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कोरोना वायरस टेस्ट कराने से मस्तिष्क पर असर पड़ सकता है?-फ़ैक्ट चेक

हमें फॉलो करें कोरोना वायरस टेस्ट कराने से मस्तिष्क पर असर पड़ सकता है?-फ़ैक्ट चेक

BBC Hindi

, रविवार, 19 जुलाई 2020 (07:35 IST)
जेक गुडमैन और फ़्लोरा कार्माइकल, बीबीसी रियलटी चेक
 
बीते कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर कोरोना वायरस टेस्टिंग से जुड़ी एक तस्वीर वायरल हो रही है। इस तस्वीर में दावा किया जा रहा है कि कोरोना वायरस की टेस्टिंग के लिए जो स्वॉब स्टिक नाक के अंदर डाली जा रही है, वह 'ब्लड ब्रेन बैरियर' पर जाकर सैंपल ले रही है।
 
बीबीसी ने इस जैसे कई अन्य दावों की पड़ताल की है। स्वॉब स्टिक के ब्लड ब्रेन बैरियर तक पहुंचने का दावा पूरी तरह ग़लत साबित हुआ।
 
ये सोचना पूरी तरह ग़लत है कि आप अपनी नाक में एक स्वॉब स्टिक (रुई का फाहा) डालकर 'ब्लड ब्रेन बैरियर' तक पहुंच सकते हैं। ये दावा करना भी ब्लड ब्रेन बैरियर के प्रति कम समझ को दर्शाता है।
 
दिमाग़ सुरक्षित रहता है
दरअसल, दिमाग़ के आसपास इसकी सुरक्षा के लिए कई स्तर की व्यवस्था होती है। सबसे पहले दिमाग़ खोपड़ी में सुरक्षित रहता है। इसके बाद दिमाग़ तरल पदार्थ और झिल्लियों में कैद रहता है।
 
दिमाग़ के आसपास बह रही खू़न की धमनियों में ब्लड ब्रेन बैरियर मौजूद होता है। यह कई परतों वाली कोशिकाओं से बना होता है। इसका काम खू़न में मौजूद अणुओं को दिमाग़ में पहुंचने से रोकना और ऑक्सीजन समेत अन्य पोषक तत्वों को जाने देना है।
 
ऐसे में अगर स्वॉब स्टिक को नाक के अंदर डालकर ब्लड ब्रेन बैरियर तक पहुंचना है तो उसे कई परतों के उत्तकों में छेद करते हुए एक हड्डी में छेद करके, खून की नसों में पहुंचना होगा। तब जाकर आप ब्रेन ब्लड बैरियर तक पहुंच पाएंगे।
 
ब्रिटिश न्यूरोसाइंस एसोसिएशन से जुड़ी डॉक्टर लिज़ कॉल्टहार्ड कहती हैं, “जब तक नाक में स्वॉब डालते हुए उतना दबाव न लगाया जाए कि उत्तकों और हड्डी की कई परतें टूट जाएं, तब तक स्वॉब ब्लड ब्रेन बैरियर तक नहीं पहुंच सकता है। हमने अपनी न्यूरोलॉजी प्रेक्टिस के दौरान कोविड स्वॉब से किसी तरह की समस्या नहीं देखी हैं।”
 
दरअसल, 'नेज़ोफेरेंजियल स्वॉब' कोरोना वायरस की टेस्टिंग के लिए नाक की पिछली दीवार के नमूने लेता है। ये कई स्वॉब सैंपल तकनीकों में से एक है।
 
ब्रिटेन समेत कई देशों में कोविड-19 की जांच करने के लिए नाक और गले का स्वॉब सैंपल नियमित रूप से लिया जा रहा है।
 
लिवरपूल स्कूल ऑफ़ ट्रॉपिकल मेडिसिन से जुड़े टॉम विंगफ़ील्ड कहते हैं, “मैंने अस्पताल में काम करते हुए कई मरीजों का स्वॉब सैंपल लिया है और हर हफ़्ते एक ट्रायल के लिए अपना स्वॉब सैंपल भी लेता हूँ। नाक में किसी भी चीज़ का इतना अंदर जाना थोड़ा अजीब है। स्वॉब सैंपल लिए जाते समय थोड़ी खुजली या गुदगुदाहट हो सकती है लेकिन दर्द नहीं होना चाहिए।”
 
ये झूठे दावे बीती छह जुलाई को कुछ अमरीकी फ़ेसबुक अकाउंट्स से शुरू हुए थे। कुछ दावों में इस बात का भी ज़िक्र है टेस्टिंग से इनकार करने से जुड़े कई कॉल भी आ रहे हैं। इनमें से कुछ दावों को फ़ैक्ट चेक करने वाली संस्थाओं ने झूठा बताया है।
 
ये भी देखा गया कि कि यही ग्राफ़िक रोमेनियन, फ्रेंच, डच और पुर्तगाली फ़ेसबुक यूज़र्स के अकाउंट पर भी शेयर हो रहे हैं।
 
टेस्टिंग किट से नहीं फैलता कोरोना वायरस
 
ख़राब टेस्टिंग किट की कुछ रिपोर्ट्स को भी ग़लत तरीक से पेश कर बताने की कोशिश की गई कि इनसे टेस्ट कराने से कोरोना वायरस से संक्रमित होने का ख़तरा है।
 
एक ख़बर की हेडलाइन में ये बताया गया था महामारी के शुरुआती दौर में यूएस सेंटर फ़ॉर डिज़ीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के लैब में टेस्ट के दौरान अपनाए गए गलत तरीकों के कारण टेस्ट सही तरीके से नहीं हो पाए थे। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि ये टेस्ट करावाने वाले लोग इससे संक्रमित हो सकते हैं।
 
फेसबुक पर फ़ॉक्स न्यूज़ के होस्ट टकर कार्लसन के फ़ैनपेज पर एक ख़बर शेयर की गई जिसके साथ लिखा गया – “आपको कोविड-19 चाहिए, आपको ऐसे मिलेगा!” इस पोस्ट को 3,000 से ज़्यादा बार शेयर किया गया।
 
अमरीकी अख़बार वॉशिंगटन पोस्ट की ये पूरी ख़बर जून में छपी थी। इसमें लिखा गया था कि एक जांच में पता चला है कि किट की गड़बड़ियों और लैब के नियमों के कारण सीडीसी टेस्टिंग प्रोग्राम में देरी हुई। रिपोर्ट में ऐसा नहीं लिखा था कि वायरस ख़राब किट के कारण फैला है।
 
ख़बर 'पे वॉल' आधारित थी यानी इसे पढ़ने के लिए पैसे देने पड़ते हैं। ज़ाहिर है कि ज़्यातादर लोग जिन्होंने ये पोस्ट देखा था, उन्होंने पूरी ख़बर नहीं पढ़ी होगी और हेडलाइन पढ़कर ग़लत मतलब निकाल लिया होगा।
 
अमरीका और भारत के फ़ैक्ट चेकर्स ने उस दावे को भी ख़ारिज किया है जिसमें कहा गया था कि कोरोनावायरस टेस्ट गेट्स फ़ाउंडेशन की एक साज़िश के तहत किए जा रहा हैं और टेस्ट के बहाने मरीज़ों के शरीर में माइक्रोचिप लगाए जा रहे हैं। ऐसा कोई भी सबूत नहीं है जो इस दावे को प्रमाणित कर सके।
 
स्वॉब पर सिर्फ़ सांस क्यों नहीं ले सकते?
 
सोशल मीडिया पर एक मीम शेयर किया जा रहा है जिसमें लिखा है-अगर कोविड सच में सिर्फ़ सांस से फैल रहा है तो स्वॉब पर सिर्फ सांस छोड़ना ही काफ़ी क्यों नहीं हैं? स्वॉब को आपके नाक के बिल्कुल अंदर तक डालने की क्या ज़रूरत है। इस पोस्ट ने फ़ेसबुक और इंस्टाग्राम पर 7,000 से ज़्यादा लोगों को इंगेज किया।
 
कोरोना वायरस किसी संक्रमित व्यक्ति के ख़ांसने या छींकने से फैलता है। मुंह से निकलने वाले सूक्ष्म कणों के साथ वायरस हवा में फैलता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सिर्फ स्वॉब पर सांस छोड़ देने से लैब में टेस्ट के लिए पर्याप्त मटेरियल मिल जाएंगे।
 
बीबीसी ने इंग्लैंड के पब्लिक स्वास्थ्य विभाग से बात की। उन्होंने बताया कि नाक या गले के अंदर से लिए गए सैंपल से नतीजे बेहतर आते हैं।
 
अगर आप स्वॉब में हल्की सांस लेते हैं तो मुमकिन है कि वायरल कण या वायरस पकड़ में न आए। अगर स्वॉब को नाक या गले के अंदर डाला जाए तो नतीजे बेहतर होंगे।
 
बांग्लादेश का वायरस फ्री सर्टिफ़िकेट
 
हमने बांग्लादेश के उस सर्टिफ़िकेट की भी जांच कि जो किसी व्यक्ति के संक्रमित न होने का प्रमाण दे रहा था।
कई लोगों को जाली दस्तावेज़ जारी करने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया। ये दस्तावेज़ उन लोगों को निगेटिव बता रहे थे जिनका कभी टेस्ट ही नहीं हुआ।
 
इन दस्तावेजों के महत्व भी है क्योंकि प्रवासी मज़दूरों से वायरस-फ्ऱी होने का सर्टिफ़िकेट दिखाने को कहा जाता है। बांग्लादेश में कई परिवारों के घर देश के बाहर काम कर रहे लोगों की आमदनी से चलते हैं।
 
हाल ही में भारतीय सीमा के पास चली नौ दिनों की खोजबीन के बाद एक अस्पताल के मालिक को पकड़ा गया। आरोप है कि उसने कई लोगों की फ़र्जी रिपोर्ट बनाई थी। वो शख़्स एक महिला के वेश में घूम रहा था। क्रिमिनल गैंग भावी ग्राहकों की तलाश में इंटरनेट पर विज्ञापन भी डाल रहे हैं।
 
हैरानी की बात ये है कि बांग्लादेश में कई फ़ेक पॉज़िटिव सर्टिफ़िकेट भी बेचे जा रहे है, ख़ासकर सरकारी अधिकारियों के लिए ताकि वो अपने दफ़तरों से छुट्टी ले सकें।
 

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