योंकि बकौल शिखा, 'पश्चिम बंगाल में मतदान का प्रतिशत बहुत ज़्यादा होता है और लोग मत बर्बाद नहीं करते'।
 
लेफ़्ट में भी मची है 'भगदड़'?
 
पश्चिम बंगाल में चुनावी मौसम में आए दिन दूसरी पार्टी के नेताओं के बीजेपी में शामिल होने की ख़बरें आ रही हैं, ख़ासतौर से सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस के सांसद, विधायक, नेता, समर्थक पाला बदल रहे हैं।
 
अमित शाह ने तो ममता बनर्जी को मिदनापुर में अपनी सभा में ये भी कह डाला कि 'दीदी ये तो शुरूआत है, चुनाव आते-आते आप अकेली रह जाएंगी'।
 
कहा जाने लगा है कि तृणमूल कांग्रेस में भगदड़ मची है, लेकिन पार्टी इसे अतिशयोक्ति बताती है। ममता बनर्जी ने हुगली में एक चुनावी सभा में चुनौती देते हुए कह डाला कि 'जिन्हें भी जाना हो वो इंतज़ार ना करें, फ़ौरन पार्टी से चले जाएं'।
 
मगर ये दिलचस्प है कि वामपंथी दलों की ओर से पाला बदलने की बहुत चर्चा नहीं होती। हालांकि 20 दिसंबर को मिदनापुर में गृह मंत्री अमित शाह की रैली में जिन 11 विधायकों ने भगवा झंडा थाम लिया उनमें सीपीएम के भी तीन विधायक भी शामिल थे। तामलुक के विधायक अशोक डिंडा, गजोला की विधायक दीपाली विश्वास और हल्दिया की विधायक तापसी मंडल ने अटकलों के बाद आख़िर पार्टी छोड़ दी।
 
हल्दिया की विधायक तापसी मंडल के लिए ये आसान फ़ैसला नहीं था। वो 1997 से ही पार्टी के साथ थीं और चार बार पार्षद रहने के बाद विधायक बनी थीं। पार्टी छोड़ने की वजह बताते हुए वो कहती हैं कि पार्टी में निचले स्तर के लोगों की बात नहीं सुनी जा रही, शीर्ष नेता अपने फ़ैसलों को थोप देना चाहते हैं।
 
तापसी मंडल ने कहा, 'सीपीएम की जो मूल राजनीति थी कि जनता के पास जाकर उनके ही हितों को लेकर आंदोलन करना, वो नहीं हो रहा, अभी बस ऊपर-ऊपर आंदोलन हो रहा है। 'हमारे जैसे लोग जो निचले स्तर पर काम करते हैं, उनकी बातों का कोई महत्व ही नहीं है, ऐसे में आगे जाकर इस दल का भविष्य कैसा होगा, वो सत्ता में वापस आएगी, इसे लेकर मेरे मन में संशय है।'
 
मगर अपने विधायकों के बीजेपी में जाने पर पार्टी के प्रदेश सचिव सूर्यकांत मिश्र ने ये कहा - 'जिन्होंने सीपीएम छोड़ा उनके ख़िलाफ़ आरोप थे। उनको आख़िर में जाना ही पड़ता क्योंकि उनके ख़िलाफ़ जांच हो रही थी।'
 
नए चेहरों को मौक़ा
 
मोहम्मद सलीम निचले स्तर के कार्यकर्ताओं में बात नहीं सुने जाने की शिकायत को ख़ारिज नहीं करते, मगर वो कहते हैं ये कहना सही नहीं है कि उनकी बातों की सुनवाई नहीं होती। मोहम्मद सलीम कहते हैं,'बेशक आपको कुछ लोग ऐसे मिलेंगे जो सीपीआई-एम जिस तरह से काम करती है उससे खुश नहीं थे या खुश नहीं हैं मगर हमारी पार्टी में फ़ैसला ऊपर से नहीं बल्कि नीचे से ऊपर तक चर्चा के बाद होता है, मगर कुछ लोग उस चर्चा में ऐसे होते हैं जिन्हें लगता है कि उनका मत अगर नहीं माना जा रहा है तो हमारा इसमें क्या काम है'।
 
सलीम ये स्वीकार करते हैं कि कुछ लोगों ने पार्टी छोड़ी है, मगर वो साथ ही ये भी याद बताते हैं कि पार्टी भी हर साल लोगों को निकाल रही है। वो कहते हैं, 'बाक़ी लोग जहां बटोर रहे हैं हमने 10 से 12 प्रतिशत सदस्यों को निकाला है, हर साल बहुत सारे लोगों की सदस्यता को रीन्यू नहीं किया जाता और कहा जाता है कि वो सदस्य नहीं बल्कि समर्थक बनकर रहें क्योंकि हम एक मज़बूत और सक्रिय पार्टी बनाना चाहते हैं।'
 
मोहम्मद सलीम कहते हैं, 'इस बार जब विधानसभा चुनाव के पर्चे भरे जाएंगे तब आप देखिएगा कि पुराने पहरेदार कहां हैं और नए चेहरे कहां हैं'।

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