भारत क्या चीन को अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर पीछे छोड़ देगा? विशेषज्ञों का जवाब

BBC Hindi
शनिवार, 15 अक्टूबर 2022 (07:58 IST)
ज़ुबैर अहमद, बीबीसी संवाददाता
 
विश्व बैंक की हाल में आई एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 2020 में कोविड-19 के कारण साढ़े पाँच करोड़ से अधिक भारतीय ग़रीबी में चले गए। कुछ दिन पहले आईएमएफ़ की एक ताज़ा रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया कि 2022 में भारत की अर्थव्यवस्था की विकास दर 6.8 प्रतिशत रहेगी। पहले ये अनुमान 7.4 प्रतिशत था।
 
आईएमएफ़ का ये भी कहना है कि 2023 में विकास दर और गिर सकती है और इसके 6.1 फ़ीसदी रहने का अनुमान है। हालाँकि रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया की सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तेज़ी से आगे बढ़ती रहेगी।
 
इन रिपोर्टों के बावजूद भारत में कई उद्योगपति, मंत्री और आर्थिक विशेषज्ञ ये उम्मीद रखते हैं कि आने वाले वर्षों में भारत की आर्थिक गति इतनी तेज़ी से बढ़ेगी कि ये चीन को भी पीछे छोड़ देगी। चीन इस समय अमेरिका के बाद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है।
 
इस आशावाद की वजह ये है कि इस साल मार्च के अंत तक भारतीय अर्थव्यवस्था ने ब्रिटिश अर्थव्यवस्था को पीछे छोड़ दिया और दुनिया की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया।
 
भारतीय स्टेट बैंक के एक रिसर्च पेपर के अनुसार, भारत 2027 तक जर्मनी की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और 2029 तक दुनिया में जापान की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था को पीछे छोड़ देगा।
 
इस रफ़्तार से क्या भारतीय अर्थव्यवस्था का अगला पड़ाव चीन होगा? क्या यह 15-20 सालों में दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी चीनी अर्थव्यवस्था को भी पीछे छोड़ सकती है?
 
दूसरे शब्दों में क्या आज की 3.1 ट्रिलियन डॉलर की भारतीय अर्थव्यवस्था 17.7 ट्रिलियन डॉलर की चीनी अर्थव्यवस्था के क़रीब आ सकती है या इसे पीछे छोड़ सकती है? पुरानी पीढ़ियों को याद होगा कि एक ज़माने में दोनों देशों का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) लगभग बराबर था। 1990 में चीनी अर्थव्यवस्था भारत की तुलना में थोड़ी ही बड़ी थी, लेकिन आज चीन की जीडीपी भारत से 5.46 गुना बड़ी है।
 
क्या भारत अगला चीन हो सकता है?
जिन्हें चीन की अर्थव्यवस्था की थोड़ी भी जानकारी है, इस सवाल को असंभव बताकर ख़ारिज कर देते हैं। भारत के बाज़ारों में चीन से निर्यात की गई चीज़ें इतनी हावी हैं कि चीनी की अर्थव्यवस्था से तुलना करने का वो साहस भी नहीं करते।
 
दुनिया के कुछ बड़े अर्थशास्त्री भी इस मुद्दे पर बहस को समय की बर्बादी कहते हैं। प्रख्यात अमेरिकी अर्थशास्त्री स्टीव हैंके जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय में एप्लाइड इकोनॉमिक्स के प्रोफ़ेसर हैं, जिन्होंने अमेरिका के राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन की आर्थिक सलाहकार परिषद में भी काम किया है।
 
बीबीसी हिंदी से बात करते हुए वो कहते हैं, "भारत समस्याओं से दबा हुआ है। कैटो इंस्टिट्यूट के ह्यूमन फ्रीडम इंडेक्स में 165 देशों में से, जो व्यक्तिगत, नागरिक और आर्थिक स्वतंत्रता को मापता है, भारत 119वें रैंक पर है। उदाहरण के लिए क़ानून के शासन पर दिए गए स्कोर में, जिसमें प्रक्रियात्मक न्याय, नागरिक न्याय, और आपराधिक न्याय शामिल हैं, भारत का रिकॉर्ड दुनिया में सबसे ख़राब देशों में से है।"
 
वो आगे कहते हैं, "क़ानून के शासन की मज़बूती से पालन के बिना कोई भी देश मज़बूत, निरंतर आर्थिक परिणाम की उम्मीद नहीं कर सकता है। पिछले 10 वर्षों में भारत में रुझान प्रवृत्ति गिरावट का रहा है। 2008 में, भारत 89वें स्थान पर था, जो लगातार गिरकर 119 वें स्थान पर आ गया है।"
 
उनके अनुसार वैसे चीन की रैंक भारत से भी नीचे है, कैटो इंस्टिट्यूट के ह्यूमन फ़्रीडम इंडेक्स में शामिल 165 देशों में से यह 150वें स्थान पर है। चीन भी नीचे की ओर चल रहा है। 2008 में इसे 126वें स्थान पर रखा गया था। इन मेट्रिक्स को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों देश हारे हुए हैं।
 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2047 तक भारत को एक विकसित राष्ट्र बनाने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है। लेकिन ये लक्ष्य भी चीन को चुनौती देने के लिए काफ़ी नहीं होगा। वास्तव में चीन की अर्थव्यवस्था को पार करना एक असंभव लक्ष्य की तरह दिखता है।
 
ज़रा ग़ौर कीजिये, वर्ल्ड बैंक के अनुसार 2021 में भारत की जीडीपी 3.1 ट्रिलियन डॉलर थी और चीन की 17.7 ट्रिलियन डॉलर की।
 
अगर चीनी अर्थव्यवस्था को यहीं रोक दिया जाए और भारतीय अर्थव्यवस्था 7-7.50 प्रतिशत की दर से बढ़ती रही, तो इसकी अर्थव्यवस्था 20 ट्रिलियन डॉलर की होगी, यानी आज की चीनी अर्थव्यवस्था को पार करने में भारत को लगभग 25 साल लगेंगे।
 
प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (ईएसी-पीएम) के अध्यक्ष बिबेक देबरॉय ने 30 अगस्त को कहा था कि भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार 2047 तक 20 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँच जाएगा, बशर्ते अगले 25 वर्षों में वार्षिक औसत वृद्धि 7-7.5 प्रतिशत हो।
 
मंगलवार को आईएमएफ़ ने एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस में कहा कि 2022 में भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि 7.4 प्रतिशत से कम होकर 6.8 प्रतिशत होगी और 2023 में इससे भी कम। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि इस दर पर चीन को पछाड़ना भूल जाइए, उससे मुक़ाबला करना भी लगभग नामुमकिन होगा।
 
लेकिन क्या हम हाल के इतिहास से कुछ सीख सकते हैं? समान आबादी वाली दो बड़ी विकासशील एशियाई अर्थव्यवस्थाओं के रूप में, चीन और भारत दोनों ने युद्ध और ग़ुलामी से आज़ाद होने के बाद लगभग शून्य से अपनी अर्थव्यवस्था की शुरुआत की।
 
1947 में, भारत ब्रिटिश साम्राज्य से एक स्वतंत्र राष्ट्र बन गया, जबकि दो साल बाद 1949 में, पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की स्थापना हुई।
 
1990 तक दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाएँ लगभग समान थीं। तो एक बार फिर से ऐसा क्यों नहीं हो सकता, ख़ास तौर से एक ऐसे समय में, जब चीन की विकास दर धीमी पड़ती जा रही है जबकि भारत की आर्थिक विकास की दर लगातार 6 प्रतिशत से ऊपर है।
 
आईएमएफ़ ने भी कहा है कि भारत की अर्थव्यवस्था बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तेज़ी से बढ़ती रहेगी।
 
भारत और पश्चिम में कई आशावादी दावा करते हैं कि अगर भारत सही क़दम उठाता रहा, तो लंबी अवधि में भारत अगला चीन हो सकता है।
 
भारत की मुख्य ताक़त
लेकिन चीन की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी के क़रीबी माने जाने वाले 'ग्लोबल टाइम्स' का कहना है कि अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देश भारत को गुमराह कर रहे हैं कि वह अगला चीन है।
 
'ग्लोबल टाइम्स' का कहना है, "चीन के विकास को रोकने और देश में विदेशी निवेशकों को गुमराह करने के लिए अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देशों की ओर से लगातार चालें चली जा रही हैं, जिसके अंतर्गत भारत को यक़ीन दिलाया जा रहा है कि वो "अगला चीन" बन सकता है, जिससे भारत को विश्वास होने लगा है कि वो पाँच वर्षों में जर्मनी को और अगले दो वर्षों में जापान को पीछे छोड़ सकता है।"
 
कुछ साल पहले 'व्हार्टन' के डीन जेफ्री से पूछा गया कि क्या भारत अपनी आर्थिक वृद्धि को गति दे सकता है, यहाँ तक कि चीन से भी आगे निकल सकता है, तो उन्होंने कहा था कि हाँ हो सकता है, ऐसा संभव है।
 
उन्होंने अपना तर्क कुछ यूँ दिया, "चीन इतिहास का पहला ऐसा देश बनने जा रहा है, जो अमीर होने से पहले बूढ़ा होगा। अगले दशक में इसकी आबादी 1।5 बिलियन से कम होगी और फिर धीरे-धीरे मध्य शताब्दी तक लगभग 1.3 बिलियन लोगों तक सीमित हो जाएगी। 2050 तक चीन में ऐसे लोगों की आबादी 70 फ़ीसदी हो जाएगी, जो कामकाजी लोगों पर निर्भर रहेंगे। अभी ये 35 फ़ीसदी है। इससे चीन और वहाँ की स्वास्थ्य व्यवस्था पर भी दबाव बढ़ेगा।"
 
दूसरी तरफ़ वे भारत के बारे में कहते हैं, "इस मामले में भारत चीन से कहीं अधिक मज़बूत स्थिति में है। 2050 तक 1.7 बिलियन लोगों की आबादी के साथ भारत जनसंख्या के मामले में दुनिया का सबसे बड़ा देश होगा। लेकिन निर्भरता के मामले में वो चीन से बहुत बेहतर स्थिति में होगा।
 
इंग्लैंड में भारतीय मूल के राणा मित्तर ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में आधुनिक चीन के इतिहास और राजनीति के प्रोफ़ेसर हैं और चीन पर उन्होंने कई किताबें लिखी हैं।
 
उन्होंने बीबीसी हिंदी को एक ईमेल इंटरव्यू में बताया कि भारत को अपने युवाओं को अधिक कुशल बनाने और शिक्षा पर अधिक ख़र्च करने की आवश्यकता है।
 
उन्होंने कहा, "भारत की जनसंख्या युवा है, लेकिन चीन अभी भी शोध और विकास पर अधिक ख़र्च करता है, इसलिए भारत को अपनी जनसांख्यिकी से पूर्ण लाभ प्राप्त करने के लिए शिक्षा पर अधिक निवेश करना होगा।"
 
सिंगापुर स्थित चीनी पत्रकार सन शी के विचार में युवाओं की अधिक आबादी वाले एंगल को सही तरह से नहीं देखा जा रहा है।
 
बीबीसी हिंदी से बातें करते हुए वो कहते हैं, "हाँ, आप कह सकते हैं कि भारत में चीन की तुलना में अधिक युवा श्रमिक हैं, लेकिन उनका शैक्षिक और कौशल स्तर वास्तव में चीनी श्रमिकों की तुलना में कम है। और अब यह एक साइबर युग है, प्रौद्योगिकी श्रम से अधिक महत्वपूर्ण है, और चीन प्रौद्योगिकी इनोवेशन में बेहतर है।"
 
चीनी पत्रकार सन शी कहते हैं कि वैचारिक रूप से, "तथाकथित समान लोकतंत्र के कारण पश्चिम चीन से अधिक भारत को तरजीह देता है और वह हमेशा चीन को संतुलित करने के लिए भारत का इस्तेमाल करना चाहता है। लेकिन इतिहास, संस्कृति और अर्थव्यवस्था के लिहाज से भारत कोई नया चीन नहीं है। आर्थिक विकास के संबंध में, मुझे लगता है कि चीन के कई फ़ायदे हैं, जैसे एक मज़बूत नेतृत्व, हमेशा दीर्घकालिक योजनाएँ और प्रभावी कार्यान्वयन।"
 
वर्ल्ड फ़ैक्टरी बनाम वर्ल्ड बैक ऑफ़िस
चीन ने 1978 में और भारत ने 1991 में अपने यहाँ आर्थिक सुधार शुरू किए। लेकिन दोनों ने अपनी अर्थव्यवस्थाओं को आगे बढ़ाने के लिए अलग रास्ते चुने।
 
हालाँकि दोनों ने वैश्वीकरण से मिले फ़ायदे का आनंद लिया। चीन ने मैन्युफैक्चरिंग, सप्लाई चेन और विश्व स्तर के बुनियादी ढाँचे के निर्माण पर ध्यान केंद्रित किया, जबकि भारत ने सर्विस सेक्टर को आगे बढ़ाने पर ज़ोर दिया।
 
इसीलिए चीन को लंबे समय से 'दुनिया का कारखाना' कहा जाता है, जबकि भारत को 'दुनिया का बैक ऑफिस' कहा जाता है।
 
ग्लोबल टाइम्स के अनुसार, 1978 में चीन में आर्थिक सुधार और खुलापन शुरू किए जाने के बाद से अनिवार्य शिक्षा ने उच्च गुणवत्ता वाली श्रम शक्ति की नींव रखी। साथ ही चीन ने बुनियादी ढाँचे के निर्माण के विकास प्राथमिकता दी।
 
दुनिया की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की राह पर भारत ने सूचना क्षेत्र में कामयाबी हासिल करने के साथ-साथ बड़ी संख्या में अंग्रेज़ी बोलने वाले लोगों की संख्या का लाभ उठाया है, जिसके कारण इसे 'दुनिया का बैक ऑफिस' कहा जाता है।
 
मुक़ाबला
ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर राणा मित्तर की भारत को सलाह है कि इसे एक नया चीन बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।
 
उन्होंने कहा, "वह एक अच्छा भारत बने, जो वह कर सकता है। इसमें लोकतंत्र और बढ़ते मध्यम वर्ग के साथ-साथ अंग्रेज़ी का उपयोग करने वाले विश्व बाजारों तक पहुँच जैसे फ़ायदे हैं। इन लाभों का भारत भरपूर फ़ायदा उठा सकता है। भारत को संभवतः अपनी अर्थव्यवस्था को और अधिक खोलना होगा, लेकिन वह इस तथ्य का लाभ उठाने में सक्षम हो सकता है कि वर्तमान में चीन की अर्थव्यवस्था कोविड से पीड़ित है।"
 
विशेषज्ञ भारत की आर्थिक विकास में चुनौतियों पर काम करने की सलाह देते हैं। कुछ चुनौतियाँ ये हैं...
 
निर्यात-आधारित विकास
दिल्ली में फ़ोर स्कूल ऑफ़ मैनेजमेंट में चीनी मामलों के विशेषज्ञ डॉक्टर फ़ैसल अहमद के मुताबिक़ भारत के लिए अगले 20 वर्षों में चीन की अर्थव्यवस्था को पीछे छोड़ना संभव नहीं लगता।
 
वो कहते हैं, "भारत अगले 10 वर्षों में ख़ुद को निर्यात-आधारित विकास के रस्ते पर ला सकता है, जैसा कि चीन कई दशकों से करता आया है। भारत को इस समय निर्यात आधारित विकास पर ध्यान केंद्रित करने की ज़रूरत है। यही समय की मांग है।"
 
विदेशी निवेश
2019 और 2021 के बीच भारत में विदेशी निवेश की हिस्सेदारी 3.4 प्रतिशत से घटकर 2.8 प्रतिशत हो गई है। इस बीच चीन में एफडीआई 14.5 फ़ीसदी से बढ़कर 20.3 फ़ीसदी हो गई।
 
डॉक्टर फ़ैसला अहमद का तर्क है कि भारत को 'मेक इन इंडिया' जैसे अपने कार्यक्रमों को बढ़ावा देने के लिए उदार एफ़डीआई नीतियों और उदार निवेश व्यवस्थाओं पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है।
 
वे कहते हैं- चीन के ख़िलाफ़ पश्चिमी देशों के नैरेटिव और चीन+1 जैसी नीतियों के बावजूद चीन के काम करने का पैमाना अब भी अत्यधिक प्रतियोगी है।
 
बुनियादी ढाँचे के निर्माण में तेज़ी
डॉक्टर फ़ैसल अहमद भारत में बुनियादी ढाँचे के निर्माण की ज़रूरत पर काफ़ी ज़ोर देते हैं। वे कहते हैं, "भारत में सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक बुनियादी ढाँचे के विकास में कमी है। चाहे वह निर्यात से संबंधित बुनियादी ढाँचा हो, चुनौतियाँ बनी हुई हैं।"
 
सुधार की ज़रूरत
अमेरिका में भारतीय विशेषज्ञों का मानना है कि अमेरिका ने वर्षों से चीन की बढ़ती शक्ति को रोकने के तरीक़े के रूप में भारत की मदद की है।
 
भले ही भारत दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्था है, लेकिन इसकी आर्थिक नीतियाँ अमेरिकी, यूरोपीय और जापानी अधिकारियों और निवेशकों को निराश करती रहती हैं।
 
पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों का, जो भारत को एक स्वाभाविक सहयोगी के रूप में देखते हैं, मानना है कि भारत अपनी आर्थिक और सैन्य क्षमता को तभी पूरा कर पाएगा जब वह उच्च विकास दर प्राप्त करेगा। ये तब संभव होगा जब भारत में विदेशी निवेश बढ़े और तेज़ी से आर्थिक सुधार होते रहें।
 
विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 के अनुसार 2021 में एक ओर जहाँ शीर्ष 10 प्रतिशत आबादी के पास कुल राष्ट्रीय संपत्ति का 57 प्रतिशत है, तो दूसरी तरफ़ नीचे के 50 प्रतिशत के पास सिर्फ़ 13 प्रतिशत है।
 
आर्थिक विशेषज्ञ कहते हैं कि पिछले 10 सालों में नेता, उद्योगपति और व्यापारी भारत की तुलना चीन से करने लगे हैं। अगर मुक़ाबला चीन की अर्थव्यवस्था से जारी रहा तो इसके क़रीब भी आया जा सकता है।

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