प्रियंका झा, बीबीसी संवाददाता
ईरान के विदेश मंत्री ने इजराइल को खुली चेतावनी दी है कि वो गाजा में अपने हमले बंद करे नहीं तो उन्हें कार्रवाई करने पर मजबूर होना पड़ेगा। हालांकि, इसके चंद घंटों के अंदर संयुक्त राष्ट्र में ईरान के मिशन ने अपने रुख़ में थोड़ी नरमी बरतते हुए ये कहा कि वो तब तक इजराइल और हमास के बीच जारी संघर्ष में दख़ल नहीं देगा, जब तक इससे ईरान या उसके नागरिकों के हित प्रभावित नहीं होते।
7 अक्टूबर को हमास की ओर से अचानक इजराइल पर हजारों मिसाइलें दागने और इजराइली इलाकों से लोगों को बंधक बनाकर ले जाने के बाद से ही ईरान की भूमिका पर सवाल उठ रहे हैं।
इस हमले के बाद इजराइल ने गाजा पर हवाई हमले शुरू किए थे। इस संघर्ष में दोनों तरफ़ के हज़ारों लोगों की जान जा चुकी है।
मीडिया रिपोर्टों में ये दावा किया जा रहा है कि हमास ने ईरान के समर्थन से इजराइल पर इतना बड़ा हमला किया। हालांकि, ईरान ने ये दावा सिरे से ख़ारिज किया। पश्चिमी देशों ने भी ये कहा है कि उन्हें इस बात के सबूत नहीं मिले जो हमास के हमले में ईरान की भूमिका है।
लेकिन ईरान इस जंग में खुलकर हमास और फिलिस्तीनियों के समर्थन में खड़ा है और बार-बार इजराइल को कड़े परिणाम भुगतने की चेतावनी दे रहा है।
ईरान रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स (IRGC) के डिप्टी कमांडर ने इजराइल के हाइफ़ा शहर पर मिसाइल हमले की भी धमकी दी है।
ईरान की सरकारी समाचार सेवा प्रेस टीवी के मुताबिक़ ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्लाह अली ख़ामेनेई ने कहा है कि अगर इजराइल के हमले जारी रहे तो मुसलमानों को कोई नहीं रोक पाएगा।
ऐसे में सवाल ये है कि बार-बार चेतावनियां और धमकियां देने वाला ईरान क्या वाक़ई इजराइल के साथ युद्ध में उतरने के लिए सक्षम है?
इजराइल से सीधी जंग ईरान के लिए आसान नहीं
साल 1979 में ईरान की इस्लामिक क्रांति ने पश्चिम को चुनौती देने वाले नेतृत्व को सत्ता में आने का मौक़ा दिया और तभी से ईरानी नेता इजराइल को मिटाने की बात करते रहे हैं। ईरान, इजराइल के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता है और उसका कहना है कि इजराइल ने मुसलमानों की जमीन पर अवैध कब्जा कर रखा है।
दूसरी तरफ़, इजराइल भी ईरान को एक ख़तरे के तौर पर देखता है। उसने हमेशा ही ये कहा है कि ईरान के पास परमाणु हथियार नहीं होने चाहिए।
ईरान और इजराइल की सीमाएं एक-दूसरे से नहीं लगतीं। लेकिन इजराइल के पड़ोसी देशों जैसे लेबनान, सीरिया और फिलिस्तीन में ईरान का प्रभाव साफ दिखता है।
हमास के हमले के बाद इजराइल पर यमन, लेबनान और इराक़ से भी हमले हुए। अब इजराइल ने दावा किया है कि ईरान ने अपने सहयोगियों से ये हमले करने को कहा था।
इजराइली सेना के मुख्य प्रवक्ता रियर एडमिरल डैनियल हगारी ने कहा कि ईरान ही मौजूदा समय में हमास को ख़ुफ़िया जानकारियां उपलब्ध करवा रहा है। लेकिन इजराइल पर हमले के बाद ईरान ने खुलकर हमास का समर्थन किया। ईरानी विदेश मंत्री ने सीरिया, इराक, लेबनान और कतर का दौरा किया है और यहाँ शीर्ष नेताओं से मुलाकात की है।
पश्चिमी मीडिया की रिपोर्टों में दावा किया गया था कि हमले से पहले हमास ने इस बारे में ईरान को जानकारी दी थी।
जानकार मानते हैं कि भले ही इस हमले के पीछ सीधे तौर पर ईरान का हाथ न हो लेकिन हमास के लड़ाकों के ट्रेनिंग, उन्हें हथियार देने और हमले से पहले समर्थन देने में ईरान की अहम भूमिका है। लेकिन ये समर्थन क्या जंग के मैदान पर सीधे भी दिखेगा?
दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पश्चिम एशिया मामलों के विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर अश्विनी महापात्रा का इस सवाल पर कहना है कि ईरान ने पिछले कुछ सालों में तकनीकी क्षेत्र में तरक्की की है, उसके पास अब एडवांस ड्रोन से लेकर लंबी दूरी वाली मिसाइलें तक हैं। उसके पास वो हथियार हैं, जिनके बलबूते वह इजराइल का सामना कर सकता है। लेकिन फिर भी वह इससे बचना चाहेगा।
प्रोफ़ेसर महापात्रा कहते हैं, "हथियार इजराइल के पास भी हैं। लेकिन इजराइल के पास अमेरिका का साथ है। कहीं भी जंग छिड़ी तो इजराइल को अमेरिका का साथ मिलेगा और ये इजराइल के लिए बढ़त की तरह है। ऐसी स्थिति में मुझे नहीं लगता कि ईरान कभी भी इजराइल के साथ सीधी जंग में उतरना चाहेगा।"
जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी के नेल्सन मंडेला सेंटर फॉर पीस एंड कॉन्फ़्लिक्ट रिज़ॉल्यूशन में पढ़ा रहे असिस्टेंट प्रोफ़ेसर डॉक्टर प्रेमानंद मिश्रा भी यही तर्क देते हैं।
वो कहते हैं, "ईरान सीधे युद्ध इसलिए नहीं लड़ेगा क्योंकि इसका साफ़ मतलब यही होगा कि अमेरिका इजराइल के साथ आएगा। ईरान एक साथ इन दोनों से लड़ने में तो सक्षम नहीं है।"
इजराइल के लिए ईरान से बड़ा ख़तरा हैं 'छद्म युद्ध'
ईरान और इजराइल के बीच लंबे समय से छद्म युद्ध चल रहा है। इसमें दोनों ही देशों ने एक दूसरे के ख़िलाफ़ जवाबी कार्रवाइयां की हैं, लेकिन अभी तक दोनों ही देश पूर्णकालिक युद्ध से बचते रहे हैं।
ईरान उन गुटों का लंबे समय से समर्थन करता रहा है जो इजराइल को निशाना बनाते हैं। जैसे हिज़बुल्लाह और फ़लस्तीनी चरमपंथी संगठन हमास। ये संगठन भी इजराइल के ख़िलाफ़ ईरान के साथ हैं।
इजराइल पर सात अक्टूबर को सबसे पहले हमास ने बड़ा हमला किया। इसके बाद लेबनान की सीमा से ईरान समर्थित चरमपंथी संगठन हिज़बुल्लाह ने उस पर हमला किया।
इसके बाद यमन में ईरान समर्थित हूती विद्रोहियों ने भी ये चेतावनी दी कि अगर इजराइल और हमास के बीच जारी संघर्ष में अमेरिका सीधे दखल देता है तो वह हमास के साथ जंग में शामिल होगा।
हमास की तरह हिज़बुल्लाह को भी ब्रिटेन और अमेरिका समेत अन्य कई देश एक आतंकवादी संगठन के रूप में देखते हैं। अमेरिका ने हूती विद्रोहियों को साल 2021 में आतंकवादी संगठनों की सूची से बाहर कर दिया था। लेकिन इस साल कुछ ऐसे घटनाक्रम हुए, जिसके बाद अमेरिका ने कहा कि वह इस संगठन को फिर से आतंकवादी गुट की सूची में शामिल करने पर विचार कर रहा है।
इजराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू ने संसद में बोलते हुए ईरान और हिज़बुल्लाह को चेतावनी दी है। इन संगठनों को ईरान का 'प्रॉक्सी' (एक तरह का प्रतिनिधि) माना जाता है।
इन्हीं प्रॉक्सीज़ का ज़िक्र करते हुए अश्विनी महापात्रा कहते हैं, "अमेरिका और इजराइल ये नहीं चाहते कि ईरान का पश्चिमी एशिया में प्रभाव बढ़े। इसीलिए सारी शक्तियां मिलकर ईरान को साइडलाइन करने की कोशिश करती हैं। लेकिन ईरान ख़ुद को साइडलाइन होने नहीं देगा, इसलिए वो जितनी प्रॉक्सीज़ हैं, उन्हें समर्थन देता है, उन्हें फंड देता है, सैन्य सहयोग देता, हथियार-उपकरण, ड्रोन और मिसाइलें देता है। जैसे वो दक्षिणी लेबनान में हिज़बुल्लाह को सपोर्ट करता है, गाजा में हमास है, यमन में हूती है।"
हिज़बुल्लाह सरीखे संगठनों को जानकार इजराइल के लिए ईरान से भी बड़ा ख़तरा बताते हैं।
अश्विनी महापात्रा कहते हैं, "पिछले पांच सालों में हिज़बुल्लाह जैसे संगठनों के ज़रिए बिना सीधे युद्ध लड़े ईरान ने अपना प्रभाव बढ़ाया है। इजराइल के लिए ये संगठन ईरान से बड़ा खतरा हैं। क्योंकि ईरान ने इन्हें हथियार दिए हैं, वे जब चाहें इसे इजराइल के ख़िलाफ़ इस्तेमाल कर सकते हैं।''
''अब आप चार-पांच हज़ार रॉकेट ही भेजेंगे तो इनमें से 100-200 तो गिरेंगे ही। वैसे भी इजराइल कौन सा बड़ा देश है। इजराइल के लिए पहली चुनौती उसकी सुरक्षा है। लेकिन इजराइल के इस मक़सद को प्रॉक्सीज़ ही धक्का पहुंचा सकते हैं। ईरान कोशिश कर रहा है और भविष्य में भी करेगा कि वो इजराइल से लड़ने के लिए अपने जितने भी प्रॉक्सीज़ हैं, उन्हें ही बढ़ावा देगा ताकि वो इजराइल के साथ परोक्ष रूप से युद्ध करते रहे और इजराइल इन्हीं के साथ उलझा रहे।"
वहीं प्रेमानंद मिश्रा कहते हैं, "ईरान की क्षमता इतनी ज़रूर है कि वो इजराइल पर प्रॉक्सीज़ के ज़रिए हमले करे। एक बात ये भी है कि नॉन स्टेट एक्टर्स की अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के प्रति कोई जवाबदेही नहीं होती। वो हमेशा किसी भी देश को अपने प्रतिद्वंद्वियों के ख़िलाफ़ बढ़त हासिल करने के लिए 'रणनीतिक पहुंच' बनाने में मदद करते हैं। इस चीज़ को इजराइल भी हल्के में नहीं लेता। इसलिए इजराइल हिज़बुल्लाह और हमास से बड़ा दुश्मन ईरान को मानता है।
हमास-इजराइल की जंग क्या ईरान की जीत है?
हमास के इजराइल पर किए गए हमले के बाद कुछ विशलेषकों ने इसे ईरान की जीत बताया। तर्क था कि इस हमले से एक बार फिर फ़िलिस्तीन का मुद्दा अंतरराष्ट्रीय मंच पर ताज़ा हो गया। ईरान फ़िलिस्तीन को अलग राष्ट्र बनाने की मांग ज़ोर-शोर से उठाता रहा है।
ये मांग करने वालों में यूं तो सऊदी अरब भी शामिल है लेकिन पिछले दिनों इजराइल और सऊदी अरब के रिश्तों में नरमी के संकेत दिखे थे। हालांकि, हमास के हमले के बाद इजराइल और सऊदी अरब के बीच संबंधों को सामान्य बनाने का मुद्दा अब ठंडे बस्ते में जाता दिख रहा है।
अश्विनी महापात्रा कहते हैं, "साल 2011 में जब अरब स्प्रिंग शुरू हुआ, ये कहीं न कहीं अरब देशों में ईरान के लिए मौक़ा बन गया। ईरान ने अरब देशों में अपने प्रभाव को साबित करना शुरू कर दिया। यमन में जो इतने दिनों तक गृह युद्ध चला, उसमें एक धड़े (हूतियों) को ईरान ने समर्थन दिया।''
''ठीक ऐसे ही सीरिया में गृह युद्ध हुआ तो वहां हिज़बुल्लाह को भेजा। वहां की बशर-अल असद की सरकार को गिरने से बचा दिया। लेबनान में तो अब हिज़बुल्लाह ही सबसे बड़ा धड़ा बन गया है। हमास को समर्थन दिया।''
''पहले फ़िलिस्तीन मुक्ति संगठन (पीएलओ) फिलिस्तीनियों की मांग उठाता था लेकिन अब ये आवाज़ हमास उठा रहा है। ये सब ईरान के लिए एक तरह से रणनीतिक बढ़त ही है। हालांकि, सुन्नी बहुल अरब देश शिया बहुल ईरान को कभी अपना लीडर मानेंगे, ये मुझे नहीं लगता।"
वो कहते हैं, "कभी कोई शक्ति कहीं जाकर सीधे नहीं लड़ती। अमेरिका ही यूक्रेन जाकर लड़ा क्या? वे ऐसे ही हथियार देंगे, दूसरी तरह की सहायता देंगे।"
हालांकि, ईरान के सीधे जंग में न उतरने के पीछे वह उसकी अपनी राजनीतिक परिस्थितियों को भी एक बड़ी वजह मानते हैं। पिछले साल हिजाब न पहनने के लिए महासा आमीनी की मोरैलिटी पुलिस की कस्टडी में हुई मौत के बाद देश में आक्रोश बढ़ा और कई महीनों तक भारी विरोध प्रदर्शन जारी रहा।
इसी का ज़िक्र करते हुए अश्विनी महापात्रा कहते हैं, "ऐसा न हो कि कहीं ईरान लड़े और उसकी सरकार हिल जाए। ऐसा नहीं है कि वहां राजनीतिक व्यवस्था स्थिर है। ईरान के पढ़े-लिखे युवा वहां की सरकार को पसंद नहीं करती है। इससे तो सरकार पर विपत्ति आ सकती है। उसे अपनी माली हालत भी देखनी पड़ेगी। उसके ऊपर इतने अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध हैं। उसे युद्ध लड़ने के लिए एक मज़बूत आधार चाहिए। अब पता नहीं न कि युद्ध कितने दिनों तक चले। हां, लेकिन ये परोक्ष युद्ध जारी रहेगा, ऐसा मुझे लगता है।"
वहीं प्रेमानंद मिश्रा का मानना है कि ज़मीनी युद्ध का मतलब है कि आप सीधे तौर पर युद्ध में शामिल हैं। ये ईरान के लिए सूसाइड करने जैसा होगा, जबकि अपने प्रॉक्सीज़ के ज़रिए जंग को जारी रखना रणनीतिक उपलब्धि होगी।