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किसान आंदोलन: 'खेती तो एक सीज़न की नष्ट होगी, क़ानून तो भविष्य ही चौपट कर देगा'

हमें फॉलो करें किसान आंदोलन: 'खेती तो एक सीज़न की नष्ट होगी, क़ानून तो भविष्य ही चौपट कर देगा'

BBC Hindi

, सोमवार, 7 दिसंबर 2020 (17:30 IST)
समीरात्मज मिश्र (बीबीसी हिन्दी के लिए, पश्चिमी उत्तरप्रदेश से)
 
पश्चिमी उत्तरप्रदेश के ग्रामीण इलाक़ों के किसान इस मौसम में बहुत व्यस्त रहते हैं। गन्ने की कटाई-छिलाई के साथ-साथ गेहूं बोने का भी यही मौसम है। आमतौर पर इस वक़्त किसान खेतों में डटे रहते हैं लेकिन इस समय उनके खेतों में सन्नाटा है या फिर कुछ मज़दूर और घर की औरतें ही खेतों में काम करती मिलेंगी।
 
मेरठ, बाग़पत, मुज़फ़्फ़रनगर, शामली, सहारनपुर जैसे ज़िलों के तमाम किसान दिल्ली सीमा पर नए कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ चल रहे प्रदर्शन में हिस्सा लेने गए हुए हैं। शामली ज़िले में बाबरी थाने के हाथीकरौंदा गांव के रहने वाले राजवीर ट्रैक्टर पर गन्ने लादकर जा रहे थे। उनके साथ ट्रैक्टर पर कुछ और लोग भी बैठे थे। पीछे दो महिलाएं भी बैठी थीं। हमसे बात करने के लिए राजवीर ट्रैक्टर से नीचे उतरे। मैंने सवाल किया, 'आप लोग प्रदर्शन में नहीं गए?'
 
उन्होंने बिना किसी देरी के कड़क आवाज़ में जवाब दिया, 'गए थे जी। तीन तारीख़ वाली मीटिंग में हम थे। अभी हमारे भाई हैं वहां पे। सरकार नहीं मानी हमारी बात और आंदोलन आगे चला तो हम फिर जाएंगे।'
 
घर से लोग बारी-बारी जा रहे
 
राजवीर के साथ खड़े एक अन्य बुज़ुर्ग ईश्वर बोल पड़े, 'घर में पशु भी हैं। उन्हें कौन देखेगा? इसीलिए हर घर से लोग बारी-बारी से वहां जा रहे हैं।' राजवीर सिंह के पास क़रीब तीस बीघे की खेती है और ज़्यादातर पर वो गन्ना बोते हैं। गन्ने के अलावा कुछ दूसरी फ़सलें भी बो लेते हैं। बताते हैं कि जीवन ठीक से चल रहा है लेकिन नए क़ानून से हमारा बहुत नुक़सान होगा।
 
नुक़सान के सवाल पर कहते हैं, 'क़ानून जो बनाया है सरकार ने, वो पक्का नहीं बनाया है। एसएमपी (यहां के किसान एमएसपी को यही कहते हैं) जो है ये पक्की कर दी जाए तब सही रहेगा। सरकार तो आती-जाती रहेगी लेकिन क़ानून पक्का रहेगा तो उसे कोई छेड़ नहीं पाएगा। सरकार क्यों नहीं कर रही है? इसका मतलब उसकी नीयत में कोई खोट है। खेती का तो इस समय बहुत नुक़सान हो रहा है, फिर भी किसान डटे हैं। क्या करें? अभी तो एक सीज़न की फ़सल बर्बाद होवैगी, क़ानून तो किसानों का भविष्य ही चौपट कर बैठेगा।'
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खेती का नुक़सान
 
नए कृषि क़ानून के ख़िलाफ़ किसान इस समय दिल्ली सीमा पर डटे हैं। पश्चिमी यूपी के कई ज़िलों से बड़ी संख्या में किसान दिल्ली बार्डर पर पहुंचे हैं और जगह-जगह सड़कों पर धरना प्रदर्शन चल रहा है। कई दौर की वार्ता के बाद भी कोई हल न निकलने के कारण किसानों को लग रहा है कि आंदोलन लंबा खिंच सकता है। इसके लिए किसान इस रणनीति पर काम कर रहे हैं कि बारी-बारी से कुछ लोग वहां से आ रहे हैं और दूसरे लोग यहां से जा रहे हैं। साथ में राशन-पानी की आपूर्ति भी क़ायदे से हो जाती है। पश्चिमी यूपी के इन इलाक़ों की दिल्ली से दूरी भी ज़्यादा नहीं है।
 
यह ज़रूर है कि पुरुष सदस्यों के आंदोलन में जाने के कारण खेती को नुक़सान हो रहा है क्योंकि ज़्यादातर किसान अपनी खेती ख़ुद ही करते हैं। बड़े किसानों के यहां मज़दूर भी काम करते हैं लेकिन छोटे किसानों के यहां घर के ही सभी सदस्य मिलकर खेती करते हैं। किसानों के आंदोलन में शामिल होने के चलते अभी उनके घर की महिलाओं ने खेती और फ़सलों की देख-रेख का ज़िम्मा संभाल रखा है।
 
इन सभी ज़िलों में खेतों में गन्ने की खड़ी फ़सल दिखेगी जहां कुछ हिस्सों में गन्ने की कटाई हुई है लेकिन उसके बाद से कटाई बंद है। कुछ जुते खेत सूख रहे हैं लेकिन अभी उनमें गेहूं नहीं बोया जा सका है। कुछ खेतों में बुवाई हो चुकी है लेकिन ऐसे खेत कम ही हैं।
 
शामली ज़िले में हाईवे के किनारे स्थित बुटराड़ा गांव में दो मज़दूर गन्ने की छिलाई करने के बाद खेत में ही खाना खा रहे थे। ये दोनों मध्य प्रदेश के सीधी ज़िले के रहने वाले हैं और हर साल आठ-नौ महीने यहीं आकर गन्ने की कटाई-छिलाई करते हैं। उन्हीं में से एक छविलाल ने बताया, 'घर के लोग भी छिलाई करते थे लेकिन अभी हम दोनों ही काम कर रहे हैं। घर के लोग कहीं गए हुए हैं और खेत के मालिक पास के खेत में स्प्रे कर रहे हैं।' छविलाल को यह नहीं पता था कि घर के और लोग कहां गए हुए हैं।
 
मुज़फ़्फरनगर के सिसौली में दोपहर के वक़्त एक खेत में कुछ महिलाएं और लड़कियां खेत में काम करती मिलीं। बातचीत को तैयार हो गईं लेकिन तस्वीर नहीं खिंचाना चाहती थीं। नीता चौधरी मेरठ विश्वविद्यालय से बीए दूसरे साल की छात्रा हैं। लॉकडाउन के बाद से ही कॉलेज बंद है तो घर पर ही पढ़ाई हो रही है।
 
नीता कहने लगीं, 'पापा और भाई गांव के दूसरे लोगों के साथ धरने पर गए हैं इसलिए हम लोग खेत में आकर अपना काम कर रहे हैं। पहले भी करते रहे हैं लेकिन अब पूरी ज़िम्मेदारी हमारे ऊपर ही है। पता नहीं उन लोगों को वहां कितने दिन रहना पड़े। हम लोग अकेले नहीं हैं बल्कि सभी घरों की महिलाएं ही इस समय यह ज़िम्मेदारी निभा रही हैं। नहीं करेंगे तो खड़ी फ़सल ख़राब हो जाएगी। इसी के भरोसे अगले साल का पूरा ख़र्च चलता है।'
 
आख़िरी वाक्य में नीता के चेहरे पर मुस्कान उभर आई थी लेकिन सरकार के रवैये को लेकर ग़ुस्सा भी था। बोलीं, 'हमारे यहां तो कहा जाता है कि जाट बड़े ज़िद्दी होते हैं लेकिन हमें तो लग रहा है इस सरकार से ज़्यादा ज़िद्दी कोई नहीं है। कोई बात ही सुनने को राज़ी नहीं है।' कुछ और लोगों से बातचीत में पता चला कि सिर्फ़ पुरुष ही नहीं बल्कि सिसौली क्षेत्र से कई महिलाएं भी धरने में गई हैं। तमाम लोगों के यहां शादी-विवाह भी है, बावजूद इसके लोग आंदोलन को समर्थन दे रहे हैं और वहां पहुंच रहे हैं।
 
शामली ज़िले में बनत गांव की एक महिला घूंघट के अंदर से ही हंसते हुए बताती हैं, 'मेरा तीस साल का बेटा सूरज भी एक हफ़्ते से दिल्ली गया हुआ है। उसका छह साल का बेटा पूछता है कि पापा कहां गए हैं? रोज़ शाम को मोबाइल में फ़ोटो देखते हुए हम लोग सूरज से बात करते हैं। बच्चा उसे देखकर उसे ख़ुश हो जाता है। सूरज मोबाइल में हमें यह भी दिखाता है कि कितने लोग वहां जमा हुए हैं और कैसे लोग खाने-पीने का इंतज़ाम कर रहे हैं।'
 
किसान सब समझ रहा है
 
शामली ज़िले में बाबरी थाने के बंतीखेड़ा गांव में जगबीर सिंह के घर पर बैठे कुछ लोग किसान आंदोलन के बारे में ही बातें कर रहे थे। बीच में हुक्का रखा हुआ था। सभी लोग बारी-बारी से उसका आनंद ले रहे थे। हमें पत्रकार जान कर बुज़ुर्ग जगबीर सिंह मुस्कराए और ख़ुद ही सवाल कर बैठे- 'सरकार म्हारी बात मानैगी कि नहीं?' जगबीर सिंह के सवाल का जवाब वहां मौजूद युवा किसान वीर सिंह देते हैं जो ख़ुद तीन दिन धरने में शामिल होने के बाद गांव आए थे और अगले दिन राशन-पानी लेकर फिर से वहीं जाने को तैयार थे।
 
वीर सिंह कहते हैं, 'मानैगी जी... मानैगी। नहीं मानौगी तो जाएगी कहां। देशभर का किसान डटा है वहां। ये तो रेल बंद है, ना तो और किसान इकट्ठा हो जाता। देर-सबेर सरकार की समझ में आएगा ही कि वो किसानों का नुक़सान करने जा रही है और इन्हीं किसानों ने उसकी सरकार बनवाई है।'
 
नए क़ानून में किसानों की आशंकाओं को वीर सिंह कुछ इस तरह बताते हैं, 'आज किसान अनपढ़ नहीं है। सब समझ रहा है। किसान को इस बात का डर है कि उसे सौ साल पहले की स्थिति में पहुंचा दिया जाएगा और अंबानी-अडानी जैसे लोगों के हवाले सारी ज़मीन हो जाएगी। वो अपने हिसाब से किसानों को बताएंगे कि भाई एमएसपी इतनी है, तुम्हारा अनाज ख़राब है, इस पर बिकेगा नहीं। मजबूरी में किसान औने-पौने दाम पर उसे बेचेगा। वो लोग अपनी मनमर्ज़ी से किसानों से खेती कराएंगे, जो चाहेंगे, उसी की खेती किसान करेगा। किसान को सबसे ज़्यादा डर इसी बात का है।'
 
किसानों के साथ बातचीत में शामली के वरिष्ठ पत्रकार शरद मलिक भी हमारे साथ थे। शरद मलिक बताते हैं, 'क़ानून को लेकर नाराज़गी यहां के किसानें में भी थी लेकिन शुरू में ये लोग धरना-प्रदर्शन में नहीं गए। जब देखा कि हरियाणा-पंजाब के किसान डटे हुए हैं तो ये लोग भी पहुंचने लगे। दरअसल, ये पूरी बेल्ट बीजेपी समर्थक किसानों की है। इनसे बीजेपी और ख़ासकर प्रधानमंत्री मोदी के विरोध में आप एक शब्द भी नहीं सुन सकते हैं लेकिन यह मामला चूंकि सीधे इनके नफ़े-नुकसान से जुड़ा है तो अब खुलकर विरोध में आ गए हैं।'
 
शरद मलिक की बातों की पुष्टि किसानों से बातचीत में भी हो जाती है। किसानों का सरकार से कोई विरोध नहीं है। उनका विश्वास है कि सरकार को किसी ने भ्रमित किया होगा, अन्यथा इस तरह का क़ानून मोदी सरकार ला ही नहीं सकती थी। बंतीखेड़ा के रहने वाले कृष्णपाल सिंह तो अब भी सरकार के समर्थन में हैं, बस सरकार थोड़ा सा सुधार कर ले। कहते हैं, 'बिल तो ठीक है जो पास करे हैं। बस डर ये है कि एमएसपी कहीं ख़त्म न कर दें। यही लिखित में दे दें तो धरना तो कल ख़त्म हो जाए।'

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