नितिन श्रीवास्तव, बीबीसी संवाददाता
क़रीब एक साल पहले तक मुंबई में रहने वाले, 41 वर्षीय, पंकज भवनानी की ज़िंदगी बेहतरीन चल रही थी।
पत्नी राखी और दो जुड़वा बच्चों के साथ कॉर्पोरेट जगत में एक अच्छे ओहदे की नौकरी जारी थी लेकिन तभी अक्टूबर, 2019 में उन्हें ट्यूबरक्लोसिस (टीबी) यानी तपेदिक की बीमारी का पता चला।
टीबी ने पंकज के फेफड़ों पर हमला किया था और छह महीने के इलाज के बाद पंकज ने 80% रिकवरी भी कर ली। मुसीबतें और भी आनी थीं।
फ़रवरी के टेस्ट में पता चल की टीबी बैक्टीरिया ने पंकज के ब्रेन (दिमाग़) को संक्रमित कर दिया है और तीन महीने के भीतर पंकज की आँखों की रौशनी चली गई और पैरों का संतुलन बिगड़ने लगा।
उन्होंने बताया, "लॉकडाउन ख़त्म हो चुका था और 16 जुलाई के दिन छह घंटों तक मेरी ब्रेन सर्जरी की गई और इंफ़ेक्शन को साफ़ किया गया। 10 दिनों तक अस्पताल में बहुत स्ट्रॉन्ग दवाओं पर रखने के बाद मुझे डिस्चार्ज किया गया और पूरे साल इस कोर्स की हिदायत दी गई"।
बड़ी मुसीबत ने फिर घेरा क्योंकि इसके एक हफ़्ते बाद बाज़ार या सरकारी अस्पतालों में ये मिल ही नही सकी।
पंकज भवनानी बताते हैं, "टीबी का इलाज कराने वालों का ट्रीटमेंट अगर बीच में रुका तो बीमारी ठीक नहीं होती और उनकी जान जाएगी। जब दवा ख़त्म होने लगी और कहीं से नहीं मिल रही थी तो पाँच रातों तक मेरी फ़ैमिली में कोई नही सोया। डर बढ़ रहा था कि कहीं मैं बच्चों को संक्रमित न कर दूँ"।
पंकज के परिवार और नियोक्ता कम्पनी ने प्रधानमंत्री कार्यालय, महराष्ट्र सरकार, सभी बड़े अस्पतालों और कई निजी संस्थानों से दवा की गुहार लगाई।
दिक्क़त यही थी कि ये दवा जापान से आयात होती थी और कोरोना वायरस के वैश्विक संकट के चलते सप्लाई बाधित थी। पत्नी राखी के ट्वीटों की बदौलत बात फैली और आख़िरकार उन्हें दवा मिल सकी।
उस कठिन दौर को याद करके भावुक हो जाने पर पंकज ने कहा, "कुछ दिन तो लगा कि अब टीबी जान ही लेकर रहेगा"।
ट्यूबरक्लोसिस
विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी WHO के मुताबिक़ हर साल दुनिया में रिपोर्ट होने वाले ट्यूबरकुलोसिस के कुल मामलों में से एक-तिहाई भारत में होते हैं और देश में इस बीमारी से सालाना 480,000 मौतें भी होती हैं।
आँकड़ों को ब्रेक करने पर स्थिति और भी ख़तरनाक लगती हैं क्योंकि भारत सरकार का आकलन है कि देश में टीबी के चलते रोज़ाना 1,300 मौतें होती हैं।
हालाँकि भारत पिछले 50 सालों से टीबी की रोकथाम में लगा हुआ है लेकिन अब भी इसे 'साइलेंट किलर' के नाम से ही जाना जाता है।
और ये कोरोना वायरस के दस्तक देने से पहले का आकलन है। जनवरी के आख़िरी हफ़्ते के बाद से भारत में कोरोना के मामले बढ़ने शुरू हुए थे और 24 मार्च को देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा हुई थी।
सरकारी आँकड़ों की तुलना करने पर पता चलता है कि कोरोना वायरस के चलते टीबी के मरीज़ों की रिपोर्टिंग या नोटिफ़िकेशन के मामलों (इसमें निजी और सरकारी, दोनों अस्पताल शामिल हैं) में अप्रत्याशित गिरावट दर्ज की है और मामले गिर कर लगभग आधे पर आ गए हैं।
उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र और गुजरात के अलावा बिहार भी उन राज्यों में शामिल हैं जहाँ ट्यूबरक्लोसिस से काफ़ी मामले इलाज के लिए रिपोर्ट होते हैं।
लेकिन बिहार के प्रमुख टीबी अधिकारी डॉक्टर केएन सहाय के अनुसार, "सारा फ़ोकस कोविड-19 डाययग्नोसिस में शिफ़्ट करना पड़ गया"।
उन्होंने कहा, "स्टाफ़ की पहले भी कमी थी। पिछले महीनों में उन्हें कोविड केयर सेंटर और होम-टू-होम सैम्पल कलेक्शन वगैरह में शिफ़्ट कर दिए गए। ये तो मैंने सरकारी सेंटर्स की बात बताई है, प्राइवेट में भी सारे टीबी क्लीनिक लगभग बंद थे। इन सारी चीज़ों ने मिलकर हमारी केस नोटिफ़िकेशन में काफ़ी गिरावट कर दी, 30% से भी ज़्यादा की।"
पंकज भवनानी की तरह कोविड-19 पैंडेमिक के दौरान बहुत से ऐसे मरीज़ थे जिनको दवाओं-सुविधाओं में बहुत दिक्क़त हुई, अस्पतालों तक पहुँच नहीं सके। बहुत से ऐसे भी थे जो मिसिंग बताए जा रहे हैं यानी जिनका इलाज बीच में छूट गया।
संक्रमण का ख़तरा
अब डर इस बात का भी है कि उनसे कम्यूनिटी में टीबी का स्प्रेड और बढ़ सकता है।
शाकिब खान (नाम बदला हुआ) का परिवार ग़ाज़ियाबाद-नोएडा सीमा पर बसे खोड़ा गाँव में तीन साल से रह रहा था। उनके 71 वर्षीय पिता का टीबी का इलाज दिल्ली के पटेल चेस्ट अस्पताल में जारी था।
दिहाड़ी का काम करने वाले शाकिब को लॉकडाउन के दौरान घर चलाने में दिक्कत आई और अपने दूसरे पड़ोसियों की तरह वे भी इसके ख़त्म होते ही परिवार-पिता के साथ बिजनौर के अपने गाँव के लिए पलायन कर गए।
उन्होंने फ़ोन पर बताया, "पिता की दवा लॉकडाउन में ही ख़त्म हो गई थी। दोबारा इलाज शुरू करवाने में तीन हफ़्ते का टाइम बीत गया। डॉक्टर कह रहे हैं कि दोबारा 12 महीने दवा खानी पड़ेगी"।
टीबी की बीमारी का सही समय पर पता चलना इसके इलाज में निर्णायक होता है।
इसके बाद ही मरीज़ को दवा का पूरा कोर्स और सरकार की तरफ़ से पौष्टिक भोजन वगैरह के लिए पाँच सौ रुपए महीने की आर्थिक मदद मिलती है।
नरेंद्र मोदी सरकार ने साल 2025 तक टीबी को देश से मिटाने का प्रण किया है। लेकिन कोविड का क़हर ट्यूबरक्लोसिस के इलाज पर साफ़ दिखा है।
एपीडेमियोलॉजी एंड ग्लोबल हेल्थ में कनाडा रिसर्च चेयर और मैकगिल अंतरराष्ट्रीय टीबी सेंटर के प्रमुख डॉक्टर मधु पाई इस पूरे घटनाक्रम पर स्टडी कर रहे हैं और उनके मुताबिक़, "भारत का टीबी को 2025 तक ख़त्म करने का टारगेट कम से कम पाँच साल आगे बढ़ाना पढ़ सकता है"।
बीबीसी हिंदी से हुए एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने कहा, "कोविड की वजह से लोगों को घरों में बैठना पड़ा और उनमें लाखों मरीज़ टीबी के तो थे ही, साथ ही सैंकड़ों हज़ार ऐसे भी जिन्हें ये पता नहीं रहा होगा कि वे टीबी संक्रमित हैं। अब डेटा भी बता रहा है कि टीबी के नोटिफ़िकेशन में क़रीब 40% गिरावट दिखी। समस्या गंभीर है"।
वर्षों टीबी का इलाज कराने का बाद हाल ही में यूरोप शिफ़्ट हुईं रिया लोबो को कोविड-19 से भी एक शिकायत है।
उन्होंने कहा, "समय आ गया है कि दुनिया अब तक की सबसे घातक बीमारी को लेकर जागे और कोविड-19 की ही तरह उस पर तवज्जो दे, क्योंकि सभी ज़िंदगियाँ मायने रखती हैं। सभी को बेहतर इलाज और अच्छी सेहत का अधिकार है। इतने वर्षों के बाद भी ट्यूबरक्लोसिस की एक वैक्सीन नहीं बन सकी है"।
लॉकडाउन ख़त्म होने के बाद टीबी पर दोबारा ध्यान देने की कोशिशें जारी हैं और कई राज्य सरकारें ठप पड़े काम को गति देने की रूपरेखा बना रही हैं।
लेकिन इस बीच भारत के कोरोना वायरस से संक्रमित होने वालों की तादाद में भी इज़ाफ़ा होता जा रहा है और दूसरे रोगों की तरह इससे जुड़ी हुईं हैं टीबी मरीज़ों की भी मुश्किलें।
डॉक्टर मधु पाई कहते हैं, "जहाँ-जहाँ कोरोना के मामले बढ़ते हैं वहाँ फिर लॉकडाउन होता रहता है और इस अनिश्चितता का एक ही उपाय है। टीबी मरीज़ों को सरकार की तरफ़ से तीन-तीन महीने की दवाएँ दे दी जाए। दूसरा, उन लोगों को ढूँढा जाए जिनका टीबी इलाज कोविड काल में छूट गया"।