महाराष्ट्र में 10वीं और 11वीं सदी के कुछ ऐसे शिलालेख सामने आए हैं, जिनके ज़रिए पुरातत्वविद उस दौर के समाज की स्थिति को जानने की कोशिश में जुटे हैं। 'गधेगाल' नाम से पहचाने जाने वाले इन शिलालेखों में गधे और महिलाओं के बीच संबंधों के चित्र उकेरे गए हैं। पुरातत्वविदों का दावा है कि चित्र में दिखाए गए संबंधों में 'कोई रूमानियत नहीं है, बल्कि ये महिला के लिए आदेश और उसके परिवार के लिए सज़ा की तरह हैं'।
पुरातत्वविदों का दावा है कि ये शिलालेख उस दौर के राजाओं की ओर से 'दी जाने वाली खुली धमकी की तरह थे' जिनका आशय था कि 'अगर किसी ने राजा के आदेश को नहीं माना तो उसके परिवार की महिला के साथ ऐसा ही बर्ताव हो सकता है'।
पुरातत्वविदों का कहना है कि ऐसी सज़ा दिए जाने के 'सबूत नहीं हैं' लेकिन इससे महिलाओं के हाशिए पर होने की बात सामने आती है। मध्यकालीन दौर के मंदिर, ताम्रपत्र और मराठी भाषा के कई दस्तावेज़ इस अनकहे इतिहास को उजागर करते हैं। विशेषतौर पर ब्लैक बेसल्ट में बने मंदिर और शिलालेख न सिर्फ़ उस दौर का इतिहास हमारे सामने लाते हैं बल्कि उस वक्त के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक हालातों को भी दर्शाते हैं।
'गधेगाल' नामक शिलालेख इस बात का एक पुख्ता सबूत है। ये शिलालेख 10वीं सदी में महाराष्ट्र के शिलाहार सम्राज्य से ताल्लुक रखते हैं। ये एक तरह से इस बात का लिखित सबूत हैं कि उस दौर में राजा का आदेश और समाज में महिलाओं की स्थिति कैसी थी।
मुंबई की रहने वाली युवा पुरातत्वविद हर्षदा विरकुड 'गधेगाल' विषय पर पीएचडी कर रही हैं। वे पिछले कुछ सालों से महाराष्ट्र और अन्य राज्यों में मिलने वाले गधेगाल शिलालेखों पर शोध कर रही हैं। वे बताती हैं, ''गधेगाल एक तरह का शिलालेख है, यह तीन भागों में बंटा होता है, ऊपरी हिस्से में चांद, सूरज और कलश बना होता है।''
''मध्य भाग में एक लेख होता है और निचले भाग में एक चित्र उकेरा जाता है। इस चित्र में गधे को महिला के साथ यौन संबंध बनाते हुए दर्शाया जाता है।'' हर्षदा आगे बताती हैं, ''शिलालेख के मध्य भाग में दर्ज लेख और निचले भाग में बने चित्र की वजह से ही इसे गधेगाल कहा जाता है। जब कोई भी व्यक्ति राजा के आदेश का पालन नहीं करता, तब उसके परिवार से किसी एक महिला को इस यातना से गुज़रना पड़ता था। और यह एक तरह की सज़ा थी।''
गधेगाल के ऊपरी हिस्से में चांद और सूरज भी बने हैं। इस बारे में हर्षदा बताती हैं, ''ये तस्वीरें बताती हैं कि राजा का आदेश तब तक मान्य रहेगा जब तक सूरज और चांद रहेंगे।'' ये सभी शिलालेख 10वीं सदी से 16वीं सदी के बीच के हैं। ऐसे लगभग 150 दुर्लभ शिलालेख महाराष्ट्र, गोवा और गुजरात में मिलते हैं।
हर्षदा बताती हैं, ''सबसे पहला गधेगाल शिलालेख महाराष्ट्र में मिला था जिसका समय 934 ई. से 1012 ई.
के बीच का है। सबसे पहले शिलाहार के राजा काशीदेव ने गधेगल बनवाया था, यह अलीबाग के अश्ति में (महाराष्ट्र का रायगढ़ ज़िला) बनाया गया। लगभग 50 प्रतिशत गधेगाल शिलालेख शिलाहार राजवंश के दौरान बनवाए गए और 30 प्रतिशत गधेगाल यादव, कदंब, चालुक्य और बहमनी सम्राज्य के दौरान बनवाए गए।''
हर्षदा याद करते हुए बताती हैं, ''वरिष्ठ इतिहासकार डॉक्टर आरसी ढेरे ने गधेगाल विषय पर सबसे पहले रिसर्च शुरू की, गधे के साथ महिला के सहवास के दिखाते दृश्य पर डॉ. आरसी ढेरे ने अनुमान लगाया था कि शायद इसमें गधे को हल की तरह दर्शाया जा रहा है।''
''अगर गधे को हल की तरह खेत में इस्तेमाल किया जाए तो वह ज़मीन बंजर हो जाएगी, गधेगाल को बनाने के पीछे समाज में यही संदेश देने की कोशिश थी। अगर कोई राजा के आदेश को नहीं मानेगा तो उसे भी इसी तरह सज़ा दी जाएगी।''
हर्षदा आगे बताती हैं, ''लगभग 150 से अधिक गधेगाल शिलालेखों पर रिसर्च करने के बाद, मैंने एक दूसरे सच का पता लगाया। गधेगाल का संबंध समाज में महिलाओं की स्थिति से है। अगर गधेगाल को समझना चाहते हैं... तो हमें उस दौर के हालातों को भी समझना होगा।''
''उस समय समाज के हालात बेहद बुरे थे। साम्राज्यों के बीच सत्ता के लिए युद्ध हो रहे थे। सामंतवादी राजा अपनी ताकत बढ़ाना चाहते थे और लोगों पर अपनी सत्ता काबिज़ करने की कोशिश कर रहे थे। समाज में जातिवाद और वर्णव्यवस्था फैली हुई थी। अंधविश्वास अपने चरम पर था। उसी दौर में मराठी भाषा का उद्भव भी हो रहा था, लेकिन इन तमाम बातों के बीच समाज में महिलाओं की स्थिति बेहद दयनीय थी।''
हर्षदा आगे बताती हैं, ''महिलाओं को मां, पत्नी, बहन यहां तक कि देवी के रूप में भी देखा जाता था लेकिन समाज में उनका कोई स्थान नहीं था। यही वजह है कि महिलाओं की इस तरह की छवि शिलालेखों में उकेरी जाती थी।''
''यह माना जाता कि अगर किसी परिवार की महिला के साथ यह घिनौना कृत्य किया जाएगा तो समाज में उस परिवार की मान-प्रतिष्ठा समाप्त हो जाएगी। यही वजह थी कि कोई भी राजा के आदेश का उल्लंघन करने की बात नहीं सोचता था। हमें इस बारे में नहीं मालूम कि इस तरह की सज़ा कभी दी गई या नहीं। इस बात का कोई सबूत मौजूद नहीं हैं लेकिन यह एक तरह से राजा की तरफ़ से मिलने वाली खुली धमकी थी।''
मुंबई में रहने वाले पुरातत्वविद डॉक्टर कुरुष दलाल कहते हैं, ''महिलाओं को मां का दर्जा तो था लेकिन उन्हें समाज में कोई स्थान प्राप्त नहीं था। यही वजह है कि गधे और महिला को उस शिलालेख में उकेरा गया।'' डॉ. दलाल कहते हैं कि महाराष्ट्र के मध्ययुग के राजा चाहते थे कि उनके आदेश का गंभीरतापूर्वक पालन हो इसीलिए वे इन शिलालेखों का इस्तेमाल करते थे।
इस तरह के शिलालेख सिर्फ़ महाराष्ट्र में ही नहीं बल्कि बिहार और उत्तर भारत के अन्य राज्यों में भी मिलते हैं। हालांकि ये शिलालेख गधेगाल जैसे नहीं हैं लेकिन उनमें भी राजा की तरफ़ से आम लोगों को डराने और धमकाने के संदेश मिलते हैं।
इस विषय में डॉ. कुरुष दलाल बताते हैं, ''इस गधेगाल शिलालेख से कई अंधविश्वास गढ़े गए। कुछ लोगों ने इसे अपशकुन से जोड़कर देखा तो कुछ ने इनकी पूजा करने की सोची। कई लोगों को लगा कि ये शिलालेख देवी देवताओं को दर्शा रहे हैं। वहीं कुछ लोगों ने इन्हें तोड़ भी दिया क्योंकि उन्हें लगा कि ये कोई शुभ संदेश नहीं देते।'' डॉ. दलाल कहते हैं कि अगर हमें किसी जगह पर गधेगाल मिलता है तो यह मान लेना चाहिए कि उस जगह का ऐतिहासिक महत्व है।
हर्षदा बताती हैं कि गधेगाल मराठी भाषा का शब्द है, इसलिए मराठी भाषा का इतिहास भी इससे मालूम पड़ता है। कुछ गधेगाल शिलालेख अरबी भाषा में भी लिखे गए हैं। हर्षदा अंत में कहती हैं, ''अगर हमें कभी कोई शिलालेख मिले तो उसे यूं ही फेंक नहीं देना चाहिए या उसे तोड़ना नहीं चाहिए या फिर उसकी पूजा करने की ज़रूरत भी नहीं। हमें उसके ऐतिहासिक महत्व को जानना समझना चाहिए।''