प्रोफेसर लाल बहादुर वर्मा (इतिहासकार)
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पिछले दिनों अटेर विधानसभा क्षेत्र में एक रैली में सिंधिया परिवार को अंग्रेज़ों के साथ मिलकर जनता पर ज़ुल्म ढहाने वाला बताया था। हालांकि इस समय भाजपा में भी सिंधिया परिवार का अच्छा रसूख है। राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया और शिवराज कैबिनेट में खेल मंत्री यशोधरा राजे इसी परिवार से हैं।
इस बयान पर राजनीतिक गलियारों में तीखी प्रतिक्रिया हुई। कांग्रेस ने इसकी निंदा की तो यशोधरा भावुक हो उठीं लेकिन सिंधिया परिवार के अंग्रेज़ी हुक़ूमत के साथ रिश्ते कैसे थे? क्या 1857 की लड़ाई में उन्होंने किसी पक्ष का साथ दिया या तटस्थ बने रहे? इन सवालों का जवाब पाने के लिए सिंधिया परिवार के आज़ादी पूर्व इतिहास पर एक नज़र डालना ज़रूरी है।
अठारहवीं शताब्दी में जब अंग्रेजों की सत्ता भारत में फैलने लगी तो उसका विरोध कर पाने में सबसे सक्षम मराठा शक्ति ही थी। शिवाजी द्वारा संगठित मराठा शक्ति की, उनकी मृत्यु के बाद भी, पूरे भारत में तूती बोलती थी। मराठा सरदार बंगाल से लेकर गुजरात तक कर वसूलते थे।
मराठा सरदार : एक मराठा सरदार महादजी सिंधिया ने तो दिल्ली को लूट लिया था और मुगल सम्राट को अपनी मुठ्ठी में कर लिया था, लेकिन मराठों के बीच मतभेद के बीज पड़ चुके थे। वास्तविक सत्ता छत्रपति राजा के पास नहीं, बल्कि मंत्री पेशवाओं के हाथ में आ चुकी थी। भोंसले, गायकवाड़, होल्कर और सिंधिया परिवार ने अपनी अपनी सत्ता स्थापित कर ली थी।
इनमें सतारा के राणोजी शिंदे द्वारा स्थापित सिंधिया परिवार की सत्ता सबसे कुशल साबित हुई। जॉन होप ने अपनी किताब 'फ़ेमिली ऑफ़ इंडिया' में इसका पूरा ब्योरा दिया है। मराठों की शक्ति को 1761 में अहमद शाह अब्दाली ने पानीपत के तीसरे युद्ध में ध्वस्त कर दिया था। तब से टूटते बिखरते मराठे तीन बार ईस्ट इंडिया कंपनी से टकरा चुके थे।
लॉर्ड क्लाईव द्वारा 1757 में प्लासी के युद्ध के बाद स्थापित ईस्ट इंडिया कंपनी की सत्ता को वॉरेन हेस्टिंग, कार्नवालिस और लॉर्ड वेलस्ली ने लगातार आगे बढ़ाया था। वेलस्ली की सब्सिडियरी अलायंस (सहायक संधि) की नीति ने भारतीय रियासतों पर परोक्ष नियंत्रण की शुरुआत कर दी थी और मराठा रियासतें भी उसकी चपेट में आती जा रही थीं।
भारतीय रियासतें : 1818 में तीसरे मराठा युद्ध में ब्रिटिश भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड हेस्टिंग्स ने मराठा शक्ति को चकनाचूर कर दिया। सिंधिया परिवार की बागडोर दौलत राव सिंधिया के हाथ में आई। मराठा सरदारों में सिंधिया ने सबसे अधिक दुनियादारी दिखाई और उज्जैन से लश्कर होते हुए ग्वालियर अपनी राजधानी बनाई।
सिंधिया राजघराने ने एक ओर दक्षिण के सुल्तानों से और दूसरी ओर अंग्रेजों से अच्छे कूटनीतिक रिश्ता क़ायम कर लिया था। इस परिवार को दक्षिण के शासकों और ब्रिटिश सरकार से मिले ख़िताबों पर नज़र डाली जाए तो ये साफ हो जाएगा कि इस परिवार में कितना कूटनीतिक कौशल रहा है।
हालांकि इस राजघराने ने 1857 लड़ाई में साफ तौर पर किसी भी पक्ष का साथ नहीं दिया, लेकिन उस वक़्त भी अंग्रेज़ों के साथ उसके अच्छे रिश्ते थे। पिछले ढाई तीन सौ सालों में इस परिवार के लगातार सत्ता में बने रहने के पीछे मुख्यतः दो कारण रहे हैं। एक, इस परिवार की दूरदर्शी व्यावहारिक राजनीति और दूसरा, परिवार में कुछ शासकों द्वारा अपनाई जाने वाली आधुनिकीकरण की नीति, जैसे महिलाओं का बराबरी का योगदान। दौलतराव सिंधिया की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी बैजाबाई सिंधिया ने शासन किया। उन्होंने जनकोजी राव को दत्तक पुत्र बनाया और उनकी मृत्यु के बाद ताराबाई ने सत्ता संभाली।
सिंधिया परिवार : यह सिलसिला आज़ादी के बाद भी चलता रहा। 1947 में अग्रेज़ी हुकूमत ने देसी रियासतों के सामने एक चयन प्रस्ताव रखा था कि वे चाहें तो अलग रहें या भारत या पाकिस्तान में विलय कर लें लेकिन सिंधिया परिवार ने भारत में विलय का निर्णय लिया था और जीवाजी राव मध्य भारत में राजप्रमुख बना दिए गए थे। 1962 में जिवाजी राव की पत्नी विजिया राजे सिंधिया ने चुनावी राजनीति में प्रवेश लिया और तबसे उनके परिवार भारत की दोनों प्रमुख पार्टियों में अपनी दमदार स्थिति बनाए रखी।
इस परिवार को भारत का एक खासा प्रमुख राजनीतिक परिवार कहा जा सकता है, जो राजतंत्र से लोकतंत्र तक अपना वर्चस्व बनाए रखने में सफल रहा है। जब मैं ग्वालियर गया तो जानना चाहा कि इस परिवार के लोग अलग अलग राजनीतिक पार्टियों में रहते हुए सफल रहे हैं, तो उनकी लोकप्रियता के पीछे वजह क्या है?
देसी रियासतें : जब मैंने लोगों से बात की तो मुझे हैरानी हुई कि इस परिवार के लोग एक लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि के तौर पर ही नहीं, एक सामंत के तौर पर भी इलाक़े में उतने ही लोकप्रिय हैं, लेकिन दूसरी तरफ ये भी है कि ये परिवार अंग्रेज़ों की आवभगत में भी आगे रहा था। इनके यहां खाने की एक विशाल मेज पर चांदी की एक रेलगाड़ी थी, जो चलती रहती थी और मेहमान उसमें से अपने लिए पकवान लेते थे। विदेशों में भारतीय महाराजाओं की बड़ी शोहरत थी और इसमें ये परिवार अग्रणी था। देश की अन्य रियासतों के मुक़ाबले इन्होंने ग्वालियर के आधुनिकीकरण में ज़्यादा काम किया।
(बीबीसी संवाददाता निखिल रंजन से बातचीत पर आधारित)