रेहान फ़ज़ल (दिल्ली)
25 जून, 1975 की रात डेढ़ बजे का समय। गाँधी पीस फ़ाउंडेशन के सचिव राधाकृष्ण के बेटे चंद्रहर खुले में आसमान के नीचे सो रहे थे। अचानक वो अंदर आए और अपने पिता को जगा कर फुसफुसाते हुए बोले, "पुलिस यहाँ गिरफ़्तारी का वारंट ले कर आई है।" राधाकृष्ण बाहर आए। बात सच निकली। पुलिस ने उन्हें जेपी के ख़िलाफ़ गिरफ़्तारी का वारंट दिखाया।
राधाकृष्ण ने पुलिस वालों से कहा कि क्या आप कुछ समय इंतज़ार कर सकते हैं। जेपी बहुत देर से सोए हैं। वैसे भी उन्हें तीन-चार बजे तो उठ ही जाना है क्योंकि उन्हें सुबह तड़के ही पटना की फ़्लाइट पकड़नी है।
पुलिस वाले इंतज़ार करने के लिए मान गए। राधाकृष्ण इस बीच चुपचाप नहीं बैठे। उन्होंने अपनी टेलिफ़ोन ऑपरेटर को निर्देश दिया कि वो जिस-जिस को फ़ोन लगा सकती हैं, फ़ोन कर जेपी की गिरफ़्तारी की सूचना दें। जब उन्होंने मोरारजी देसाई को फ़ोन लगाया तो पता चला कि पुलिस उनके भी घर पहुंच चुकी है। तीन बजे पुलिस वालों ने राधाकृष्ण का दरवाज़ा फिर खटखटाया, "क्या आप जेपी को जगाएंगे? हमारे पास वायरलेस से लगातार संदेश आ रहे हैं कि जेपी पुलिस स्टेशन क्यों नहीं पहुंचे?"
चंद्रशेखर टैक्सी में पहुंचे
राधाकृष्ण दबे पाँव जेपी के कमरे में गए। वो गहरी नींद में थे। उन्होंने धीरे से जेपी को जगा कर पुलिस वालों के आने की ख़बर दी। तभी एक पुलिस अफ़सर भी अंदर घुस आया। वो बोला, "सॉरी सर। हमें आपको अपने साथ ले जाने के आदेश हैं।" जेपी ने कहा, "मुझे तैयार होने के लिए आधे घंटे का समय दीजिए।"
घबराए हुए राधाकृष्ण ज़्यादा से ज़्यादा समय बिताने की कोशिश कर रहे थे ताकि जेपी के जाने से पहले उनके एकाध जानने वाले तो वहाँ पहुंच जाएं। जब जेपी तैयार हो गए तो राधाकृष्ण बोले, "जाने से पहले एक कप चाय तो पीते जाइए।" इस तरह दस मिनट और बीते। फिर जेपी ने ही कहा, "अब देर क्यों की जाए? आइए चलते हैं।" जैसे ही जेपी पुलिस की कार में बैठे, बहुत ही तेज़ रफ़्तार से आती हुई टैक्सी ने वहाँ ब्रेक लगाए। उसमें से कूद कर चंद्रशेखर उतरे। जब तक जेपी की कार चल चुकी थी।
विनाश काले विपरीत बुद्धि
राधाकृष्ण और चंद्रशेखर एक कार में उनके पीछे चले। जेपी को संसद मार्ग थाने ले जाया गया। जेपी को कुर्सी पर बैठाने के बाद पुलिस अधीक्षक दूसरे कमरे में गए। थोड़ी देर बाद बाहर निकल कर वो चंद्रशेखर को एक कोने में ले जा कर बोले, "सर दरअसल पुलिस का एक दल आपको यहाँ लाने आपके घर पर गया है।"
चंद्रशेखर मुस्करा कर बोले, "अब मैं यहाँ आ ही गया हूँ, तो आप मुझे यहीं गिरफ़्तार कर लीजिए।" पुलिस वालों ने वही किया। राधाकृष्ण ने जेपी से कहा, "क्या आप लोगों के लिए कोई संदेश देना चाहेंगे?" जेपी ने आधे सेकंड के लिए सोचा और राधाकृष्ण की आखों में सीधे देखते हुए कहा, "विनाश काले विपरीत बुद्धि।"
भुवनेश्वर के भाषण ने दूरी बढ़ाई
जानेमाने पत्रकार और जेपी आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने वाले राम बहादुर राय कहते हैं कि जयप्रकाश नारायण और इंदिरा गाँधी का संबंध तो चाचा और भतीजी का था, लेकिन जब भ्रष्टाचार के मुद्दे को जेपी ने उठाना शुरू किया तो इंदिरा की एक प्रतिक्रिया से वो संबंध बिगड़ गया।
उन्होंने एक अप्रैल, 1974 को भुवनेश्वर में एक बयान दिया कि जो बड़े पूंजीपतियों के पैसे पर पलते हैं, उन्हें भ्रष्टाचार पर बात करने का कोई हक़ नहीं है। राय कहते हैं, "इस बयान से जेपी को बहुत चोट लगी। मैंने ख़ुद देखा है कि इस बयान के बाद जेपी ने पंद्रह बीस दिनों तक कोई काम नहीं किया। खेती और अन्य स्रोतों से होने वाली अपनी आमदनी का विवरण जमा किया और प्रेस को दिया और इंदिरा गाँधी को भी भेजा।"
'माई डियर इंदु'
जेपी के एक और क़रीबी रहे रज़ी अहमद कहते है, "जयप्रकाश जी की ट्रेनिंग आनंद भवन में हुई थी। इंदिरा गांधी उस समय बहुत कम उम्र की थीं। आप नेहरू और जेपी के जितने भी पत्र देखेंगे, वो नेहरू को 'माई डियर भाई' कह कर संबोधित कर रहे हैं।" "इंदिरा को भी जेपी ने जितने पत्र लिखे हैं, 'माई डियर इंदु' कह कर संबोधित किया है, सिवाय एक पत्र के जो उन्होंने जेल से लिखा था, जिसमें उन्होंने पहली बार 'माई डियर प्राइम मिनिस्टर' कह कर संबोधित किया था।"
प्रभावती और कमला नेहरू की दोस्ती
राम बहादुर राय कहते हैं कि जेपी और इंदिरा के बीच दूरी बढ़ने में जेपी की पत्नी प्रभावती देवी की मौत ने भी बड़ी भूमिका निभाई थी। उनके मुताबिक़, "मेरा मानना है कि प्रभावतीजी जेपी और इंदिरा के बीच में एक ऐसी कड़ी थीं जो दोनों को जोड़े रखती थीं। इंदिरा भी प्रभावती को बहुत मानती थीं क्योंकि उनकी माता से उनका गहरा संबंध था। कमला नेहरू अपने विषाद के क्षणों में जब कोई सहारा खोजती थीं तो प्रभावती के पास जाती थीं।"
"यहां तक कि जब फ़िरोज़ गाँधी से इंदिरा गाँधी के संबंध बिगड़े, तो उन दिनों अगर माँ तुल्य कोई महिला थीं, जिनसे इंदिरा अपने मन की बात कह सकती थीं, तो वो प्रभावती थीं। ये कहना ग़लत नहीं होगा कि उन्होंने जेपी-इंदिरा के संबंधों को आजीवन संभाले रखा..."
इंदिरा बातचीत के लिए तैयार थीं
शुरू में इंदिरा गाँधी जेपी से बातचीत कर आपसी मतभेद दूर करने की कोशिश कर रही थीं। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर अपनी आत्मकथा 'ज़िंदगी का कारवाँ' में लिखते हैं, "मैंने इंदिराजी से कहा कि मैं जेपी से मिलने वेल्लूर जा रहा हूँ। पता नहीं वो क्या बात करेंगे। आपका क्या रुख़ है? क्या आप उनसे बात करेंगी या उनसे लड़ाई ही रहेगी? उन्होंने कहा, आप बात कीजिए। अगर जेपी चाहेंगे तो मैं भी बात करूँगी।"
इंदिरा-जयप्रकाश की बातचीत
इस बीच चंद्रशेखर के अलावा अन्य ज़रियों से भी जेपी और इंदिरा के बीच बातचीत होने की कोशिश हो रही थी। अचानक 29 अक्तूबर, 1974 को जेपी दिल्ली आए और गाँधी पीस फ़ाउंडेशन में ठहरे।
चंद्रशेखर उनसे मिलने गए। वो लिखते हैं, "जेपी ने मुझसे भोजपुरी में कहा, एक बात आपसे कहना चाहता हूँ। लेकिन मुझसे कहा गया है कि इसकी चर्चा किसी से नहीं करनी है, ख़ास तौर से आपसे तो बिल्कुल भी नहीं। जेपी ने कहा कि इंदिरा ने आज उन्हें बिहार आन्दोलन के बारे में बात करने के लिए बुलाया है। इसके लिए उन्होंने एक ड्राफ़्ट भेजा है। इसके आधार पर वो मुझसे बात करना चाहती हैं।"
"उन्होंने मुझे ड्राफ़्ट दिखाया। मैंने पढ़ा और कहा, ये बिल्कुल ठीक है। इस आधार पर आप समझौता कर लें। जेपी ने कहा कि समस्या ये है कि इंदिरा जानती हैं कि उनसे आपके संबंध बहुत अच्छे हैं। फिर उन्होंने आपसे इस बात को छिपाने के लिए क्यों कहा? मैंने उनसे पूछा, ये ड्राफ़्ट आपके पास कौन ले कर आया था? उन्होंने झिझकते हुए बताया, मेरे पास श्याम बाबू और दिनेश सिंह आए थे। सुनते ही मैंने कहा, इसके आधार पर आपसे समझौता नहीं होगा। इसका प्रायोजन सिर्फ़ इतना है कि लोगों को मालूम होना चाहिए कि आपसे बात हो रही है।"
'जयप्रकाश जी देश का तो ख़्याल करिए'
एक नवंबर, 1974 को जेपी रात के नौ बजे इंदिरा से मिलने उनके निवासस्थान 1, सफ़दरजंग रोड गए। राम बहादुर राय कहते हैं, "उन्हें बताया गया था कि ये बातचीत आपके और इंदिरा के बीच होनी है। जब जेपी प्रधानमंत्री निवास में पहुंचे तो उन्हें ये देख कर हैरानी हुई कि वहाँ बाबू जगजीवन राम पहले से बैठे हुए हैं।"
"पूरी बैठक के दौरान इंदिरा गाँधी कुछ नहीं बोल रही थीं। सारी बात जगजीवन राम कर रहे थे। जेपी का ज़ोर था कि बिहार विधानसभा को भंग करने की मांग उचित है। उस पर आपको विचार करना चाहिए। अंत में जब बात क़रीब-क़रीब ख़त्म हो गई थी तो इंदिरा ने सिर्फ़ एक वाक्य कहा, आप कुछ देश के बारे में सोचिए।"
"ये बात जेपी के मर्म पर चोट करने वाली थी। जेपी ने कहा था, इंदु मैंने देश के अलावा और सोचा ही क्या है। इसके बाद जेपी से जो भी मिला उससे उन्होंने बताया कि इंदिरा ने उनका अपमान किया है। इसके बाद जेपी ने ये कहना भी शुरू कर दिया कि इंदिरा से अब हमारा सामना चुनाव के मैदान में होगा।"
कमला नेहरू की लिखी चिट्ठियाँ लौटाईं
लेकिन 1, सफ़दरजंग रोड छोड़ने से पहले जेपी ने इंदिरा से कहा कि वो एक मिनट उनसे अकेले में बात करना चाहते हैं। उन्होंने उनको लगभग पीले पड़ चुके कुछ पत्रों का एक बंडल दिया। ये पत्र इंदिरा की माँ कमला नेहरू ने जेपी की पत्नी प्रभावती देवी को बीस और तीस के दशक में लिखे थे, जब उन दोनों के पति भारत की आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे थे।
प्रभा कमला की अकेली दोस्त और राज़दार थीं जिनसे वो नेहरू परिवार में उनके साथ हो रहे ख़राब सलूक की चर्चा कर सकती थीं। जेपी के इस जेस्चर से इंदिरा गाँधी थोड़ी देर के लिए भावुक ज़रूर हुईं लेकिन तब तक उन दोनों के बीच इतनी खाई बढ़ चुकी थी कि वो पट नहीं सकी।
दोनों का बड़ा अहम
इंदिरा गाँधी के सचिव रहे पीएन धर अपनी किताब, इंदिरा गाँधी, द इमरजेंसी एंड इंडियन डेमोक्रेसी में लिखते हैं, "हमारे और जेपी के बीच मध्यस्थता कर रहे गाँधी पीस फ़ाउंडेशन के सुगत दासगुप्ता ने मुझसे कहा था, नीतिगत मामलों का उतना महत्व नहीं है। मेरी सलाह ये है कि उनको कुछ मान दीजिए।"
धर आगे लिखते हैं, "बकौल राधाकृष्ण और दासगुप्ता, जेपी उम्मीद कर रहे थे कि प्रधानमंत्री बनने के बाद इंदिरा गाँधी उनसे उसी तरह के संबंध स्थापित करेंगी जैसे नेहरू और गांधी के बीच हुआ करते थे। इंदिरा गाँधी जेपी की एक इंसान के तौर पर क़दर ज़रूर करती थीं लेकिन उनके विचारों से वो शुरू से ही सहमत नहीं थीं।"
"उनकी नज़र में वो एक ऐसे सिद्धांतवादी थे जो अव्यावहारिक चीज़ों को अधिक महत्व देते थे। एक दूसरे के बारे में ऐसे विचार रखने के बाद दोनों के बीच समान राजनीतिक समझ पैदा होना लगभग असंभव था। सच्चाई ये थी कि दोनों का अहम बहुत बड़ा था और नियति के पास उन दोनों के बीच टकराव होने देने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।"
इंदिरा के दिए पैसे लौटाए
एक और घटना ने इंदिरा और जेपी के संबंधों को ख़राब किया। जेपी को जेल से छोड़े जाने के बाद गांधी पीस फ़ाउंडेशन के प्रमुख राधाकृष्ण ने लोगों और विदेश में रहने वाले भारतीयों से अपील की कि वो जेपी के लिए डायलेसिस मशीन ख़रीदने के लिए योगदान करें।
पीएन धर लिखते हैं, "राधाकृष्ण की सलाह और मेरे पूरे समर्थन से इंदिरा गाँधी ने जेपी की डायलेसिस मशीन के लिए एक अच्छी रक़म भिजवाई। राधाकृष्ण ने जेपी की सहमति के बाद उसकी प्राप्ति की रसीद भी भेजी।"
"लेकिन इंदिरा गाँधी की ये पहल जेपी कैंप के कई कट्टरवादियों को नागवार गुज़री और अंतत: उनके दबाव के कारण जेपी को वो रक़म इंदिरा गांधी को वापस लौटानी पड़ी। इस घटना ने इंदिरा और जेपी की बातचीत के विरोधियों को इसका विरोध करने का एक नया बहाना दे दिया।" "ये कहा गया कि अगर जेपी अपने ख़ेमे के कट्टरवादियों का विरोध नहीं कर सकते, तो दूसरे गंभीर मसलों पर उनसे किसी साहसिक क़दम की उम्मीद नहीं की जा सकती।"
बदले की राजनीति का विरोध
मार्च 1977 में जनता पार्टी की जीत के बाद सरकार बनने की क़वायद चल ही रही थी कि इंदिरा को इस बात की आशंका थी कि संजय गाँधी के जबरन नसबंदी कार्यक्रम से प्रभावित लोग संजय गाँधी को ज़बरदस्ती पकड़ कर तुर्कमान गेट ले जाएंगे और उनकी सार्वजनिक रूप से नसबंदी करेंगे।
इदिरा गाँधी की दोस्त पुपुल जयकर ने विदेश सचिव जगत मेहता को फ़ोन कर बताया कि इंदिरा इस बात से बहुत परेशान हैं। जाने माने स्वतंत्रता सेनानी और बाद में योजना आयोग और दक्षिण अफ्रीका में भारत के उच्चायुक्त बने लक्ष्मीचंद जैन को जब जगत मेहता ने ये बात बताई तो वो जेपी के पास गए।
लक्ष्मी चंद जैन अपनी आत्मकथा 'सिविल डिसओबिडिएंस, टू फ़्रीडम स्ट्रगल्स वन लाइफ़' में लिखते हैं, "ये बात सुन कर जेपी बहुत परेशान हो गए। उन्होंने तय किया कि वो इंदिरा गाँधी से मिलने उनके निवास स्थान पर जाएंगे और उन्हें ढाढस बधाएंगे। जेपी इंदिरा के पास गए और उन्होंने उनके साथ चाय पी।"
राम बहादुर राय बताते हैं कि इस बैठक के बाद जेपी ने एक वक्तव्य जारी कर कहा कि इंदिरा गाँधी का राजनीतिक जीवन अभी समाप्त नहीं हुआ है। ये जनता पार्टी के नेताओं को एक संकेत था कि बदले की राजनीति न की जाए। ये अलग बात है कि उन लोगों ने जेपी की बात सुनी नहीं।
राय का कहना है, "जेपी ने इंदिरा से यहाँ तक पूछा कि अब जब तुम प्रधानमंत्री नहीं हो, तो तुम्हारा ख़र्चा कैसे चलेगा। इंदिरा ने जवाब दिया कि नेहरू की पुस्तकों की रॉयल्टी से उनका जीवन यापन हो जाएगा। जेपी ने उन्हें आशवस्त किया कि उनके साथ कोई ज़्यादती नहीं होगी और इस बारे में उन्होंने मोरारजी देसाई और चरण सिंह से अपील भी की।"
पटना में आख़िरी मुलाक़ात
कुछ ही दिनों में जेपी का जनता पार्टी से भी मोह भंग हो गया। वो पटना में बीमार पड़े थे और जनता पार्टी के नेताओं ने उनकी कोई सुध नहीं ली। कुलदीप नैयर बताते हैं कि जब उन्होंने मोरारजी को सलाह दी कि वो जेपी को देखने पटना जाएं, तो उन्होंने तुनक कर कहा, "मैं गाँधी से मिलने कभी नहीं गया तो ये जेपी क्या चीज़ हैं।"
इंदिरा गाँधी ने इसके ठीक उल्टा किया। बेलची से लौटते समय वो पटना में रुकीं और जेपी से मिलने गईं। रज़ी अहमद कहते हैं कि जेपी की ज़िंदगी के आख़िरी दिनों में दोनों के रिश्ते फिर ठीक हो गए। हालांकि राजनीतिक टीकाकारों का मानना है कि इंदिरा गाँधी की जेपी से मुलाक़ात उनकी राजनीति का हिस्सा थीं और उसमें वो पूरी तरह से सफल भी हुईं।