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किंग चार्ल्स की ताजपोशी: किसी सम्राट को ताजपोशी की जरूरत क्यों होती है?

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BBC Hindi

, शनिवार, 6 मई 2023 (07:45 IST)
लॉरेन पॉट्स, बीबीसी न्यूज
6 मई को किंग चार्ल्स तृतीय की ताजपोशी समारोह दुनिया के सामने वही शाही ठाठ-बाट और तड़क-भड़क पेश करेगा, जिसके लिए ब्रिटेन मशहूर है। लेकिन, किंग की ताजपोशी का ये समारोह, सदियों पुरानी परंपराओं में रचा बसा एक बेहद धार्मिक कार्यक्रम भी होगा। कई लोगों को लगता है कि 2023 में ऐसे रीति रिवाज बेवक़्त शहनाई बजाने जैसे हैं।
 
क्या ब्रिटिश किंग की ताजपोशी आज भी उतनी ही अहमियत रखती है, जैसी सदियों पहले हुआ करती थी? और, एक सवाल ये भी है कि क्या ब्रिटेन के किंग को इसकी ज़रूरत है?
 
शनिवार को होने वाले अपनी तरह के अनोखे राज्याभिषेक समारोह को ब्रिटेन ही नहीं, पूरी दुनिया में करोडों लोग देखेंगे। हो सकता है कि ब्रिटेन की जनता ऐसे शाही जश्न और समारोहों की आदी हो। उसे इस दौरान दिखने वाली तड़क-भड़क और आडंबर, इसमें उमड़ी भीड़ और सड़कों पर जश्न मनाने की आदत पड़ी हो।
 
लेकिन, ब्रिटेन ने ताजपोशी का जो पिछला शाही समारोह देखा था, वो 70 बरस पहले हुआ था। तब के मुक़ाबले अबकी बार मामला बिल्कुल अलग है, और किंग की ताजपोशी को लेकर लोगों में उत्सुकता है: क्योंकि, इस दौरान किंग चार्ल्स एक मध्यकालीन शपथ लेंगे।
 
इस दौरान उन्हें बारहवीं सदी के एक चम्मच से मंत्रों से अभिषिक्त पवित्र तेल लगाया जाएगा। ताजपोशी के इस समारोह में सात सौ साल पुरानी एक कुर्सी भी होगी, जिसमें एक पत्थर भी लगा है। इस पत्थर के बारे में कहा जाता था कि जब इस पत्थर को शाही तख़्त का वाजिब उत्तराधिकारी दिखता था, तो उससे दहाड़ निकलती थी।
 
कुछ जानकार, समारोह की तुलना शादी के कार्यक्रम से करते हैं। फ़र्क़ बस इतना होता है कि ताजपोशी में जोड़े का ब्याह रचाने के बजाय, राजा या महारानी की शादी उनके देश या सल्तनत से की जाती है।
 
लंदन के ऐतिहासिक चर्च वेस्टमिंस्टर एबे में जो दो हज़ार लोग किंग चार्ल्स की ताजपोशी के गवाह बनेंगे, उनसे पूछा जाएगा कि क्या वो उन्हें अपने शासक के तौर पर मान्यता देते हैं। उसके बाद ही किंग को ताजपोशी की अंगूठी देकर एक शपथ लेने को कहा जाएगा।
 
अगर ये सारे रीति रिवाज आपको किसी गुज़रे ज़माने के लगते हैं, तो इसकी वजह यही है कि पिछले लगभग एक हज़ार साल से ब्रिटेन में ताजपोशी समारोहों में शायद ही कोई बड़ा बदलाव आया हो। क़ानून की बात करें, तो इसकी कोई ज़रूरत नहीं है। क्योंकि अपने पूर्ववर्ती के देहांत के बाद क़ानूनी वारिस ख़ुद-ब-ख़ुद किंग या क्वीन बन जाते हैं।
 
लेकिन, यह कार्यक्रम एक प्रतीकात्मक अहमियत रखता है। किंग्स कॉलेज लंदन में ताजपोशियों पर किए जा रहे रिसर्च के एक प्रोजेक्ट के अगुवा डॉक्टर जॉर्ज ग्रॉस कहते हैं कि ताजपोशी के ज़रिए किंग या महारानी शाही शासक की अपनी ज़िम्मेदारी को लेकर औपचारिक रूप से प्रतिबद्धता जताते हैं।
 
डॉक्टर जॉर्ज ग्रॉस मानते हैं कि किंग या महारानी अपनी ताजपोशी के वक़्त, जब सार्वजनिक रूप से 'क़ानून की मर्यादा बनाए रखने और दया के साथ इंसाफ़ करने' का वादा करते हैं, तो वो अपने आप में एक अनूठा और ख़ास लम्हा होता है।
 
वो कहते हैं कि, "आज की अनिश्चितताओं भरी दुनिया में जब नेता अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों को लगातार तोड़ते रहते हैं, तब हमारे किंग को कहना होगा कि 'ये वो बुनियादी बातें हैं, जो अहमियत रखती हैं', तो इस बात से मुझे कोई झटका नहीं लगता।"
 
नए और पुराने दौर का मेल है ताजपोशी?
इसके बाद जो कुछ होता है, वो शायद ताजपोशी समारोह का निचोड़ है: ये बुनियादी तौर पर एक धार्मिक कार्यक्रम होता है। मंत्रों से सिद्ध पवित्र तेल को मध्ययुग के चम्मच में उड़ेलकर सम्राट के सिर, सीने और हाथों पर प्रतीकात्मक क्रॉस का निशान बनाते हुए लगाया जाता है।
 
डॉक्टर जॉर्ज ग्रॉस कहते हैं कि, ये प्रक्रिया पूरी होने पर 'किंग को लगभग एक पादरी' का दर्जा मिल जाता है। और, इससे किंग के चर्च ऑफ इंग्लैंड के मुखिया बनने का संकेत मिलता है।
 
संसद के लिए रिसर्च पेपर लिखने वाले डॉक्टर डेविड टॉरंस कहते हैं, "असल में ये इंग्लैंड के चर्च का समारोह है, और किंग को पवित्र तेल लगाना ज़रूरी होता है, क्योंकि इसका मतलब ये होता है कि उनके ऊपर ईश्वर ने कृपा कर दी है।"
 
डेविड टॉरंस ये भी कहते हैं, "लेकिन, इस समारोह के ज़रिए चर्च ऑफ़ इंग्लैंड सबको याद दिलाता है कि कि वो ब्रिटेन का मान्यता प्राप्त चर्च है और किंग उसके सर्वोच्च प्रशासक हैं।"
 
रॉयल स्टडीज़ नेटवर्क की निदेशक डॉक्टर एलेना वूडेकर कहती हैं कि पवित्र तेल लगाने का कार्यक्रम गुप्त रूप से किया जाता है, क्योंकि ये बेहद निजी लम्हा होता है। और, ऐसा करने के व्यवहारिक कारण भी हैं। क्योंकि जब किंग या महारानी के ऊपर पवित्र तेल छिड़का जा रहा होता है, तब वो बेहद कम कपड़ों में होते हैं।
 
वो कहती हैं कि जब किंग चार्ल्स के ऊपर पवित्र तेल छिड़का जा रहा होगा, तो कैमरों का रुख़ उधर से हट जाने की संभावना है। 1953 में जब महारानी एलिज़ाबेथ की ताजपोशी हुई थी, तब भी ऐसा ही हुआ था। वो पहली ताजपोशी थी, जिसका टीवी पर प्रसारण किया गया था। जब महारानी का शाही लबादा और उनके गहने उतार दिए गए थे, तो कैमरों का रुख़ उनकी ओर से मोड़ दिया गया था।
 
क्या है पवित्र तेल, जिसे किया जाएगा अभिषेक
किंग चार्ल्स की ताजपोशी के लिए इस बार नए सिरे से पवित्र तेल तैयार किया गया है। जबकि इससे पहले कुछ शासकों ने ताजपोशी के वक़्त पहले का मंत्रसिद्ध पवित्र तेल ही इस्तेमाल कर लिया था। पहले, पवित्र तेल तैयार करने में जानवरों के उत्पाद जैसे कि गंधबिलाव का तेल या स्पर्म व्हेल के पेट से निकाली जाने वाली जड़ी एंबरग्रिस का इस्तेमाल किया जाता था।
 
लेकिन, जानवरों के प्रति क्रूरता के ख़िलाफ़ संदेश देते हुए, किंग चार्ल्स के ताजपोशी में इस्तेमाल होने वाले पवित्र तेल को जैतून के तेल से तैयार किया गया है। और शायद अन्य धर्मों के प्रति सहमति जताने के लिए वो जैतून इस्तेमाल किए गए हैं, जो यरूशलम के मैरी मैग्डालीन के मठ में उगाए गए थे। ये वही जगह है, जहां किंग चार्ल्स की दादी, प्रिंसेस एलिस दफ़्न हैं।
 
डॉक्टर एलेना वूडेकर कहती हैं कि इस तेल का चुनाव शायद 'नए दौर की संवेदनाओं का ख़याल' रखते हुए किया गया है। वो कहती हैं कि इस पवित्र तेल में 'परंपरा और निरंतरता के साथ बदलाव के हिसाब से ढल जाने का मेल' दिखता है। वो भी उस मौक़े पर जब कई लोग ये सवाल उठा रहे हैं कि क्या आज के दौर में भी राजशाही की कोई ज़रूरत है?
 
ताजपोशी वो मौक़ा है जब किंग चार्ल्स गुज़रे हुए ज़माने की ताक़त का इस्तेमाल करके अपने भविष्य की दशा दिशा तय करेंगे। वेस्टमिंस्टर एबे में ताजपोशी जैसी परंपराएं और सदियों पुराने चम्मच का इस्तेमाल, उन्हें लिए अपनी हैसियत मज़बूत बनाने में मददगार साबित होंगे।
 
परंपराओं की फ़िक्र?
ग्राहम स्मिथ, ब्रिटेन में रिपब्लिक नाम के एक संगठन के सदस्य हैं। ये संगठन देश के लिए चुने हुए राज्याध्यक्ष बनाने का अभियान चलाता है। ग्राहम स्मिथ सवाल करते हैं कि आज जब ताजपोशी के 'पैमाने, दायरे और रीति रिवाज हर बार बदल जाते हैं', तो क्या वाक़ई इन्हें जारी रखने के लिए परंपरा का हवाला देना एक वाजिब तर्क है?
 
वो कहते हैं कि, "ज़्यादातर लोगों को याद नहीं है कि पिछली बार क्या हुआ था, तो ज़ाहिर है कि ये कोई ऐसी परंपरा नहीं, जिसका किसी के लिए कोई मतलब है। इसकी कोई संवैधानिक अहमियत नहीं है। इसकी ज़रूरत नहीं है। और, अगर हम समारोह न भी करें, तो भी चार्ल्स हमारे किंग बने रहेंगे।"
 
निश्चित रूप से किसी शाही शासक को राज करने के लिए ताजपोशी की ज़रूरत नहीं होती और एडवर्ड सप्तम जैसे गिने चुने सम्राटों ने बिना ताजपोशी के भी राज किया था। एडवर्ड सप्तम ने तो अपनी मुहब्बत के लिए साल भर के भीतर ही शाही तख़्त को छोड़ भी दिया था।
 
यूरोप के दूसरे शाही शासकों ने लंबे अर्से पहले ही ताजपोशी के तड़क-भड़क भरे समारोह को तिलांजलि दे दी थी। और, जनता की राय ये इशारा कर रही है कि शायद ब्रिटेन में भी ऐसे आयोजनों को लेकर लोगों की दिलचस्पी कम हो रही है।
 
हाल ही में किए गए यूगॉव (YouGov Poll) पोल में शामिल 48 फ़ीसद लोगों कहा था कि इस बात की पूरी संभावना है कि वो शायद ताजपोशी का समारोह नहीं देखेंगे।
 
इसी तरह, महारानी एलिज़ाबेथ के राज-पाट की प्लेटिनम जुबिली के वक़्त किए गए एक और सर्वे में पाया गया था कि ब्रिटेन के दस में से छह लोग राजशाही के समर्थक ज़रूर थे। मगर, ज़्यादातर लोग ये महसूस करते थे कि देश के लिए शाही परिवार अब उतना अहम नहीं रह गया था, जितना 1952 में था।
 
नेशनल सेक्यूलर सोसाइटी के मुख्य कार्यकारी स्टीफन एवांस कहते हैं कि पिछला ताजपोशी समारोह 1953 में हुआ था। उसके बाद से ब्रिटेन का धार्मिक माहौल 'इतना बदल चुका है कि पहचानना मुश्किल है' ऐसे में, 'इंग्लिश चर्च के इस समारोह से बहुत से लोग जुड़ाव महसूस नहीं कर पाएंगे।'
 
डॉक्टर डेविड टॉरंस भी इस बात से सहमत हैं। वो कहते हैं कि हो सकता है उस वक़्त ताजपोशी के समारोह के मुख्य पहलुओं से जनता परिचित रही हो। लेकिन, तब की तुलना में शायद आज लोग इस कार्यक्रम के बारे में कम ही जानते हैं।
 
लेकिन, वो ये भी कहते हैं कि आज ब्रिटेन में धार्मिकता बढ़ रही है। आंकड़े इस बात के गवाह हैं कि लंदन के गिरजाघरों में भीड़ बढ़ रही है और इन दिनों इंग्लिश चर्च काफ़ी व्यस्त रहने लगे हैं।
 
डेविड टॉरंस कहते हैं, "जब महारानी का निधन हुआ तो हमने उनके अंतिम संस्कार के दौरान मज़हब का काफ़ी मेल दिखा था। मुझे लगता है कि राजमहल भी जनता के जज़्बात से हैरान रह गया था।।।। कई लोगों ने इस पर बारीक़ी से ध्यान दिया था। अगर आज ताजपोशी के समारोह को चर्च ऑफ़ इंग्लैंड की परंपराओं से थोड़ा कम जोड़ने की कोशिश हो रही है, तो हो सकता है कि इसके पीछे यही सोच हो कि आज के ब्रिटेन में दूसरे धर्मों के मानने वाले भी काफ़ी लोग रहते हैं।"
 
इक्कीसवीं सदी में ताजपोशी?
हालांकि, ये बात भी सच है कि ताजपोशी का सबसे ज़रूरी हिस्सा एक धर्म से जुड़ा है।
 
सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ़ मॉडर्न मोनार्की की निदेशक प्रोफ़ेसर एना व्हाइटलॉक कहती हैं, "ताजपोशी समारोह के केंद्र में पवित्र तेल छिड़कना और चर्च ऑफ़ इंग्लैंड को क़ायम रखने की शपथ लेना है। सच तो ये है कि आप ताजपोशी के बुनियादी हिस्सों को नहीं बदल सकते हैं। ये रिवाज़ एक ख़ास पंथ से जुड़े हैं। विविधता भरे नहीं हैं, और इनका ताल्लुक़ उस विशेषाधिकारों से है, जो विविध धर्मों और जातीयताओं वाले आज के ब्रिटेन की पहचान से बिल्कुल अलग है।"
 
प्रोफ़ेसर एना ये मानती हैं कि ताजपोशी को आज के दौर के हिसाब से ढालने की कोशिश की जा रही है। जैसे कि पिछली ताजपोशी की तुलना में इस बार का समारोह कम भव्य होगा, छोटा होगा। इसके लिए नया संगीत तैयार कराया गया है और इसमें बहुत अलग-अलग मेहमान बुलाए गए हैं। हालांकि, वो कहती हैं, "चूंकि आप बुनियादी उसूलों को नहीं बदल सकते, तो ये कोशिश ऊपरी बनावट और श्रृंगार में बदलाव की मालूम होती है।"
 
प्रोफ़ेसर एना व्हाइटलॉक का मानना है कि ताजपोशी के समारोह में किसी भी अर्थपूर्ण बदलाव के लिए व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन करना होगा। जैसे कि चर्च ऑफ़ इंग्लैंड की मान्यता ख़त्म करना या फिर राजशाही को लेकर एक जनमत संग्रह कराना। उनका मानना है कि इनमें से कोई भी बात फिलहाल तो नहीं होने जा रही है।
 
वो कहती हैं, "शाही परिवार की वैधता परंपराओं और निरंतरता पर टिकी है। तो मुझे लगता है कि अगर प्रिंस विलियम ताजपोशी की परंपरा ख़त्म करते हैं, तो लोग कहेंगे कि ये तो कुछ ज़्यादा ही हो गया और इससे राजशाही की संस्था को चोट पहुंचेगी। तो, मुझे नहीं लगता कि अभी हम उस मोड़ पर पहुंच पाए हैं।"
 
लोगों के पास पैसे की तंगी और दूसरी तरफ़ शाही जलसा
डॉक्टर जॉर्ज ग्रॉस मानते हैं कि ताजपोशी के कार्यक्रम को दूसरे तरीक़ों से आधुनिक बनाने की कोशिश हो रही है। इसमें लागत का सवाल भी है।
 
वो कहते हैं कि आर्थिक तंगी के दौर में ताजपोशी होना कोई नई बात नहीं है। डॉक्टर ग्रॉस इसके लिए किंग जॉर्ज षष्ठम की ताजपोशी की मिसाल देते हैं, जो महान मंदी के दौर में हुई थी।
 
लेकिन, किंग चार्ल्स की ताजपोशी में उनकी मां के ताजपोशी की तुलना में एक चौथाई मेहमान बुलाने का फ़ैसला, शायद राजमहल की इस कोशिश का नतीजा है कि समारोह का ख़र्च 'वाजिब' रहे।
 
लेकिन, आज जब ब्रिटेन के लोग पैसे की तंगी का सामना कर रहे हैं, तो आलोचक कहते हैं कि करोड़ों रुपए ख़र्च करके राज्याभिषेक का समारोह आयोजित करना, जनता के पैसे की बर्बादी है।
 
ब्रिटेन का संस्कृति, मीडिया और खेल मंत्रालय ये बताने में नाकाम रहा है कि ताजपोशी के समारोह में कितनी रक़म ख़र्च होगी?
 
लेकिन, ज़ाहिर है कि ये ठाठ-बाट, ये तड़क-भड़क कोई मुफ़्त में तो होने वाला नहीं। मंत्रालय ने तो अब तक ये भी नहीं बताया कि महारानी एलिज़ाबेथ के सरकारी अंतिम संस्कार में कितना पैसा लगा था।
 
हालांकि, अगर तुलना करें, तो, ख़बरों के मुताबिक़ 2002 में महारानी की मां के अंतिम संस्कार में 54 लाख पाउंड की रक़म ख़र्च हुई थी।
 
हालांकि, महारानी और उनकी मां दोनों के निधन पर लोगों की जैसी प्रतिक्रिया रही है, उससे लगता है कि राजशाही को लेकर ब्रिटेन की जनता में अभी भी कुछ न कुछ दिलचस्पी ज़रूर है।
 
पिछले साल सितंबर में जब महारानी का शव अंतिम दर्शनों के लिए रखा गया था, तो लगभग ढाई लाख लोगों ने क़तार लगाकर अपनी बारी आने का इंतज़ार किया था। महारानी की मां के अंतिम दर्शन के लिए भी इतनी ही भीड़ जुटी थी।
 
ब्रिटेन की 6.7 करोड़ आबादी के लिहाज़ से ये तादाद भले ही कम लगे। लेकिन, शाही परिवार को लेकर ब्रिटेन की दिलचस्पी इस बात से भी समझ सकते हैं कि देश की 40 प्रतिशत जनता ने महारानी एलिज़ाबेथ के अंतिम संस्कार को टीवी पर देखा था।
 
अब किंग चार्ल्स की ताजपोशी को लेकर भी जनता में उतनी ही दिलचस्पी रहेगी या नहीं, ये देखना बाक़ी है। लेकिन, प्रोफ़ेसर एना व्हाइटलॉक को इसमें संदेह है।
 
वो कहती हैं , "इसमें कोई शक नहीं कि कुछ लोग ताजपोशी का समारोह देखेंगे, और कहेंगे कि यही शाही ठाठ-बाट और आडंबर है, जो ब्रिटेन सबसे अच्छे से करता है। लेकिन, ये सोचकर एक झटका लगता है कि एक इंसान, जो चुना हुआ नहीं है। जो न तो धार्मिक तौर पर, और न ही जातीयता के लिहाज़ से ब्रिटेन की नुमाइंदगी करता है। वो बस अपनी पैदाइश के इत्तेफ़ाक़ से वहां है, जहां उसका राजतिलक करके हम सबसे ऊपर का दर्जा दिया जा रहा है।"

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