Hyderabad Case : 'एनकाउंटर' को लेकर पुलिस के दावों पर उठ रहे 5 बड़े सवाल

BBC Hindi
शनिवार, 7 दिसंबर 2019 (08:17 IST)
प्रशांत चाहल (बीबीसी संवाददाता)
 
तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद के पास एक महिला डॉक्टर के साथ गैंगरेप और उनकी हत्या के चार अभियुक्तों को शुक्रवार सुबह कथित मुठभेड़ के दौरान स्थानीय पुलिस ने गोली मार दी थी जिसे बहुत से लोगों ने 'वीरतापूर्ण' बताते हुए इसकी प्रशंसा की।
 
लेकिन ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है जो इस कथित एनकाउंटर पर सवाल उठा रहे हैं और इसकी निष्पक्ष जांच की मांग कर रहे हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार

 आयोग इस घटना का संज्ञान लेते हुए एक टीम को जांच के निर्देश दे चुका है जिसका नेतृत्व एक एसएसपी स्तर के अधिकारी करेंगे और जल्द से जल्द आयोग को अपनी रिपोर्ट सौपेंगे।
 
वहीं तेलंगाना हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को आदेश दिया है कि वह चारों अभियुक्तों के शव 9 दिसंबर शाम 8 बजे तक परिरक्षित रखे और उनके पोस्टमॉर्टम का वीडियो कोर्ट में जमा करवाए। इस बीच मारे गए अभियुक्तों के परिजनों ने कोर्ट में मुक़दमा चलाए जाने से पहले ही पुलिस द्वारा उन्हें मुठभेड़ में मार गिराने पर सवाल उठाए हैं और कहा है कि पुलिस की कहानी पर उन्हें विश्वास नहीं हो रहा।
 
साइबराबाद के पुलिस कमिश्नर वीसी सज्जनार ने इस कथित मुठभेड़ के बारे में शुक्रवार शाम प्रेस कॉन्फ्रेंस कर जो ब्योरा दिया, उस पर लोगों को विश्वास क्यों नहीं हो रहा? और पुलिस की कहानी में वो कौनसे हिस्से हैं जिनपर सवाल उठ रहे हैं?
 
यह समझने के लिए बीबीसी ने उत्तरप्रदेश पुलिस और केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल के पूर्व महानिदेशक प्रकाश सिंह, दिल्ली के पूर्व पुलिस उपायुक्त मैक्सवेल परेरा और तेलंगाना के वरिष्ठ पत्रकार एन वेणुगोपाल राव से बात की।
 
1. एनकाउंटर का समय
 
पुलिस कमिश्नर वीसी सज्जनार ने दावा किया कि पुलिसकर्मियों और अभियुक्तों के बीच मुठभेड़ सुबह 5।45 से 6।15 के बीच हुई। इससे पहले उन्हीं के विभाग के एक अधिकारी ने नाम न ज़ाहिर करने की शर्त पर बीबीसी को बताया था कि रात क़रीब 4 बजे पुलिस चारों अभियुक्तों को जेल से अपराध की जगह ले जाया गया था।
 
सज्जनार ने दलील दी कि 'अभियुक्तों को इतनी सुबह अपराध की जगह इसलिए ले जाना पड़ा क्योंकि उनकी सुरक्षा को लेकर ख़तरा था। लोगों में उन्हें लेकर बहुत गुस्सा था'। लेकिन पुलिस कमिश्नर की इस दलील से मैक्सवेल परेरा बिल्कुल भी सहमत नहीं हैं।
 
उन्होंने बीबीसी से कहा कि ये दलील विश्वसनीय नहीं लगती क्योंकि पुलिस दिन की रोशनी में बड़े आराम से यह काम कर सकती थी। वो अतिरिक्त पुलिस बल के साथ इलाक़े की घेराबंदी कर सकते थे। और 'लोगों के डर' से सज्जनार का क्या मतलब है? क्या वो ये मान रहे हैं कि भीड़ पुलिस की मौजूदगी में भी लिंचिंग कर सकती है?
 
वहीं प्रकाश सिंह ने अपने समय की कुछ मुठभेड़ों और पुलिसिया छापेमारी की घटनाओं का ज़िक्र करते हुए कहा कि अंधेरे में या तड़के पुलिस की कार्यवाही का एक ही लक्ष्य होता है कि वो अपराधी को रंगेहाथ पकड़ना चाहते हैं, लेकिन यहां किसी को पकड़ना तो था नहीं, फिर ये वक़्त चुना ही क्यों गया? क्योंकि सीन रीक्रिएट करने का काम तो दिन में बड़े आराम से हो सकता था, बल्कि बेहतर ढंग से हो सकता था। जबकि वरिष्ठ पत्रकार एन। वेणुगोपाल राव 'सीन रीक्रिएट' करने की पुलिस की दलील को ही ग़ैर-ज़रूरी और बोगस मानते हैं।
 
वो कहते हैं कि सार्वजनिक तौर पर ये चार लोग ही महिला डॉक्टर के साथ गैंगरेप और उनकी हत्या के अभियुक्त थे क्योंकि ख़ुद पुलिस ने एक सप्ताह पहले प्रेस रिलीज़ जारी कर ये दावा किया था कि चारों ने जुर्म कुबूल कर लिया है।
 
पुलिस ने तो ये दावा भी किया था कि चारों ने कैमरे पर सारे डिटेल बताए हैं। और जब चारों ने कथित तौर पर लिखित में अपना जुर्म कुबूल कर लिया था तो फिर उन्हें मौक़े पर ले जाकर ये जांच क्यों हो रही थी? वो भी अंधेरे में।
2. पुलिस की तैयारी
 
पुलिस ने इन चारों अभियुक्तों को 30 नवंबर को गिरफ़्तार किया था जिसके बाद उन्हें चेल्लापली मजिस्ट्रेट के सामने भेजा गया था। पुलिस कमिश्नर वीसी सज्जनार के अनुसार 4 दिसंबर को इन अभियुक्तों की पुलिस हिरासत मिली थी। 4-5 दिसंबर, यानी दो दिन तक इन चारों से पूछताछ की गई।
 
सज्जनार ने दावा किया कि पूछताछ के दौरान इन लोगों ने बताया था कि पीड़िता का फ़ोन, घड़ी और पावर बैंक उन्होंने अपराध की जगह पर छिपाए थे। हम लोग उसी की तलाशी के लिए घटनास्थल पर आए थे। दस पुलिसकर्मियों की एक टीम अभियुक्तों को घेरे हुए थी और चारों अभियुक्तों के हाथ खुले हुए थे।
 
पुलिसकर्मियों के अधिकारों पर खुलकर बात करने वाले मैक्सवेल परेरा शीर्ष अदालत के एक आदेश को 'अव्यावहारिक' बतलाते हुए कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि पुलिस अभियुक्तों के हाथ नहीं बांध सकती। पूरी दुनिया में किसी अन्य देश में ऐसे आदेश नहीं हैं। इस नज़र से देखें तो भारत में अभियुक्तों को कथित तौर पर सबसे अधिक मानवाधिकार मिले हुए हैं। लेकिन यह पुलिस के लिए यह एक बड़ी मुसीबत है। कोर्ट कहता है कि पुलिसकर्मी अभियुक्त का हाथ पकड़कर चलें, उन्हें हथकड़ी ना लगाएं। पर कोर्ट ने पुलिस जांच अधिकारी को कई अधिकार दिए हुए हैं और इस केस में उन अधिकारों को प्रयोग करने की इच्छाशक्ति दिखाई नहीं देती।
 
प्रकाश सिंह कोर्ट के आदेश का हवाला देकर कहते हैं कि ऐसे मौक़ों पर जांच अधिकारी लीड करता है। वह सबकुछ रिकॉर्ड करता है। अगर वो चाहे कि अभियुक्तों को हथकड़ी लगानी है, क्योंकि पुलिस बल कम है या अभियुक्त पुलिस पर भारी पड़ सकते हैं, तो ऐसे विशेष मौक़ों पर जांच अधिकारी हाथ बांधने का फ़ैसला ले सकता है। हालांकि इसके लिए उन्हें वरिष्ठ अधिकारी से जायज़ कारण बताकर अनुमति लेनी होती है और डायरी में उसे दर्ज करना होता है।
 
वो कहते हैं कि इस केस में पुलिस के पास सारे कारण थे। अभियुक्तों पर गैंगरेप और हत्या का आरोप था। उनके हाथ बांधे जा सकते थे। लेकिन कोर्ट के आदेश की मूल भावना को समझे बिना, तेलंगाना पुलिस ने ऐसा क्यों होने दिया, इसका जवाब उन्हें जांच में देना होगा। कमिश्नर के बयानों से ये साफ़ है कि अभियुक्तों पर भौतिक दबाव बनाए रखने के लिए पुलिसवालों की जितनी तैयारी होनी चाहिए थी, वो नहीं थी। ऐसे में फ़ायर करने की नौबत आ जाए, इसका जिम्मेदार कौन है?
 
3. मुठभेड़ का दावा
 
मैक्सवेल परेरा पुलिस कमिश्नर सज्जनार के उस दावे को भी संदिग्ध मानते हैं कि 'चारों अभियुक्तों ने डंडे और पत्थरों से पुलिस पर हमला किया और दो पुलिसकर्मियों से हथियार छीन लिये जिसकी वजह से पुलिस को जवाबी कार्रवाई करनी पड़ी'।
 
वो कहते हैं कि पुलिस हिरासत में चल रहे अभियुक्तों को डंडे और पत्थर मिल कहां से गए? चार अभियुक्तों पर 10 पुलिसकर्मी कोई कम संख्या नहीं है जो उनके हथियार छिन जाएं। और अगर ऐसा हुआ है जिसे पुलिस अपनी कहानी में मान भी रही है, तो सीनियर अधिकारियों पर इसे लेकर गंभीर सवाल उठते हैं।
 
प्रकाश सिंह भी यह बात हज़म नहीं कर पाए कि दो अभियुक्तों ने पुलिस से हथियार छीन लिए होंगे। वे कहते हैं, ये पुलिसकर्मी हैं या तमाशा। कैसे 20 वर्ष के लड़के आपसे पिस्टल छीन सकते हैं। ऐसी किसी ड्यूटी पर तो अतिरिक्त सावधानी रखनी होती है। पुलिस ने क्यों नहीं बताया कि उन लड़कों ने पिस्टल छीनने के बाद कितने राउंड फ़ायर किए?
 
जबकि वेणुगोपाल इस संबंध में एक अलग ही पहलू पर बात करते है। वे कहते हैं कि ये क्रिमिनल थे, इसमें कोई शक़ नहीं, लेकिन चारों अभियुक्त बहुत तनाव में थे। इनकी उम्र 20 के आसपास थी। ऐसी रिपोर्टें हैं जिनमें कहा गया कि जेल में उन्हें खाना नहीं दिया गया। जिस बैरेक में उन्हें रखा गया वहां अन्य क़ैदियों ने उन्हें पीटा। लोग कह रहे थे कि इन्हें वकील नहीं मिलना चाहिए। दो दिन से वो न्यायिक हिरासत में थे। ऐसे में ये बड़ा असंभव लगता है कि इन चारों ने दस हथियारबंद पुलिसवालों के सामने कोई हरक़त की होगी।
 
वो कहते हैं कि चारों अभियुक्तों को ये ज़रूर पता होगा कि वो पुलिस से बचकर भाग भी गए तो भीड़ उन्हें ज़िंदा जला देगी। ऐसे में वो पुलिस से बचने की कोशिश करेंगे ही क्यों?
 
4. 'घायल' पुलिसकर्मी
 
वीसी सज्जनार ने प्रेस कॉन्फ़्रेंस में दावा किया कि चारों अभियुक्तों को ढेर करने में पुलिस को क़रीब 10 मिनट लगे। यानी खुले मैदान में इस दौरान अभियुक्तों और पुलिस के बीच क्रॉस-फ़ायरिंग होती रही। जिसका अंत ये हुआ कि चारों अभियुक्तों की गोली लगने से मौत हो गई। लेकिन एक भी पुलिसकर्मी को गोली ने नहीं छुआ।
 
पुलिस कमिश्नर के अनुसार इस मुठभेड़ में दो पुलिस अधिकारी घायल हुए जिन्हें स्थानीय अस्पताल में भर्ती कराया गया क्योंकि उनके सिर में चोट है जो डंडे या पत्थर से लगी है।
 
दिल्ली के पूर्व पुलिस उपायुक्त मैक्सवेल परेरा कहते हैं कि पुलिस कमिश्नर का ये बयान बहुत शर्मनाक और ग़ैर-पेशेवर है। यह बिलकुल यूपी स्टाइल है। जब मैं दिल्ली पुलिस में था तब यूपी के अपराधी दिल्ली में आकर सरेंडर करते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि यूपी पुलिस सरेंडर करने पर भी उन्हें गोली मार देगी। देश का क़ानून अपराधियों को भी अपनी दलील देने का अधिकार देता है और इससे उन्हें वंचित नहीं किया जा सकता।
 
प्रकाश सिंह कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइंस के अनुसार अब इस मामले की जांच होगी, तभी स्थिति स्पष्ट हो सकेगी क्योंकि सुनने में पुलिस कमिश्नर की ये कहानी बहुत घिसी-पिटी लगती है।
 
5. हर बार एक जैसी कहानी कैसे?
 
तेलंगाना के वरिष्ठ पत्रकार एन। वेणुगोपाल राव राज्य के इतिहास का हवाला देकर पुलिस की कहानी पर सवाल उठाते हैं। वो कहते हैं कि हर बार पुलिस की कहानी में इतनी समानता कैसे होती है? वो बताते हैं कि तेलंगाना पुलिस (पहले आंध्रप्रदेश पुलिस) का ऐसी कहानियां 'सुनाने' का इतिहास रहा है। वो इसमें बहुत निपुण हैं। 1969 के बाद से वो एनकाउंटर के ऐसे संदिग्ध किस्से सुना रहे हैं।
 
इस तरह की मुठभेड़ों की शुरुआत नक्सलियों के ख़िलाफ़ हुई थी जिस पर सिविल सोसायटी ने कभी सवाल नहीं उठाया, लेकिन 2008-09 के बाद से पुलिस ने ये रणनीति आमतौर पर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया।
 
जब तेलंगाना का निर्माण हुआ और इस क्षेत्र में तेलंगाना आंदोलन चल रहा था तब चंद्रशेखर राव समेत अन्य टीआरएस नेताओं ने यहां की पुलिस पर आरोप लगाया था कि आंदोलन को दबाने के लिए पुलिस ग़लत तरीक़े अपना रही है, लेकिन जैसे ही वे पावर में आए, तो उनकी सरकार में पुलिस ने नालगोण्डा ज़िले में चार कथित मुस्लिम चरमपंथियों को वारंगल जेल से हैदराबाद कोर्ट के रास्ते में शूट किया और पुलिस ने बिलकुल यही कहानी दुनिया को बताई। ये 2014 का वाक़या है।
 
लेकिन ये कहानी 1969 से शुरू होती है। तब आंध्रप्रदेश में पहला एनकाउंटर हुआ था। आंध्र पुलिस ने कलकत्ता से आ रहे सीपीआई (एमएल) के 7 सदस्यों को रेलवे स्टेशन पर उतरते ही गिरफ़्तार किया और फिर उन्हें गोली मार दी। उस साल पुलिस ने एनकाउंटर की जो कहानी सुनाई थी, वो कहानी आज तक वैसी की वैसी है, बस पात्र, तारीख़ें और जगहें हर बार बदल जाती हैं।
 
हैदराबाद डॉक्टर रेप केस का ज़िक्र करते हुए एन। वेणुगोपाल राव ने कहा कि दिसंबर 2007 में पुलिस कमिश्नर वीसी सज्जनार ने वारंगल ज़िले में एसिड अटैक के तीन अभियुक्तों को पुलिस हिरासत के दौरान गोली मार दी थी। इस बार हैदराबाद केस के बाद हमने देखा कि लोगों ने सोशल मीडिया पर वारंगल की कहानी लिखकर सज्जनार को चैलेंज किया और कहा कि अब वैसा क्यों नहीं करते।
 
वो बताते हैं कि 90 के दशक में चंद्रबाबू नायडू जब सत्ता में आते हैं, तब से ऐसे एनकाउंटर करने वाले पुलिस अधिकारियों को प्रमोशन दिए जाने लगे।
 
पर क्या सूबे में आज तक कभी किसी एनकाउंटर केस की जांच के बाद पुलिस को दोषी पाया गया? इसके जवाब में वेणुगोपाल ने बताया कि 1987-88 में एक मजिस्ट्रेट ने अपनी जांच में पाया था कि पुलिस अफ़सर की दलीलें बेबुनियाद हैं और उन्हें सज़ा मिलनी चाहिए। तो उस मामले का अंत ये हुआ कि मजिस्ट्रेट का ट्रांसफ़र कर दिया गया। इसलिए सरकार पुलिस के ख़िलाफ़ जाएगी या निष्पक्ष जांच को सपोर्ट करेगी, ये उम्मीद कम लगती है।
 
वेणुगोपाल कहते हैं कि बीते दो सप्ताह में तेलंगाना राज्य में हैदराबाद गैंगरेप-मर्डर जैसे तीन अन्य केस हुए हैं, लेकिन अन्य दो लड़कियां (एक वारंगल में और दूसरा आदिलाबाद में) दलित हैं, इसलिए उन पर अधिक चर्चा नहीं हुई। और ये भी अपने आप में एक बड़ा सवाल है।

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