आप बर्फ़ से खेलना पसंद करते हों या फिर बर्फ़ीली सर्दियों में रज़ाई के भीतर छुपने को तरज़ीह देते हों। लेकिन, बर्फ़ को लेकर आप की तमाम कल्पनाओं के बीच हम आपको इससे जुड़ी 17 दिलचस्प बातें बताते हैं।
बर्फ़ सफ़ेद नहीं होती
चकरा गए न! भले ही आप क्रिसमस में सफ़ेद चादर में लिपटे हुए समां की कल्पना करते हैं, लेकिन हक़ीक़त यही है कि बर्फ़ सफ़ेद नहीं होती। असल में ये क्रिस्टल की तरह होती है। इसके आर-पार रोशनी के गुज़रने की वजह से ही बर्फ़ सफ़ेद दिखती है। बर्फ़ कई बार प्रदूषण, धुएं और हरी काई का रंग भी धर लेती है। हमने बर्फ़ को नारंगी से लेकर काले रंग में भी देखा है।
तरह-तरह के हिमखंड
किसी भी बर्फ़ के टुकड़े का आकार कैसा होगा, ये बात हवा के तापमान पर निर्भर करती है। हिम खंडों पर रिसर्च से ये बात सामने आई है कि जब तापमान -2 डिग्री सेल्सियस होता है, तो बर्फ़ जमती है। इससे भी कम तापमान यानी माइनस 5 डिग्री सेल्सियस होने पर एकदम सपाट क्रिस्टल बनते हैं। तापमान में और बदलाव होने पर जब हिमपात होता है, तो ये क्रिस्टल रोएंदार दिखने लगते हैं।
बर्फ़ के टुकड़ों का कैटलॉग
विज्ञान के ब्लॉग कंपाउंड इंटेरेस्ट के संस्थापक एंडी ब्रनिंग ने 35 अलग-अलग प्रकार के स्नोफ़्लेक यानी बर्फ़ के टुकड़ों का वर्णन किया है। इसके अलावा भी कई तरह के हिमखंड देखने को मिलते हैं। वो बड़े घनाकर टुकड़ों से लेकर पंखे जैसे पतले आकार तक में मिलते हैं।
एक छोटे से केंद्र से बनता है हिमखंड
जिस तरह किसी कोशिका का न्यूक्लियाई यानी केंद्र होता है, बर्फ़ का ठीक वैसा तो नहीं होता, मगर उससे कुछ-कुछ मिलता ज़रूर होता है। बर्फ़ अक्सर किसी एक चीज़ के इर्द-गिर्द इकट्ठा होकर जमने लगती है। बर्फ़ के गोले, किसी ओले से अलग होते हैं।
हिमखंड बड़े होते जाते हैं
हम पिछले कई दशकों से ऐसे क़िस्से सुनते आए हैं कि कई जगहों पर 15 इंच तक के बड़े बर्फ़ के गोले गिरे। बहुत से लोगों ने ऐसे दावों पर शक ज़ाहिर किया है। अब वैज्ञानिकों का कहना है कि बर्फ़ के गोलों को इतना बड़ा होने में कोई बाधा नहीं है। सर्द हवा के झोंके बर्फ़ को जमा कर इसका आकार बड़ा कर सकते हैं।
आवाज़ पर पड़ता बर्फ़ का असर
जैसे ही बर्फ़ गिरती है, तो ये वातावरण में मौजूद ध्वनि को सोख लेती है। यानी बर्फ़ गिरने से आस-पास का माहौल शांत हो जाता है। तेज़ आवाज़ें खुसर-पुसर में तब्दील हो जाती हैं। जब बर्फ़ पिघल कर फिर से जमती है, तो इसमें क़ैद आवाज़ आज़ाद हो कर दूर तक फ़ैल जाती है।
बर्फ़ के लिए 421 शब्द
कहा जाता है कि उत्तरी ध्रुव पर रहने वाले बर्फ़ के आदिवासी इनुइट लोगों ने बर्फ़ के 50 नाम रखे हुए हैं। कुछ लोग इसे कोरी कल्पना कहते हैं, तो कोई इसे सटीक सत्य बताते हैं। पर स्कॉटलैंड में तो रिसर्च में ये बात सामने आई है कि बर्फ़ को 421 तरह से बुलाया जाता है।
बर्फ़ की परिभाषा तय करना मुश्किल
किसी बर्फ़ीले तूफ़ान को ब्लिज़ार्ड कहने पर आप ग़लत भी साबित हो सकते हैं। बर्फ़बारी को हम बर्फ़ीला तूफ़ान तभी कह सकते हैं, जब ये कई शर्तें पूरी करे। इस दौरान विज़िबिलिटी 200 मीटर से भी कम होनी चाहिए जबकि हवा की रफ़्तार 30 मील प्रति घंटे से ज़्यादा होनी चाहिए।
मंगल पर भी बर्फ़
नासा के तमाम मिशन ने इस बात के संकेत दिए थे कि मंगल ग्रह के उत्तरी इलाक़ों में गर्मियों के दिनों में बर्फ़ जमती है। हमें ये तो पक्के तौर पर पता है कि मंगल पर बादल हैं और ज़मीन के भीतर बर्फ़ भी है। मंगल ग्रह के दक्षिणी ध्रुव पर भी कार्बन डाई ऑक्साइड से बनी हुई बर्फ़ मिली है।
बंदरों को बर्फ़ बहुत पसंद
केवल इंसानों को ही बर्फ़ के गोलों से खेलना पसंद नहीं है। जापान के मकाकू बंदर जिन्हें स्नो मंकी भी कहते हैं, बर्फ़ से खेलना पसंद करते हैं। वो एक-दूसरे के बर्फ़ के गोले चुरा ले जाते हैं। फिर लुका-छिपी और धमा-चौकड़ी का बर्फ़ीला खेल इनके बीच चलता है।
ज़्यादा बर्फ़ इंसानों के लिए ठीक नहीं
अगर आप बर्फ़बारी के बीच ज़्यादा वक्त बिताते हैं, तो आप आर्कटिक हिस्टीरिया नाम की बीमारी के शिकार हो सकते हैं। उत्तरी ध्रुव पर रहने वाले इनुइट लोग अक्सर इसके शिकार हो जाते हैं।
इस दौरान आप बेवजह के शब्द बोलते हैं। जोखिम भरे काम करने लगते हैं। फिर आप की याददाश्त भी गुम हो जाती है। इस दौरान विटामिन 'ए' ज़हर का काम भी करने लगता है। हालांकि हाल के दिनों में कुछ जानकारों ने इस बीमारी के अस्तित्व पर ही सवाल उठाए हैं।
बर्फ़बारी से डर लगता है
भले ही आर्कटिक हिस्टीरिया न होता हो, लेकिन बर्फ़बारी से डर लगने की बीमारी तो लोगों को यक़ीनन होती है। इसे शिओनोफ़ोबिया कहते हैं। ये ग्रीक शब्द शिओन से बना है। ग्रीक भाषा में बर्फ़ को शिओन ही कहते हैं। बहुत से लोगों को बचपन के किसी हादसे की वजह से बर्फ़बारी से डर लगने लगता है। उन्हें लगता है कि वो बर्फ़ के नीचे दब जाएंगे। ज़रा सी बर्फ़बारी से भी ऐसे लोग सिहर उठते हैं।
बर्फ़ के रॉकस्टार
महान अन्वेषक अर्नेस्ट शैकेलटन को अपनी बहादुरी के लिए जाना जाता है। वो अपने साथियों के प्रति समर्पित थे। लेकिन, जब वो निमरोड के मिशन पर निकले थे। तो उनके थैले में अफ़ीम, गांजा और कोकीन थे। इनकी मदद से वो बर्फ़बारी के शिकार होने वाले अपने साथियों की मदद किया करते थे।
गाने से नहीं होता हिमस्खलन
अक्सर दावा किया जाता है कि शोर मचाने पर कभी भी बर्फ़ से भारी हुई चट्टानें खिसक सकती हैं। लेकिन, ऐसा नहीं है। अक्सर हिमस्खलन, बर्फ़ का बोझ बढ़ जाने की वजह से होता है। अचानक से बर्फ़ भारी तादाद में गिरने से ऐसा होता है।
कई बार हवा के झोंके भी हिमस्खलन की शुरुआत के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। वहीं, कई ऐसे मौक़े भी आए हैं कि अति उत्साह में बर्फ़ के ऊपर स्कीइंग कर रहे लोगों के बोझ से हिमस्खलन हो गया। ये कई बार जानलेवा भी साबित होता है। लेकिन, तेज़ी से गाने से यक़ीनन बर्फ़ की चट्टानें नहीं खिसकती हैं।
बर्फ़ से गर्मी मिलती है
बर्फ़ में 90-95 प्रतिशत तक हवा क़ैद होती है। इसका मतलब ये है कि ये गर्मी को रोक कर रखती है। यही वजह है कि बर्फ़ीले इलाक़ों में बहुत से जानवर बर्फ़ के भीतर गहराई तक खुदाई कर के अपने छुपने के ठिकाने बनाते हैं। ध्रुवों पर बनाए जाने वाले इग्लू या बर्फ़ की कुटिया भी इसी वजह से लोगों को गर्म रखने में मददगार होती है। ये बाहर के मौसम के मुक़ाबले अंदर 100 डिग्री तक ज़्यादा गर्म हो सकती है।
मौसम के हिसाब से बदल सकती है बर्फ़
आम तौर पर बर्फ़ जमने के लिए तापमान शून्य से नीचे जाना ज़रूरी होता है। लेकिन, कई बार लगातार बारिश से मौसम ठंडा होने पर भी बर्फ़ जमने लगती है। कई बार देखा गया है कि 6 डिग्री सेल्सियस तापमान में भी बर्फ़ गिरने लगती है।
तेज़ रफ़्तार स्नोफ्लेक
बर्फ़ के कण गिरने की रफ़्तार एक किलोमीटर प्रति घंटे जितनी धीमी से लेकर 14 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार तक हो सकती है। ये रफ़्तार माहौल पर निर्भर करती है। बर्फ़ के कण जितना पानी समेटते हैं और हवा जितनी तेज़ चलती है, उसी हिसाब से उनकी रफ़्तार तय होती है। बर्फ़ के कणों को अपने बादल को छोड़कर ज़मीन तक पहुंचने में क़रीब एक घंटे का वक़्त लग जाता है।