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ग्राउंड रिपोर्ट: शिलांग कैसे पहुंच गए पंजाब के लोग

हमें फॉलो करें ग्राउंड रिपोर्ट: शिलांग कैसे पहुंच गए पंजाब के लोग
, सोमवार, 18 जून 2018 (11:54 IST)
- फ़ैसल मोहम्मद अली (शिलांग से लौटकर)
 
कहते हैं अंग्रेज़ी फ़ौज का एक दस्ता जब पंजाब से शिलौंग आया तो अपने साथ सिख सफ़ाईकर्मियों का एक दल भी लेकर आया। अंग्रेज़ी हुकूमत उत्तर-पूर्व में पांव पसार रही थी, अलग-अलग गांवों वाला येड्डो शिलौंग शहर के तौर पर बस रहा था और फ़ौजी छावनी, सैनिटोरियम, प्रशासनिक केंद्रों और यूरोपियन क्वार्टर्स के बनने के साथ संडास वाले पाखानों की सफ़ाई की ज़रूरत खड़ी हो रही थी।
 
 
मशहूर इतिहासकार हिमाद्रि बनर्जी की एक स्टडी में साल 1910 में सिख सफ़ाईकर्मियों के नाम शिलांग नगर निगम के रजिस्टर में दर्ज होने का ज़िक्र है। और शायद तभी बसे स्वीपर्स लाइन, हरिजन कॉलोनी या पंजाबी लेन या पंजाबी कॉलोनी - आख़िरी नामों का इस्तेमाल ज़्यादातर वो लोग करते हैं जो इस इलाक़े के रहनेवाले हैं, स्थानीय लोग नहीं।
 
मगर सिख समुदाय का दावा है कि पंजाबी लेन में उनकी बसाहट 19वीं सदी में साठ के दशक के पहले की है। तब शहर के मुख्य हिस्से से थोड़ा अलग बसाया गया 'स्वीपर्स लाइन' अब शिलौंग के दूसरे सबसे बड़े कमर्शियल इलाक़े बड़ा बाज़ार के तक़रीबन बीचोंबीच बसा है।
 
 
सिखों और खासियों के बीच ताज़ा तनाव
तक़रीबन दो हफ़्ते पहले यहां चंद लोगों के बीच गाली-गलौच के बाद मारपीट हुई, इत्तेफ़ाक़ से इनमें से एक पक्ष सिखों का था, दूसरा सूबे के सबसे बड़े क़बायली समुदाय खासियों का।
 
शिलांग में सिखों की कॉलोनी
इस आपसी झगड़े ने बाद में जातीय दंगे का रूप अख़्तियार कर लिया। शहर अभी भी कर्फ़्यू से पूरी तरह से उबरा नहीं है। इंटरनेट सेवाओं पर भी रोक लगा दी गई थी। खासी हिल्स ज़िला स्वायत्त परिषद के क़ानूनी सलाहकार इरविन सिएम कहते हैं "चूंकि मज़बी सिखों को मिले क्वार्टर्स एक पंक्ति में बने थे तो हो सकता है इससिए इसे स्वीपर्स लाइन बुलाया जाने लगा हो!"
 
 
(मज़बी सिख ख़ुद को वाल्मीकि समुदाय से जोड़ते हैं। कई बार वो ख़ुद को वाल्मीकि सिख भी बुलाते हैं।)
 
मगर अब मौलांग घाट तिराहा से मोखार चौक के बीच सिवाए कोलतार की उस सड़क के कुछ भी ऐसा नहीं जो एक लाइन में हो - हैं तो बस बेहद तंग टेढ़ी-मेढ़ी अंधेरी गलियां, सड़क के एक तरफ़ ऊपर को जाती दूसरी तरफ़ नीचे उतरती हुई, जिनमें हर कुछ हाथ पर दिख जाने वाले घरों के दरवाज़े आश्वस्त करते हैं कि आप किसी सुरंग में नहीं।
 
 
शिलांग की पंजाबी लाइन मुंबई के धारावी जितनी बड़ा और मशहूर भले ही न हो, लेकिन बहुत मायनों में उसका मिनी रूप ज़रूर लगता है, अपने रूप-रंग में और अपनी बदनामी को लेकर भी।
 
बेहद घनी आबादी वाला पंजाबी लाइन
इसकी बेहद घनी आबादी को जो लगातार सीलन से भरी रहती है, चिकित्सक इलाक़े में टीबी और निमोनिया के मरीज़ों की बड़ी संख्या में मौजूदगी की वजह बताते हैं। वुडलैंड अस्पताल के चिकित्सक दिगांता दास के मुताबिक़ "सघन आबादी वाले इलाक़ों में टीबी जैसी बीमारियों का एक व्यक्ति से दूसरे में फैलने का ख़तरा कई गुना बढ़ जाता है।"
 
 
सामान्यत: टैक्सियां इस इलाक़े में जाने से इनकार कर देती हैं और अगर तैयार भी होतीं हैं तो सड़क के नुक्कड़ तक जाने के लिए। पंजाबी लाइन में "दूसरी तरह की गतिविधियों" और शहर के बड़े हिस्से में ड्रग सप्लाई के सेंटर होने की बात स्थानीय लोग दबे लफ़्ज़ों में करते हैं।
 
पंजाबी लाइन के हालात
'द शिलौंग टाइम्स' की संपादक पैट्रिशिया मुखिम भी (जिन पर पर खासी नेता सिखों का पक्ष लेने का आरोप लगाते हैं) कहती हैं, "कई लोग और मैं ख़ुद भी उस इलाक़े में जाने को बहुत सुखी अनुभव नहीं मानती।"
 
 
इलाक़े के निवासी मंजीत सिंह सोहिल कहते हैं कि वो जानते हैं कि पंजाबी लाइन के बारे में बाहर किस तरह की बात होती है। वो सवाल करते हैं, "आप तो कई दिनों से ग्राउंड ज़ीरो पर हैं, यहां कई दिनों से घूम रहे हैं, आपको ऐसा कुछ दिखा क्या?"
 
रौबर सिंह बार-बार पूछने पर भी उसी बात का ज़िक्र करते हैं, "ज़िंदगी हाल तक मज़े में कट रही थी।" हालांकि, उनकी तीन हज़ार की तनख़्वाह में हाथ बहुत तंग रहता था, लेकिन वो किसी तरह गुज़ारा कर लेते थे घर में किरायेदार रखकर। मगर हंगामे के बाद से किरायेदारों को जाना पड़ा।
 
 
रौबर सिंह का जो मूलत: मेघालय के ही रहनेवाले हैं, उनका घर या चाहें तो कमरा कह लें, 8X6 फ़ुट का है। एक किनारे के टेबल पर रखे गैस चूल्हे और किचन के कुछ बिखरे डिब्बों और दूसरे कोने में पड़ी लकड़ी के टू-सीटर के बाद जो जगह बची है उसमें एक तरफ़ की दीवार पर रेल के डब्बे जैसी तीन बर्थ बना दी गई हैं जिसपर बिस्तर और तकिये रखे हैं।
 
 
फ़र्श की सीलन को प्लास्टिक की एक मोटी शीट बिछाकर छिपाने की कोशिश की गई है। अधेड़ रौबर सिंह की पार्टनर भी मूलत: इसी सूबे की हैं और खासी समुदाय से ताल्लुक रखती हैं, लेकिन वो अपना नाम विमल कौर बताती हैं। अपनी फ़र्राटेदार पंजाबी में वो शिकायत करती हैं कि इलाक़े में पानी ढोना एक बड़ा काम है क्योंकि वो कुछ सार्वजनिक नलकों पर ही सुबह-शाम कुछ-कुछ घंटों के लिए आता है।
 
उस दिन - यानी 31 मई को भी, एक वर्ज़न के मुताबिक़ झगड़ा नलके के बिल्कुल सामने बस लाकर खड़ी कर देने की वजह से शुरू हुआ और फिर लड़कियों ने वाहन ड्राइवर और कंडक्टर की पिटाई कर दी। हालांकि बस के ड्राइवर के मुताबिक़ झगड़ा बढ़ने पर सिख युवकों ने जमा होकर बस में मौजूद तीन नवयुवकों को बुरी तरह से पीटा। पिटने वालों में से दो की उम्र 12 और 15 साल की बताई जा रही है।
 
 
बाद में इन्हीं लड़कों को लेकर अफ़वाह उड़ी कि उनमें से एक की मौत हो गई है। सोशल मीडिया पर कथित तौर पर ये भी फैलाया गया कि पंजाबियों ने दो बच्चों के सिर काट डाले हैं। फिर क्या था, देखते-देखते बड़ा बाज़ार में मौजूद फ्रांस स्मारक के पास भारी भीड़ इकट्ठा हो गई जिसने सुरक्षाबलों पर हमले और पथराव भी किए।
 
सुरक्षाबलों ने प्रदर्शनकारियों पर आंसू गैसे के गोल छोड़े। शहर में कर्फ़्यू लागू कर दिया गया और इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गईं। एक प्राइवेट ऑयल कंपनी में सेल्स एग्ज़ीक्यूटिव सन्नी सिंह मुझे वो जगह दिखाते हैं जहां पंजाबी लेन निवासियों के मुताबिक़ झगड़े वाले दिन "पेट्रोल बम" फेंके गए थे। "उस हमले में एक स्कूटर पूरी तरह फुंक गया और लकड़ी की इस दुकान को बहुत नुक़सान पहंचा," सन्नी सिंह वो जगह दिखाते हुए कहते हैं।
 
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सुरक्षा के लिए गेट लगाने का प्रस्ताव
छरहरे शरीर वाले इस युवक का कहना है कि उनका परिवार पांच पीढ़ी पहले गुरदासपुर से यहां आया था, लेकिन इतने सालों बाद भी उन लोगों का संबंध पंजाब से क़ायम है और वो "अभी भी अपने पिंड (गांव) जाते रहते हैं।"
 
कहते हैं कि शुरुआती दिनों में जो मज़बी (मज़हबी) सिख शिलौंग आए उनमें से अधिकतर का संबंध पंजाब के दो उत्तरी ज़िले गुरदासपुर और अमृतसर से था। उस दिन के बारे में पूछने पर टैक्सी ड्राइवर किशन सिंह कहते हैं, "वो तो वाहे गुरु की कृपा थी वरना यहां तो दमकल भी नहीं पहुंच सकती।"
 
लकड़ी, टिन और कुछ के बने इन घरों में फ़र्श ज़्यादातर प्लास्टिक या मामूली कार्पेट के हैं। किसी तरह की आग यहां ख़तरनाक़ हो सकती है। स्वयंसेवी संस्था यूनाइटेड सिख ने कॉलोनी में एक-दो जगहों पर गेट लगाने का प्रस्ताव दिया है।
 
 
हर कुछ दूरी पर फ़ायर एक्सटिंग्विशर (आग बुझाने के लिए) लगाने का काम जारी है। हालांकि ये सब वहां रहनेवालों के लिए कितने दिन तक काम आएंगे, इसे लेकर प्रश्नचिन्ह है। पिछले माह हुए हंगामे के बाद एक बार फिर से पंजाबी लाइन को वहां से हटाकर दूसरी जगह बसाने की दो दशक से भी पुरानी मांग तेज़ हो गई है।
 
हुक़ूमत ने बसाहट को कहीं और ले जाने और उनके पुनर्वास के लिए एक उच्चस्तरीय समिति का गठन कर दिया है। पूर्व विधायक और क्षेत्रीय राजनीतिक दल यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी के महासचिव जेमिनो माउथो कहते हैं, "ये मुद्दा कोई नया नहीं है, 1990 के दशक में स्थानीय खासी, जैंतिया और गारो आदिवासी समुदाय के लोग इस मामले पर साथ आए थे और एक संयुक्त समिति का गठन भी हुआ था।"
 
 
1996 में इसी मुद्दे पर हुए एक प्रदर्शन में एक व्यक्ति की मौत हो गई थी। पंजाबी लाइन के पुर्नवास की मांग को गुरजीत सिंह कुछ लोगों की ज़िद बताते हैं। वो हरिजन पंचायत समिति के सेक्रेटरी और स्थानीय गुरुद्वारा समिति के अध्यक्ष हैं।
 
कैसे शुरु हुई गोरा लाइन की बसाहट?
ग्रैजुएशन फ़र्स्ट ईयर में पढ़ाई कर रहे सूरज सिंह को शिकायत है कि उन्हें 'दखार' यानी बाहरी बुलाया जाता है। ग्रे कलर का पटका बांधे लंबे क़द के सूरज सिंह पंजाबी लाइन से तीन-साढ़े तीन किलोमीटर दूर बसे लाइटू मुखरा इलाक़े में रहते हैं, इसे गोरा लाइन भी कहा जाता है।
 
 
पंजाबी लाइन के मज़बी सिख जब शिलौंग में ख़ुद ठीक तरह से बस गए तो उन्होंने पंजाब से अपने रिश्तेदारों और जाननेवालों को भी काम के सिलसिले में वहां बुलाना शुरु कर दिया। और ऐसे शुरू हुई गोरा लाइन की बसाहट। यहां गुरदासपुर और अमृतसर के अलावा अजनाला और डेरा बाबा नानक जैसे पंजाब के ज़िलों के लोगों से भी मुलाक़ात होती है।
 
उत्तर-पूर्व के शहरों जैसे गुवाहाटी और असम की राजधानी दिसपुर में जो मज़बी सिख जाकर बसे उसमें शिलौंग 'कनेक्शन' का बहुत महत्वपूर्ण रोल रहा है। शिलौंग शहर में - पख़ाना साफ़ करने के अलावा, नगरपालिका की बैलगाड़ियों को हांकने और दफ्तरों, सड़कों और निजी घरों की सफाई-सुथराई का काम बढ़ रहा था और उसे करने के लिए स्थानीय लोग तैयार नहीं थे।
 
मगर अब स्थानीय आदिवासी समुदायों को सफाई-सुथराई के कामगार के तौर पर बहाल होने में कोई हिचक नहीं है। संडास वाले पखानों का दौर बहुत पहले ही ख़त्म हो चुका है।
 
रायट कलेक्टिव नाम की "अनुकूलता को चैलेंज करनेवाली वेबसाइट" के संपादक तरुण भारतीय कहते हैं, "आदिवासी समाज में वैसे भी जाति का कोई स्थान नहीं है।"
 
मेघालय एक आदिवासी बहुल सूबा है और उनके मुताबिक़ वहां की 80 फ़ीसद नौकरियों पर स्थानीय जनजातियों का हक़ सबसे पहले माना जाता है। संविधान के प्रावधान के मुताबिक़ जो यहां के मूल-निवासी नहीं हैं वो शिलौंग या सूबे में कहीं ज़मीन भी नहीं ख़रीद सकते हैं।
 
 
सिक्के का दूसरा पहलू ये है कि मज़बी सिखों का पढ़ा-लिखा युवा वर्ग अब सफाईकर्मी का काम नहीं चाहता और दूसरे काम मिलना इतना आसान नहीं। टिंका सिंह कहते हैं, "अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र मिल जाने पर शायद युवाओं को कुछ आसानी हो। लेकिन यहां वो सर्टिफिकेट देते नहीं और पंजाब या किसी दूसरे सूबे के प्रमाण पत्र को मानने को तैयार नहीं होते।"
 
'गुरुद्वारे को छोड़कर कैसे जा सकते हैं'
गोरा लाइन निवासी टिंका सिंह के पास ख़ुद विधानसभा में पक्की नौकरी है, लेकिन वो पास बैठे सूरज सिंह और नौवीं कक्षा के छात्र दलजीत सिंह खोखर को लेकर कहते हैं कि वो सफाईकर्मी के काम को लेकर बहुत उत्सुक नहीं हैं। गोरा लाइन दिल्ली की किसी अनधिकृत कॉलोनी-सा दिखता है - चौड़ी गलियां, ईंट की पक्की छत वाले मकान, कुछ तो दो या तीन माले ऊंचे। हां, कुछ घरों में लकड़ियों और टिन का भी इस्तेमाल है।
 
 
मगर वाटर सप्लाई के कनेक्शन घरों में मौजूद नहीं। अपने मार्बल के फ़र्श वाले घर में बैठे राजू सिंह कहते हैं, "हमारा इलाक़ा शहर के वाणिज्यिक क्षेत्र से दूर है तो इसे यहां से हटाने का किसी तरह का दबाव या हंगामा नहीं है।"
 
हालांकि एक घर की तरफ़ इशारा करके वो बताते हैं कि पंजाबी कॉलोनी में हमले के बाद वहां भी पेट्रोल बम फेंका गया था। 1600-1700 की आबादी वाले गोरा लाइन हरिजन पंचायत समिति के अध्यक्ष राजू सिंह हमें कॉलोनी का गुरुद्वारा और चर्च दिखाते हैं।
 
 
हिमाद्रि बनर्जी की स्टडी में ज़िक्र है कि मज़बी सिखों में तुलनात्मक तौर पर थोड़ी ऊंची जाति के रामगढ़िया (बढ़ई, लोहार और राज मिस्त्रियों) और सोनियारों ने चूड़ाओं के साथ भेदभाव शुरु कर दिया था जिसकी वजह से उन्होंने अपने गुरुद्वारों की स्थापना कर ली।
 
"हमारा गुरुद्वारा साहिब तक़रीबन बनकर तैयार है, हमने अपने कंधों पर ईंट-गारा ढोकर दिन-रात एक कर उसे बनाया है, हम उसको छोड़कर कैसे जा सकते हैं," आजकल बेकारी से दोचार ग्रैजुएट, पंजाबी लाइन के आकाश सिंह वहां से शिफ्ट होने की बात पर कहते हैं।
 
 
पंजाबी लाइन गुरुद्वारा आजकल फिर से निर्माणाधीन है।
 
आकाश सिंह कहते हैं कि उन्हें यहां से भगाने की कोशिश इसलिए की जा रही है क्योंकि उन्हें बाहरी समझा जाता है। जेमिनो माउथो कहते हैं, "एक हलक़े में इसे जातीय या सांप्रदायिक मामले के तौर पर पेश करने की कोशिश की जा रही है। कुछ लोग इसका राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश भी कर रहे हैं। लेकिन ये मामला वैसा है नहीं। ये महज़ शहर की भीड़-भाड़ को कम करने की कोशिश है। उन्हें मेघालय से जाने को नहीं कहा जा रहा है ये उनके शहर में ही कहीं और बसाये जाने की बात है।"
 
 
अब भी है डर का माहौल
पंजाब की कैप्टन अमरिंदर सिंह सरकार ने हाल के हंगामे के बाद एक प्रतिनिधि मंडल भेजा था। अकाली दल के एक नेता मंदिंजर सिंह सिरसा, कांग्रेस के रवनीत सिंह बिट्टू और केंद्रीय अल्पसंख्यक आयोग के सदस्य गुरमीत सिंह राय भी वहां पहुंचे थे। गुरमीत सिंह राय ने बीबीसी से बातचीत में स्वीकार किया कि शिलौंग में वो खासी समुदाय के किसी व्यक्ति से नहीं मिले।
 
 
खासी स्टूडेंट यूनियन के अध्यक्ष लैंबॉक मारेंगार कहते हैं कि "नगरपालिका ने पंजाबी लाइन में रहनेवाले कर्मियों के लिए दूसरी जगह क्वार्टर्स भी बनाए थे जो सालों ख़ाली रहे, लेकिन वो शिफ्ट होने को तैयार नहीं हुए।"
 
तरुण भारतीय कहते हैं, "उनको डर है कि रिटायरमेंट के बाद उन्हें वो घर ख़ाली करने पड़ेंगे।" लेकिन नार्थ-ईस्ट स्टूडेंट ऑर्गेनाइज़ेशन के सैम्युल जिरवा इसे "वोट पालिटिक्स का नतीजा बताते हैं।"
 
 
जेमिनो माउथो तो शिफ्टिंग में पहले हुई देरी का ठीकरा कांग्रेस पर फोड़ते हैं जो सूबे में लंबे समय तक सत्ता में रही। मगर ये भी कहा जाता है कि बिशप कॉटन रोड में नगर निगम ने जो क्वार्टर्स बनाये थे वो संख्या में बहुत कम थे।
 
गुरजीत सिंह पंजाबी लाइन में रहनेवालों की तादाद 2500 बताते हैं। पर यहां रहनेवालों की तादाद को लेकर विवाद है। खासी नेता दावा करते हैं कि नगर पालिका के जो कर्मचारी पंजाबी लाइन में रहते हैं उनकी तादाद 50-100 से ज़्यादा नहीं और बाक़ी लोग ग़ैर-क़ानूनी तौर पर यहां रह रहे हैं।
 
 
सिएम रिकी नेल्सन का कहना है कि 1954 में शिलांग म्यूनिसिपल बोर्ड और स्थानीय सरदार के बीच जो समझौता हुआ था उसके मुताबिक़ 34,000 वर्ग फुट का इस्तेमाल स्वीपर्स क्वार्टर्स के लिए होना था। उस क्षेत्र में कमर्शियस शेड्स भी बनाए जाने की आज्ञा थी, लेकिन उसका इस्तेमाल बाज़ार के तौर पर किए जाने पर मनाही थी।
 
 
रिकी नेल्सन शिलौंग के उस इलाक़े जिसमें पंजाबी लाइन आता है, के सरदार हैं। मेघालय के खासी और जैंतिया इलाक़ों में 30 से अधिक सरदार हैं जो स्थानीय लोगों के ज़रिए मनोनीत होते हैं और उन इलाक़ों में इन सरदारों का दख़ल ज़िंदगी के हर क्षेत्र में होता है। ज़िला हिल काउंसिल ने एक समिति बनाई है जो जल्द ही पंजाबी लाइन में वैध और अवैध तरीक़े से रहनेवालों की पहचान का काम शुरू करेगी।

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