इराक़ में अमेरिका के हवाई हमले में शुक्रवार को ईरान के सबसे शक्तिशाली सैन्य कमांडर जनरल क़ासिम सुलेमानी की मौत हो गई। इसके साथ ही ईरान और अमेरिका के बीच लंबे समय से चला आ रहा तनाव और बढ़ गया है।
अमेरिका की ओर से उठाए गए इस क़दम के मायने क्या हैं और आगे यह पूरा मामला किस ओर बढ़ता दिख रहा है; अगर मध्य पूर्व में युद्ध की स्थिति बनने या तनाव बढ़ने से तेल की कीमतें बढ़ती हैं तो भारत पर इसका क्या असर पड़ेगा?
इन सभी सवालों को लेकर बीबीसी संवाददाता आदर्श राठौर ने बात की मध्य-पूर्व मामलों के जानकार आफ़ताब कमाल पाशा से।
बीते तीन महीनों में खाड़ी देशों में बहुत कुछ हुआ। तेल टैंकरों और अमेरिकी ड्रोन पर हमला हुआ। इन सबके बावजूद ईरान पर अधिक से अधिक दबाव डालने की अमेरिका की नीति का कुछ ख़ास असर नहीं पड़ा।
अमेरिका ने ईरान के ख़िलाफ़ जो दूसरा कदम उठाया है वो इराक़ में उसका प्रभाव कम करने की दृष्टि से उठाया है। इसे लेकर वहां काफ़ी हलचल है, क्योंकि अमेरिका और सीरिया में उसके सहयोगी देशों की तमाम कोशिशें बशर-अल-असद को सत्ता से हटाने में नाकाम रही हैं। लेबनान और इराक़ में ईरान का प्रभाव लगातार अमेरिका के ख़िलाफ़ बढ़ रहा था। ईरान ने वहां के राजनेताओं और तमाम समुदायों को अपने दायरे में लिया। इससे अमेरिका काफ़ी चिंतित है।
अमेरिका क्या साबित करना चाहता है?
अमेरिका यह साबित करना चाहता है कि ईरान पर सिर्फ़ आर्थिक प्रतिबंध ही नहीं दूसरे प्रतिबंध भी धीरे-धीरे हटाएंगे जो सऊदी अरब भी चाहता है। इसराइल और अबुधाबी भी यही चाहते हैं क्योंकि आर्थिक प्रतिबंध और दबाव की वजह से ईरान का नेतृत्व बातचीत के लिए तैयार नहीं है और न अरब देशों में दखल बर्दाश्त कर रहा। वहीं रूस और तुर्की के समर्थन से ईरान को अपनी ताकत बढ़ती दिखी।
अमेरिका और ईरान की लड़ाई तेज़ होती जा रही है लेकिन अमेरिका सीधे तौर पर ईरान पर हमला करने से बच रहा है। पूरे खाड़ी देशों में जो अरब देश हैं, इराक़ से लेकर ओमान तक हज़ारों की संख्या में अमेरिका सैनिक हैं। ईरान के पास ऐसे मिसाइल और दूसरे हथियार हैं जो अगर छोड़े गए तो न सिर्फ़ अमेरिका को नुकसान होगा बल्कि खाड़ी के उन देशों को भी होगा, जहां-जहां अमेरिका के पोर्ट, हार्बर और जंगी जहाज हैं।
सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात भी डरे हुए हैं कि अगर अमेरिका और ईरान में सीधा युद्ध हुआ तो उनका काफ़ी नुकसान होगा। वहां बसे मजदूर और दूसरे लोग अगर चले गए तो उनकी अर्थव्यवस्था में हलचल मचेगी। इसलिए अमेरिका भी बचता आ रहा है। अमेरिका की बातचीत की कोशिशें भी कारगर नहीं रहीं। ओमान ने कोशिशें भी की हैं कि ईरान और अमेरिका के बीच बातचीत हो लेकिन ईरान का कहना है कि पहले आप प्रतिबंध हटाएं, फिर बातचीत होगी।
भारत पर क्या असर पड़ेगा?
अमेरिका और ईरान में तनाव से कच्चे तेल की कीमतों में भी लगातार इज़ाफ़ा हो रहा है। इसका भारत की आर्थिक स्थिति और फ़ॉरेन एक्सचेंज पर भी भारी असर पड़ेगा। फॉरेन एक्सचेंज बढ़ा तो न सिर्फ मंदी बढ़ेगी बल्कि खाने-पीने की चीज़ों से लेकर ट्रांसपोर्ट, रेलवे, प्राइवेट ट्रांसपोर्ट पर भी असर बुरा असर होगा, बेरोजगारी बढ़ेगी।
ये सब हुआ तो भारत की आर्थिक स्थिति बिगड़ेगी और लोग सड़कों पर उतर आएंगे, जैसा कि 1973 में इंदिरा गांधी के वक़्त में हुआ था। उस वक़्त भारत का बजट बिगड़ गया था। कच्चे तेल की कीमतें डेढ़ डॉलर से बढ़कर आठ डॉलर तक हो गईं जिससे भारत की पूरी प्लानिंग ध्वस्त हो गई।
इंदिरा गांधी के पास फ़ॉरेन एक्सचेंज बहुत कम हो गया था। दूसरी बार चंद्रशेखर और वीपी सिंह की सरकार में भी यह हुआ। अगर तीसरी बार ईरान पर हमला होता है और तेल कीमतें बढ़ती हैं तो भारत के ऊपर मुसीबत आ जाएगी और भारत का जो पांच ट्रिलियन इकॉनामी का सपना है वो काफ़ी पीछे रह जाएगा।
इन सबको लेकर जो देश ईरान और अमेरिका के बीच शांति का प्रयास कर रहे हैं, जैसे ओमान, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने कोशिश की या दूसरे अन्य देश कर रहे हैं वैसे ही भारत इनके साथ मिलकर या अलग से अमेरिका से बात करे और ईरान के साथ शांति कायम करने की दिशा में प्रयास करे।
सिर्फ़ 80 लाख भारतीय ही वहां नहीं हैं बल्कि भारत 80 फ़ीसदी तेल वहां से आयात करता है, बड़ी मात्रा में गैस आती है, 100 बिलियन से ज़्यादा व्यापार खाड़ी देशों में होता है और निवेश भी हैं। इसलिए अगर इराक़ या लेबनान को लेकर जंग छिड़ती है तो उसके कई बुरे परिणाम हो सकते हैं।
इसका क्या असर पड़ेगा?
अमेरिका सिर्फ़ ईरान के साथ दुश्मनी नहीं चाहता लेकिन जो लोग उन पर दबाव डाल रहे हैं जैसे सऊदी अरब, इसराइल हो या अमीरात हो, इनके दबाव में आकर अमेरिका जो कर रहा है चाहे वो ड्रोन अटैक हों या दूसरे हमले जिनमें आम लोग मारे जा रहे हैं, इस सबसे तनाव लगातार धीरे-धीरे बढ़ रहा है और कभी भी ये आग भड़क सकती है।
इस आग के दायरे में अमेरिका ईरान से जंग नहीं भी चाहता है तो भी उस पर बुरा असर पड़ेगा। इसके परिणाम बुरे होंगे। अगर ईरान का नेतृत्व यह तय कर ले कि अमेरिका किसी भी वजह से वहां की सत्ता को पलटने की कोशिश कर रहा है तो कड़े कदम उठाकर अपनी ताक़त का इस्तेमाल करके दबाव डाल सकते हैं। जैसा कि बग़दाद में अमरीकी एंबेसी को घेर लिया गया था, जैसे 40 साल पहले तेहरान में हुआ था।
ईरान अपने एजेंट या सहयोगियों का इस्तेमाल करके अमेरिका पर काफ़ी दबाव डाल सकता है। सिर्फ़ इराक़ में एंबेसी पर ही नहीं, आईएसएल को हराने के लिए अमेरिका ने उत्तर में जो बेस बनाए हैं उन पर भी हमला हो सकता है। सीरिया में उनके जो दोस्त हैं, तेल भंडारों पर भी हमले हो सकते हैं, इस सब को लेकर तनाव बढ़ रहा है।
क्या अमेरिका जंग चाहता है?
मेरा मानना है कि ना अमेरिका जंग चाहता है और न ईरान जंग में ख़ुद को झोंकना चाहता। दोनों 'जैसे को तैसा' वाली नीति अपना रहे हैं। दोनों अपने कदमों से एक दूसरे को संदेश दे रहे हैं कि हम चुप नहीं बैठेंगे, आप हमें डरा धमकाकर हमारे इंटरेस्ट को नुकसान नहीं पहुंचा सकते। इराक़ और लेबनान में प्रॉक्सी वॉर चल रहा है।
हम देख चुके हैं कि ईरान और सऊदी अरब के शीतयुद्ध की वजह से यमन में कितनी तबाही हुई है। सीरिया में जो बर्बादी हुई है, लीबिया में भी इसके आसार नज़र आ रहे हैं, जैसे कदम तुर्की उठाने जा रहा है। इन तीनों देशों में क्षेत्रीय युद्ध चल रहा है इसराइल, सऊदी अरब, यूएई और तुर्की ईरान और सीरिया में घमासान के आसार बन रहे हैं। इनमें अमेरिका, चीन और रूस भी धीरे-धीरे शामिल होते जा रहे हैं।
उम्मीद की जा सकती है कि अमेरिका और ईरान के बीच जंग नहीं छिड़ेगी और इसी हद तक मामला सुलझाया जाएगा लेकिन कुछ तनाव रहेगा कुछ ऐसी स्थिति बनेगी जिसमें अमेरिका बमबारी करेगा और ईरान उसका जबाव देगा, इससे अस्थिरता और असुरक्षा के हालात बढ़ेंगे।